बुधवार, 19 अगस्त 2015

सीख लो मंतर

जाने कब सांप पकड़ना पड़ जाए

अन्ना जी गांधीवादी हैं. उनसे इस बारे में सलाह लेना दुस्साहस होगा.

लेकिन, उन भाइयों को मैं आगाह जरुर करना चाहता हूं, जिनका दिमाग, आंखें और हाथ बिना कुछ लिए दिए नहीं चलते.

'भाई साहब, अगर आपको ये आदत हो गई है कि आप सामने रखी फाइल को तब तक आगे नहीं बढ़ाते जब तक कि टेबल के नीचे से गांधी जी छपे हुए कागज न मिलें तो खास मंत्र सीख लीजिए'.

'सांप पकड़ने का मंतर'.

वरना लगता है कि आने वाले दिन में आपका काम नहीं चलने वाला.

ख़बर बस्ती की है. ये जिला सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक भले ही 'ए' और 'बी' कैटेगरी में न आता हो, लेकिन जनाब आप तो जानते ही हैं कि हिंदुस्तान में सोशल मीडिया की क्रांति हो गई है.

शहरों और गांवों  में सड़कें हों न हों, बिजली आती हो न आती हो, स्कूल कायदे से चलते हों कि नहीं लेकिन वहां फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्विटर धडल्ले से चलते हैं.

सोशल मीडिया के इन प्लेटफॉर्मों ने पूरी दुनिया को ऐसा तड़ित चालित तार बना दिया है जिसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक करंट पहुंचने में कोई वक्त ही नहीं लगता.
मेरी मंशा में खोट न देखिए.

मैं किसी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से नहीं जुड़ा हूं.

ये बात अलग है कि अस्सी फीसदी हिंदुस्तानियों की तरह मेरी खुद की स्लेट क्लीन है. मैं 'खाता' नहीं और इसके लिए मुझे किसी ग्रंथ की शपथ लेने की जरुरत नहीं. 


मेरे में बारे में तमाम लोग ऐसी गवाही खुद ही दे देते हैं.

वजह ये है कि एक तो मैं ऐसी किसी स्थिति में नहीं हूं कि मुझे कोई कुछ खिलाए. दूसरे, बचपन से अम्मा, बाबा, मां और पापा ने मन में ऐसे संस्कार भर दिए हैं कि इस लोक से ज्यादा चिंता परलोक की होती है.

सीसीटीवी कैद कर रहा हो या नहीं लेकिन हमेशा ये लगता है कि वो ऊपर बैठा सब देख रहा है. हर नेकी और हर बदी का हिसाब रखता जा रहा है.

लेकिन, मैं यहां साफ करता चलूं कि न खाने का मतलब ये नहीं कि मैंने किसी को 'खिलाया' नहीं. 


ट्रेन से लेकर, अस्पताल से लेकर, कॉलेज से लेकर, सरकारी दफ्तर तक असुविधा से बचने के लिए चाहे अनचाहे 'सुविधा शुल्क' तो देना ही पड़ता है.

सरकारी महकमों से रिटायर होने वालों से पूछ लीजिए, बो बता देंगे, अपने ही डिपार्टमेंट से अपना ही फंड, ग्रेच्युटी और पेंशन पाने के लिए अगर 'सुविधा शुल्क' न दिया तो काम नहीं होता. 


खैर जो बात आप जानते हैं, उसे दोहराने से क्या फायदा.

फायदे की बात तो मैं उन भाइयों को बताना चाहता हूं जो बिना 'खाए' कुछ करने को तैयार नहीं होते कि भाई साहब बस्ती में हुआ यूं कि रिश्वत मांगे जाने से कुछ किसान इस कदर नाराज़ हो गए कि उन्होंने सांप पकड़े और रिश्वत के बदले उन साहब के कमरे में छोड़ दिए.

सांप भी एक दो नहीं पूरे चालीस.

तो आप समझ लीजिए, वो बस्ती आपकी 'बस्ती' से भले ही दूर हो लेकिन क्या आप फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सअप और इंटरनेट को रोक सकते हैं? 


नहीं न. तो फिर समझिए कि अगर आपने सांप पकड़ने का मंतर मारना नहीं सीखा तो आपकी भी खैर नहीं.

दिल समझाने को आप कह सकते हैं कि गांव के किसान तो सांप पकड़ सकते हैं लेकिन शहर के लोगों में न तो ये हिम्मत है और न हुनर.

तो भाई साहब ये जान लीजिए कि यहां भी सपेरे बहुत घूमते हैं. दो-दो रुपये में नाग देवता के दर्शन कराते हैं. उनकी हथेली पर अगर इकट्ठे दो सौ रुपये रख दिए जाएं तो सोचिए वो क्या कर सकते हैं.

फिर आप तो हैं ही. सांप को देखकर घिग्घी बंध जाए तो आपको भी अंटी ढीली करने में कितनी देर लगेगी?

तो भाई साहब बात बिगड़े उसके पहले सीख ही लीजिए, सांप को वश में करने का मंतर. क्योंकि 'खाना' तो आपसे छूटेगा नहीं.

ये मंतर नेता भी सीख लें तो अच्छा.

तमाम नेताओं को हमने कहते सुना है, ये सांपनाथ हैं वो नागनाथ. क्यों बहन जी? सही कहा न?

नेताओं की बात हो ही गई तो एक नज़र उस चर्चा पर भी जो हर किसी का ध्यान खींच रही है. जी हां, मैं बिहार की बात कर रहा हूं. राजनीति का असल दंगल तो बिहार की जमीन पर  हो रहा है.

लोकसभा चुनाव के मैदान में तो मुक़ाबला एक तरफा हो गया था. लेकिन यहां ज़ोर बराबरी का चल रहा है.

एक पहलवान एक दांव लगाता है और देखने वालों को लगता है कि कुश्ती हो गई उसके नाम. तभी दूसरा ऐसी काट मारता है कि लगता है कि विरोधी को चित ही कर देगा. 


दम साधकर देखिए. ये याद रह जाने वाला दंगल है.

राजनीति और नेताओं की बातों के बीच याद उस महान शख्स की भी जिसे पूरी दुनिया दिल से नेताजी कहती है.

महान स्वाधीनता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस. 


1945 में 18 अगस्त को जापान में हुई विमान दुर्घटना में नेताजी के मौत की ख़बर आई थी. सच क्या था, वो जाने कब देश के सामने आए?

जय हिंद का अमर नारा देने वाले नेताजी को शतशत नमन. जय हिंद

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