शनिवार, 15 अगस्त 2015

'मैं हिंदुस्तान का सिपाही बनना चाहता हूं'

एक बच्चे का सपना और आपका कर्तव्य 

पांच बरस के भांजे ने मेरी गोद में बैठे-बैठे अचानक सवाल दागा. 

'मामा, पता है मैं क्या बनना चाहता हूं'

मैंने उसकी आंखों में देखा. वो आंखें चमक रही थीं. 

उसने खुद ही जवाब दिया, 'एयरफोर्स का पायलट.'

उसके हाथ में मोबाइल था. 

मोबाइल में फाइटर प्लेन का गेम उसका फेवरेट है. 

गेम ऑन था. उसने एरोप्लेन को ऊपर नीचे करना शुरु किया. 

खेल चलता रहा और वो अपना सपना मुझसे साझा करता गया. 

'ऐसे ही प्लेन उड़ाऊंगा. करतब करूंगा. उल्टा-सीधा, उल्टा-सीधा घुमाऊंगा. कलाबाजी करुंगा'. 

'इंडिया गेट के बीच से निकालूंगा'. 

इतना कहके वो रुका. 

मुझसे सवाल किया. 'क्या इंडिया गेट के बीच से निकल पाएगा प्लेन'?

मैंने गरदन हिलाई. तो खुद ही बोला, 'नहीं ऊपर से निकालूंगा'. 

उसकी कहानी मुझे पीछे, बहुत पीछे ले गई. 


बचपन में मैं भी सेना से जुड़ना चाहता था. एयरफोर्स नहीं आर्मी मेरी पसंद थी. 

बाद में पता चला मेरे पापा ने तो एनडीए का एक्ज़ाम भी पास किया था, लेकिन, सेना में नहीं जा सके. 

यानी सेना में शरीक होने का सपना तीन पीढ़ी पुराना है. 

मेरा एक और भांजा जो करीब 12 साल का है, वो भी सेना में जाना चाहता है. 

बचपन, उम्र का वो पड़ाव होता है, जब न दिल में मिलावट होती है, न सपनों में और न ही इरादों में. 

इरादा एक ही होता है, देश के लिए जीने और देश पर मर मिटने का. 

मैंने सुना है, अपने पापा से और कभी कभार चाचा से भी, मेरे बाबा आज़ादी की लड़ाई के सिपाही थे. 

देश को आज़ादी मिलने के बाद उन्होंने कभी पेंशन नहीं ली. उन्हें जरुरत भी नहीं थी. 

मैंने भी उनसे आज़ादी की लड़ाई की कई कहानियां सुनीं. उनमें कुछ कहानियां धुंधली-धुंधली सी याद हैं. 

वो ऐसा दौर था जब हर हिंदुस्तानी नौजवान सिपाही था. फौज का नहीं, आज़ादी की लड़ाई का. 

कई बार दिल कहता है, अगर हम उस दौर में होते तो क्या करते?

डरकर घर बैठते या फिर आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा होते. 

लड़ते तो हम आज भी हैं. हालात से. सिस्टम से. नाइंसाफियों से. तकदीर से. 

कहने को हम आज़ाद हैं लेकिन कितने आज़ाद? 

सवाल पेचीदा है. इसे लेकर हर किसी का जवाब अलग हो सकता है. 

मुझे लगता है कि जब देश आज़ाद नहीं था तब लोगों के पास अपने हित कुर्बान करने की वजह रही होगी. 

देश की बातें तो हम अब भी करते हैं लेकिन कुर्बानी बात शायद ही किसी को अच्छी लगती हो. 

कुर्बानी सिर्फ जान की नहीं होती. सपनों की भी होती है. स्वार्थ की भी होती है. 

और, जब आप देश के लिए लड़ने को सेना में जाने का फ़ैसला करते हैं तो बहुत कुछ कुर्बान करते हैं. 

हर सिक्के के दो पहलू हैं. देखने वाले ऐसा भी देख लेते हैं कि सेना में जाने वालों को कितने फायदे मिलते हैं. 

मसलन, नौकरी की गारंटी होती है. सुविधाओं की गारंटी होती है. ताउम्र पेंशन की गारंटी होती है. समाज में रौब और इज्जत की गारंटी होती है. 

लेकिन, जान? ऐसी गारंटियों पर कितने लोग जान दांव पर लगाएंगे? 

सिर्फ वो जो सरफ़रोश हैं. जिनके अंदर देश के लिए मरने का जुनून है. जो उस आज़ादी की हिफाजत करने को 
बेताब रहते हैं,जो लाखों-लाख स्वाधीनता सैनानियों ने अपना पसीना और खून बहाकर हासिल की थी. 

और, जब ऐसे सरफरोश आज़ाद हिंदुस्तान की राजधानी के जंतर-मंतर पर अपनी मांगों के लिए दो महीने तक धरना देते हैं और आज़ादी की सालगिरह के ठीक पहले उन्हें वहां से हटाने का फरमान सुना दिया जाता है तो दुख होता है.

अच्छा है कि वक्त रहते दिल्ली पुलिस ने अपना फरमान वापस ले लिया. अच्छा हो कि सरकार भी उनकी मांगों पर सुनवाई करे और उन्हें पूरा कर दे. 

क्योंकि फ़ौजी वो तबका है, जो आजादी मिलने के बाद भी देश के लिए लगातार लड़ता रहा है और लड़ता रहेगा. 

इन्हीं फौजियों को देखकर मेरे भांजे हिंदुस्तानी सेना का हिस्सा बनना चाहते हैं. आर्मी का भी और एयरफोर्स का भी. 

छोटे भांजे को तो पैसे की कीमत का भी अंदाजा नहीं. उसे तो एयरफोर्स की वर्दी लुभाती है. फाइटर प्लेन अपनी तरफ खींचते हैं. 

देश के दुश्मनों को मारने की कल्पना रोमांचित कर देती है. इस कल्पना और उसके सपने को बचाना होगा. तभी हमारा नियति से मिलन होगा. 

स्वाधीनता दिवस की ढेरों शुभकामनाएं, देश पर जान देने वाले हर शहीद को सलाम. आज़ादी के लिए लड़े हर वीर को सलाम. भारतीय सेना को सलाम. तिरंगे झंडे को सलाम. जय हिंद. जय भारत. 

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