बुधवार, 12 अगस्त 2015

'गणेश को दूध पीना है तो यहीं पिएगा'

हमारे भरम पर भारी अम्मा की भक्ति 

मैं भी उन लोगों में शामिल था. मेरे एक हाथ में दूध भरा लोटा था और दूसरे में चम्मच. 

गली में ही गणेश जी की संगमरमर की मूरत के सामने खड़ा था. अपना नंबर आया तो मैं गणेश जी की सूंड  के आगे चम्मच दर चम्मच दूध लगाता गया. बहुत सा दूध बह रहा था. लेकिन चम्मच खाली होते ही लगता था कि गणेश जी ने कृपा कर दी. धन्य कर दिया. मेरा अर्पित किया हुआ दूध भी पी लिया. 

शंकर जी को दूध में नहाते कई बार देखा था. आज उनके बेटे की मौज थी. गणेश दूध पिए जा रहे थे और मेरे जैसे भक्त दूध पिलाए जा रहे थे. पूरी गली लाइन में लगी थी. मेरे हमउम्र किशोरों से लेकर बूढ़े- बुजुर्गों तक. गणेश जी को दूध पिलाकर कुछ मांगना है, ये हमें याद नहीं था. ये ख्याल भी नहीं आया कि गणेश जी तो लड्डू खाते हैं, भला अब दूध क्यों पीने लगे.

इस भीड़ में एक चेहरा मिसिंग था. मेरी अम्मा. यानी मेरे पापा की मां. 

ये सबके चौंकने की वजह थी. वो क्यों, ये भी बता देता हूं. 

अम्मा हर दिन सुबह तीन बजे उठती थीं. चार बजे घर में बने मंदिर में पहुंच जाती थीं. 
चौंसठ माला (एक माला में एक सौ आठ मनके होते हैं और हरिनाम करने वाले हर मनके पर महामंत्र यानी हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम हरे हरे का जाप करते हैं ) हरिनाम करके सुबह साढे छह बजे घर से डेढ किलोमीटर पैदल चलते हुए श्री राजाधिराज मंदिर में मंगला दर्शन करती थीं. फिर यमुना स्नान करते हुए घर लौटती थीं. 

यमुना से लाए जल से घर के लड्डू गोपाल का अभिषेक करती थीं. गोपाल जी को तुलसी के 108 दल चढाती थीं. उसके बाद पानी पीती थीं. फिर संस्कृत, बंग्ला और हिंदी के अनगिनत ग्रंथों का पाठ करती थीं. 

इस सब में दो बज जाते थे. फिर खाना खाती थीं. शाम चार बजे अम्मा के लड्डू गोपाल की नींद खुल जाती थी. उन्हें फल का भोग अम्मा ही लगाती थीं. उसके बाद पूजा और कीर्तन का क्रम शुरु होता था. 

रात आठ बजे की आरती के बाद अम्मा अगले दिन मंदिर और यमुना स्नान के लिए जाने की तैयारी करती थीं. एक डलिया, जिसे हम कंडिया कहते थे, में अपने कपड़े रखती थीं. एक डिब्बे में दान करने के लिए अनाज भरती. 

रात नौ से साढ़े नौ के बीच भगवान को शयन करातीं और फिर खाना खातीं. रात साढे दस बजे चौंसठ माला शुरु करतीं और फिर माला खत्म होने के बाद सोने का नंबर आता. 

अम्मा के इस रूटीन को गली ही नहीं पूरा मुहल्ला जानता था. अम्मा को दिल का दौरा पड़ चुका था. पैरालिटिक अटैक भी हो चुका था. एक बार भगवान के लिए माला बनाते समय आँख में सुई चुभ चुकी थी. अम्मा एलोपैथी की दवाएं भी नहीं लेती थीं. 

वो कहती थीं, 'ठाकुर जी सब ठीक करेगा. गोपाला देखेगा.' 

गोपाला की ऐसी कृपा थी कि इतनी बीमारियों का बोझ उठाए अम्मा 77 की उमर तक इसी रुटीन में रहीं. अम्मा कभी छड़ी लेकर नहीं चलीं. उनके चलने की रफ्तार लगभग दौड़ने जैसी रही. वो कभी लेट नहीं हुईं. हमेशा घड़ी की सूईयों से कदम ताल करके चलीं.

जीवन के आखिरी 3 महीने अम्मा बिस्तर पर थीं. आखिरी 15 दिन अम्मा ने खाना पीना छोड़ दिया था. हम बच्चे कसम देते. मिन्नत करते तो कभी कभार कुछ पीने के लिए मुंह खोल लेतीं. 

