गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

एक मौत, सौ तमाशे!

दिल्ली तेरी बेदिली पर नेता हंसें हम रोए...


ख़त तो आपने पढ़ लिया होगा. सात लाइन के इस ख़त में जो बात रुला देती है, वो है, 'मेरे तीन बच्चे हैं.' ख़ेत में बेशुमार मेहनत के बाद उगी फ़सल बर्बाद हो गई थी. अब उसे अपनी 'नस्ल' की चिंता थी. बड़ी उम्मीद के साथ 'दिलवालों' की दिल्ली आया था. उपाय पूछ रहा था. उसे घर जाना था, किसी दिलासे के साथ, लेकिन, दिल्ली ने तब तक उस पर ध्यान नहीं दिया, जब तक कि वो लटक नहीं गया. 
गजेंद्र सिंह घर लौटा, लेकिन सांसें दिल्ली में छोड़कर. और, दिल्ली के 'रहनुमाओं' को देखिए, वो भाषण देने का मोह तक नहीं छोड़ पाए. किसानों के दर्द की बात करके नरेंद्र मोदी की सरकार को घेरने के लिए रैली बुलाने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को हमने आपने कई बार भावुक होते देखा है, लेकिन गजेंद्र के पेड़ पर झूल जाने के बाद भी ना उनकी आंखें नम हुईं और ना आवाज में दर्द में दिखा. रस्मी तौर पर दो मिनट का मौन रखने का चलन भी उन्हें याद नहीं आया. केजरीवाल साहब गजेंद्र की बेबसी भूलकर पुलिस को कोसने में जुट गए. 
उन्होंने कहा, 'ज्यादा ग्लानि इस बात की हो रही है कि हम लोगों की आंखों के सामने वो पेड़ पर चढ़े. हम बार-बार पुलिस से कहते रहे उसे बचा लीजिए. पुलिस हमारे कंट्रोल में नहीं है. किसी के सामने किसी की जान जा रही हो, वो ये कह के जान नहीं बचाएगा कि मैं उसके कंट्रोल में नहीं हूं.' अब समझिए केजरीवाल का शिकवा क्या है? क्या ऐसा नहीं लगता कि वो कहना चाह रहे हैं कि भाई, देखो अगर दिल्ली पुलिस हमारे अधीन होती तो क्या मजाल थी कि गजेंद्र पेड़ पर जान दे देता. अब कोई पूछे, केजरीवाल साहब, पूरी आम आदमी पार्टी बार-बार कहती है, आपकी अपील में बहुत दम है. आपने इस अपील को गजेंद्र को बचाने के लिए क्यों नहीं इस्तेमाल किया ? पुलिस निकम्मी ठहरी. आप ही कुछ कर लेते. 

किस्सा सिर्फ एक केजरीवाल का नहीं. उनकी पार्टी भर का नहीं. हमारे वोटों का हर सौदागर इस त्रासदी को सबक मानने के बजाए नौटंकी में जुटा दिखा. बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा ने केजरीवाल से गजेंद्र के पेड़ पर लटकने के बाद सत्तर मिनट चली रैली का हिसाब ऐसे मांगा, जैसे वो खुद को 'चक दे इंडिया' का शाहरुख समझ रहे हों और किसी हॉकी टीम से 70 मिनट के खेल का हिसाब मांग रहे हों. केजरीवाल ने दिल्ली पुलिस और बीजेपी को कोसा तो पात्रा और बीजेपी के बाकी नेताओं ने आम आदमी पार्टी की 'संवेदनहीनता' पर ऐसे सवाल उठाए मानो कोई पुराना हिसाब चुकाने आए हों. पात्रा साहब, दिल्ली तो आपकी भी है. देश और किसानों के भाग्य को संवारने की जिम्मेदारी पांच साल के लिए आपको मिली है. सरकार बनने के शुरुआती दिनों में जब कामकाज पर सवाल पूछे गए तो प्रधानमंत्री जी ने कहा कि उन्हेें सौ दिन का 'हनीमून पीरियड' भी नहीं मिला. अब तो सरकार बने 11 महीने हो गए! ये ठीक है आप 11 महीने में देश का भाग्य नहीं बदल सकते, लेकिन, ऐसे हादसे के वक्त इतना तो कह सकते हैं, हां, 'हम भी गुनहगार हैं. हम अपने गिरेबां में भी झांकेंगे' लेकिन, नहीं, आप भी उसी जमात का हिस्सा हैं, जो सिर्फ क्रेडिट लेना जानती है. आप भी मानते हैं कि गुनाह की जिम्मेदारी दूसरों के मत्थे होनी चाहिए.
 
आप के इस प्रहसन का ही नतीजा है कि मेहनतकश और बुलंद हौसले वाले किसानों की हिम्मत जवाब देने लगी है. आंकड़े बताते हैं कि हर घंटे दो किसान जान दे रहे हैं, लेकिन, कौन पूछता है?. गजेंद्र ने भी दिल्ली के बजाए दौसा में जान दी होती तो उसे भी कौन पूछता ? गजेंद्र के बलिदान पर शुरु हुई राजनीति अभी थमती नहीं दिखती. तमाशा जारी रहेगा. मुझे उसमें दिलचस्पी नहीं. मेरा सवाल तो दिलवालों के शहर से है, दिल्ली, तुम तो ऐसी नहीं थी. तुम्हारी पहचान तो तुम्हारे दिलदार होने से है. कुछ तो ऐसा करो कि गजेंद्र को जिन तीन बच्चों की चिंता थी, उनकी किस्मत संवर जाए. 

11 टिप्‍पणियां:

  1. एक एक लाइन से सौ फीसदी सहमत

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  2. आज रात 'आप' के नेता सोये नहीं। जी नहीं, गजेंद्र ने उनकी नींद नहीं छीनी। वे तो सुबह की सियासत की तैयारियां करते रहे।

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  3. संवेदनहीन नेता और संवेदनहीन समाज।
    #Gajendra rip.

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  4. नेताओ की अकर्मण्यहिंता का एक और उदाहरण।।

    वैसे भी जनता की याददास्त काफी कमजोर होती है हमलोग भूल जायेंगे जल्द ही।। क्यों ????

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    1. जनता अब बदल रही है ब्रजेश भाई... अब लोग गलतियों को भूलने की भूल नहीं करेंगे

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  5. एक सही मुद्दे पर वाजिब टिप्पणी।

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