और प्रत्यूष-प्रत्युषा के सपने
प्रत्यूष.
बिल बनाते वक्त उसकी मां ने यही नाम बताया था.
बिल बनाने का नंबर काफी बाद में आया था. उसके पहले काफी लंबी उधेड़ बुन रही. गुणा-गणित चलता रहा.
सवाल साइकिल का था. गियर वाली साइकिल. मां का बजट 15 हज़ार का था. वो दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद के वैशाली में हाल-फिलहाल खुले 'बेनेफिट' स्टोर पर आईं थीं.
उनके इस स्टोर तक आने की बड़ी वजह यहां साइकिलों पर मिल रही छूट थी. दरअसल, स्टोर की शुरुआत की ही इस मकसद से गई है कि लोग साइकिल खरीदने को प्रोत्साहित हों.
पर्यावरण को ठीक रखने में यथा-संभव मदद करें. अपने शरीर को नियंत्रित रखें. खुद को फिट बनाएं. मुनाफे की सोच सबसे आखिरी पायदान पर है.
छूट 15 फीसदी की थी. बजट 15 हज़ार का था. लेकिन, बेटे को जो साइकिल पंसद आ रही थी वो छूट के बाद 20 हज़ार की थी.
मां चाहती थीं कि स्टोर के मालिक छूट बढ़ाएं. आखिर सवाल बच्चे की पसंद और उसके सपने पूरे करने का था.
स्टोर चलाने वालों की दिक्कत ये थी कि मुनाफा भले ही न लें लेकिन घाटा कैसे सहें.
गुजारिश, मान- मुनव्वल, जोड़ घटाव चलता रहा. थोड़ा मां ने बजट बढ़ाया तो बच्चे का सपना पूरा करने के लिए स्टोर के मालिक भी घाटे की चोट सहने को तैयार हो गए.
ये दुकानदारी की 'समझदारी' तो नहीं लेकिन बच्चों के मन में सपने दुनियावी समझ के मुताबिक कहां सजते हैं.
बाल मन तो वो है जो चांद पर मचल जाए. या तो उसे पंसद का चाहिए या फिर कुछ भी नहीं.
पूरे किस्से में अपनी भूमिका एक दर्शक भर की थी.
इस सच्ची कहानी में जैसे ही 'द एंड' का बैनर आया अचानक नज़र ट्विटर पर गई.
वहां प्रत्युषा का नाम था.
जी हां, आपकी जानी पहचानी टीवी एक्ट्रेस.
खबर उसकी खुदकुशी की थी. प्रत्यूष और उसके सपने ने हाल ही दिमाग में घर बनाया था.
प्रत्युषा से कोई जान पहचान नहीं थी. कभी वो सीरियल भी नहीं देखा था, जिसकी वजह से उनका नाम घर-घर तक पहुंचा था.
लेकिन, इस खबर ने अंदर तक हिला दिया.
लगा, जब सपने टूटते हैं और आवाज़ अनसुनी कर दी जाए तो एक खूबसूरत कहानी भी बेवक्त खत्म हो जाती है.
प्रत्यूष के सपने को बचाने के लिए दो लोगों ने पूरी शिद्दत से कोशिश की. घाटा सहकर भी.
प्रत्युषा को शायद कोई ऐसा दरियादिल नहीं मिला. उनकी मौत पर अफसोस करने वालों की संख्या देखकर लगता है कि उनके पास भी चाहने वालों की कोई कमी नहीं थी लेकिन शायद एतबार में कमी थी.
प्रत्युषा को अगर यकीन होता कि कोई उनका सपना पूरा कर सकता है तो शायद ज़िंदगी का पहिया आज भी घूम रहा होता.
ये होता तो क्या होता?
यकीन मानिए बताने वालों ने दुनिया को भले ही रंगमंच का स्टेज या फिल्म का पर्दा बता दिया हो, लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं.
यहां रील और रियल का फर्क साफ दिखता है.
अमिताभ बच्चन साहब से पूछकर देखिए.
अमिताभ बच्चन को भारतीय सिनेमा का सबसे जगमगाता सितारा बनाने वाली फिल्मों पर गौर कीजिए.
दीवार. अमिताभ स्मग्लर के गुर्गे की भूमिका में थे.
शोले. अमिताभ चोर के रोल में थे.
डॉन. अमिताभ ने अंडरवर्ल्ड डॉन का किरदार निभाया.
अग्निपथ. अमिताभ ने अंडरवर्ल्ड डॉन की भूमिका निभाई.
सारी फिल्मों का जादू दर्शकों के सिरचढ़ कर बोला. अमिताभ कालजयी हो गए. एंटी हीरो, गैरकानूनी काम करने वाले शख्स की भूमिका अदा करने वाला सितारा सदी का महानायक बन गया.
फिर कहिए, किसी देश की किसी कंपनी के कोई गोपनीय दस्तावेज में नाम आते ही उसी महान सितारे की चमक खुरचने वालों की भीड़ सामने आ गई.
अमिताभ ने सफाई दे दी है. वो हालात के ऐसे मुश्किल अग्निपथ से पहले भी गुजरे हैं.
वो रील और रियल लाइफ के बीच फर्क भी जानते हैं.
और वो खुद गुनगुना भी चुके हैं.
'जो है नाम वाला वही तो बदनाम है'.
Kamaal hai aapka Pratyush se Pratyusha se Maha nayak...
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