जिसने पाप ना किया हो...
बचपन में पढ़ा था. थोड़ा बहुत याद भी है.
आपने भी पढ़ा होगा. इको सिस्टम में फूड चेन.
चूहा पेड़ पौधों को खाता है फिर सांप का भोजन बन जाता है. सांप को नेवला खा लेता है. नेवले का शिकार शेर करता है और शेर चील की भूख मिटाता है.
दुनिया ऐसे ही चलती है.
इस दुनिया में टिकता वही है, जो खुद को हालात के माकूल सबसे बेहतर तरीके से ढाल लेता है.
डार्विन साहब ने इसे 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' कहा.
हालांकि, अपनी याददाश्त पर कितना भी ज़ोर डालूं ये याद नहीं पड़ता कि कभी ऐसा कुछ पढ़ाया गया हो कि फूड चेन में एक प्रजाति अपनी ही प्रजाति को मार डाल रही हो.
वो भी दूसरी प्रजाति को बचाने के लिए.
अब फूड चेन नए सिरे से तैयार की जा रही है. दुनिया के पुराने सिद्धांत बदले जा रहे हैं.
अब गाय की जान इंसान की जान से ज्यादा कीमती है.
गाय के कत्ल के शक में इंसान दूसरे इंसान को मार रहे हैं.
ये नई किस्म की कड़ी है.
कोई इंसान अगर भूख (आप स्वाद भी पढ़ सकते हैं) मिटाने के लिए गाय का गोश्त खाने का ख्याल लाता है तो उसे अपने पड़ोसी से सावधान रहना चाहिए.
क्या पता उसे अपनी नस्ल से ज्यादा फिक्र गायों की हो.
गायों के लिए मेरा आदर कम नहीं. बचपन से गायों की पूजा ही सिखाई गई है.
हो सकता है कि गाय को कसाई घर जाते देखकर मेरे खून में भी उबाल आ जाए.
लेकिन, इतना नहीं कि मैं जज बनूं. खुद सजा मुकर्रर करूं और फिर जल्लाद बन जाऊं. और खुद ही सज़ा भी दे डालूं. कभी नहीं.
इंसान और जानवरों के बीच का फर्क यही है. ताकत होने पर भी जो धर्म की राह पर टिका रहता है, वही इंसान है.
गायों को बचाने के तरीके और भी हैं.
फिर सवाल एक और है. वही, जो कभी राजेश खन्ना ने किया था.
'यार हमारी बात सुनो, ऐसा एक इंसान चुनो , जिसने पाप ना किया हो, जो पापी ना हो'.
मैं शाकाहारी हूं तो क्या हुआ. चमड़े की बेल्ट लगाता हूं. चमड़े का जूता पहनता हूं. पॉकेट में चमड़े का पर्स रखता हूं. और ये चमड़ा कहां से आता है?
अगर मैं धर्म के मुताबिक चलने वाला दंडाधिकारी बनना चाहूं तो मुझे सबसे पहले खुद को सज़ा देनी चाहिए.
मैं चमड़े की जो चीजें इस्तेमाल करता हूं वो मुझे पता नहीं किस जानवर का चमड़ा है, लेकिन, क्या मैं दावे से कह सकता हूं कि ये 'इस' जानवर का चमड़ा नहीं?
सवाल आस्था का है. तो क्या इंसानों में हमारी कोई आस्था नहीं?
है और रहेगी.
दूसरे क्या करते हैं, मुझे इस सवाल से फर्क नहीं पड़ता.
मेरे धर्म को भी नहीं पड़ता.
हम सनातन हैं. अगर हमने दुनिया को राह दिखाई है तो फिर दूसरों की राह पर क्यों चलें?
हमें तो अपने रास्ते को ऐसे दिखाना चाहिए कि बाकी सभी हर रास्ते को छोड़कर कहें हां, हम भी इस रास्ते पर आना चाहते हैं.
सनातन संस्कृति के आराध्य और मेरे ईश्वर श्रीकृष्ण ने इसी विश्वास के साथ कहा था,
'सर्व धर्म परित्याज मामेकम शरणम ब्रज. अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्मामि मा शुच'
बिल्कुल सही कहा,यदि इंसान ही इंसान का दुश्मन हो जाएगा तो यह सृष्टि ही नष्ट हो जाएगी
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