मुझे अम्मा की ज़िंदगी का आखिरी दिन याद है. अम्मा को खांसी का दौरा पड़ा. डॉक्टर ने इंजेक्शन लिखा. मैं जल्दी से इंजेक्शन लाया. साथ में कम्पाउंडर भी था. मैंने कहा, 'अम्मा चिंता मत करो'. 

अम्मा ने कहा, 'मुकुन्दा तू है तो मुझे क्या चिंता'. 
और शाम को अम्मा चली गईं. मैं मानता हूं कि ये इच्छा मृत्यु थी. 

अम्मा ने इन तीन महीनों में न माला फेरी. न यमुना स्नान को गईं. न अपने लड्डू गोपाल की सुध ली. अम्मा को शायद लग गया था कि अगर वो उसी रुटीन में रहीं तो लड्डू गोपाल उन्हें 'गोलोक' नहीं आने देंगे. 

गणेश जी ने जब दूध पिया, वो वक्त, अम्मा के इस दुनिया से जाने के करीब दो साल पहले का था. 

सब हैरान थे कि अम्मा क्यों नहीं आईं, दूध लिए, गणेश को पिलाने. अम्मा आतीं तो लाइन में पहला नंबर उनका ही होता. इसके लिए न तो हमें किसी से गुजारिश करनी होती न उनकी उम्र का हवाला देना होता. अम्मा की भक्ति की शक्ति का असर इतना था कि सब उन्हें खुद ही रास्ता दे देते. लेकिन, अम्मा नहीं आई. 

ऐसा नहीं है कि वो गणेश को दूध नहीं पिलाना चाहती थीं. उन्होंने एक कटोरी में दूध लिया. हमसे एक कदम आगे बढ़के दूध में चीनी मिलाई. गणेश बच्चे जो ठहरे. फीका दूध कैसे पीते. लेकिन, वो गली के मंदिर नहीं गईं. घर के मंदिर में अम्मा के भगवान के कुनबे में शिव परिवार भी है. इंच भर के पीतल के गणेश. अम्मा ने गणेश जी की सूंड के आगे दूध भरके चम्मच लगाया. गणेश जी ने दूध नहीं पिया. 

अब तक गली में हल्ला मच रहा था. 'गणेश जी ने मेरे हाथ से दूध पिया. मेरे हाथ से भी पिया. मैंने भी कटोरी भर दूध पिलाया.' 

मुझे हैरानी थी. गणपति सबका दिया दूध पी रहे हैं, लेकिन अम्मा के दिए दूध को गटकने में उन्हें क्या हर्ज है. मैंने कहा, 'अम्मा गली के गणेश दूध पी रहे हैं. वहीं चलो'. 

अम्मा मेरी हर बात मानती थीं. हर बात. लेकिन, इस बार अम्मा घर के मंदिर से बाहर भी नहीं आईं. 

अम्मा ने कहा, 'मुकुन्दा, गणेश को दूध पीना होगा, तो यहीं पिएगा'. 

मैं हैरान था. समझ नहीं पा रहा था कि अम्मा ऐसा क्यों कह रही हैं. गली के मंदिर जाने में उन्हें दिक्कत क्या है. मैने भी गली के गणेश को दूध पिलाया है. फिर अम्मा तो रोज़ मंदिर जाती हैं. 

अब गणेश को दूध पिलाने के लिए जाने में क्या एतराज. मैंने अपनी नरम दिल अम्मा का ये रुप पहली बार देखा. अम्मा ने कह दिया कि नहीं, 'गणेश को पीना है तो यहीं पिए'. 

अम्मा ने करीब आधा घंटा कोशिश की. चम्मच खाली नहीं हुआ. 

बाद में अखबारों, पत्रिकाओं और गुरु ज्ञानियों ने बताया कि दरअसल, गणेश ने कहीं दूध पिया ही नहीं था. वो ऐसा भरम था जिसने एक देश को भरमा दिया था. मेरे जानने वालों में अम्मा हीं थीं जिन्हें ये भरम नहीं हुआ. दिक्कत ये थी कि हमारी आंख अम्मा की भक्ति ने नहीं खोली. नामी ज्ञानियों को पढ़ने और सुनने के बाद हम जागे. अब सवाल था कि अम्मा को 'घर के ठाकुर' पर ही इतना भरोसा था तो वो मंदिर क्यों जाती थीं. अम्मा मंदिर जाती थीं स्थान को महत्व देने. भगवान तो हमेशा उनके साथ थे. मैंने रैदास की कहानी सुनी थी. 'मन चंगा तो कठोती में गंगा'. अम्मा ने उस कहानी का मतलब समझाने की कोशिश की तब हम समझ न सके. 'गोबर गणेश' साबित हुए. क्या गारंटी की हम अब भी समझे हैं. जरा गौर से देखिए, आप या हम किसी के कहने पर गणेश को दूध तो नहीं पिला रहे. 

2 टिप्‍पणियां: