रविवार, 17 अप्रैल 2016

दिल से जो मांगोगे दे देगी यमुना



नाव के बीचो- बीच बैठी जिस छोटी सी बच्ची की तस्वीर आप देख रहे हैं वो सिर्फ तीन बरस की है. 

नाम है सुरभि. 

उसकी सूरत जितनी प्यारी है, वो बातें भी उतनी ही अच्छी करती है. 

पढना सीख ही रही है. एबीसीडी... अ आ इ ई, 1,2,3,4 

उसने हाथ में जो तख्ती थाम रखी है, उस पर क्या लिखा है, पढ़ना उसके लिए मुश्किल है. 

लेकिन, उसने दूसरे बच्चों से पूछ लिया था कि तख्ती पर लिखा क्या है, और उसने बहुत सोच-समझकर इस तख्ती को थामा है. 

चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को यमुना षष्ठी के तौर पर मनाया जाता है. 

मान्यता है कि इस दिन भगवान सूर्य की पुत्री यमुना का जन्म हुआ था. 


जी हां, भारतीय तहजीब की प्रतीक नदी यमुना. हिंदुओं के लिए ये नदी श्रीकृष्ण की पटरानी होने के कारण पूज्य है. यमराज की बहन होने की वजह से इसका रुतबा थोड़ा और बढ़ जाता है. 

मुसलमानों को भी यमुना प्यारी है. 

जिस गंगा-जमुनी तहजीब की बात होती है, उसमें शायद यमुना को मुसलमानों के खाते में ही रखा जाता है. 

सुरभि को यमुना किनारे जाना, नाव से नदी पार करना बहुत पसंद है.

लेकिन, इसका मौका बेहद कम मिलता है. 

यमुना जब से मैली हुई, ब्रज क्षेत्र के स्थानीय लोगों में से कई ने नित्य स्नान और आचमन का क्रम छोड़ दिया. 

अब यमुना दर्शन तीज-त्यौहारों पर ही होते हैं. 

ऐसे में कृष्ण की कहानियों के साथ यमुना की लहरों पर तैरते-उतरते आज की पीढ़ी के बच्चे तरसे-तरसे रह जाते हैं. 

यमुना छठ के मौके पर सामाजिक संगठन 'युगांधर' ने फ़ैसला लिया कि वो बच्चों को यमुना दर्शन भी कराएगा और उनके जरिए यमुना सफाई की कसम उठाने वालों को उनके वादे याद कराएगा. 

मकसद दो थे. 

पहला ये कि छोटे बच्चे समाज में नदी की उपयोगिता को समझें और ये भी जानें कि अगर नदियां ऐसे ही गंदी होती रहीं तो आने वाली पीढ़ियों को विरासत में नदियां सिर्फ कहानियों में ही मिलेंगी. 

दूसरा ये कि तख्तियां थामे दूसरों को संदेश देने वाले बच्चों के दिमाग की स्लेट पर अगर ये बातें लिख गईं तो वो यमुना की सफाई में कोई सक्रिय योगदान दें या नहीं, लेकिन शायद अपने स्तर पर इसे और अधिक गंदा करने से बचेंगे. 

1970 और 80 के दशक में पैदा हुए बच्चों ने यमुना की कहीं बेहतर तस्वीर देखी थी. 

मथुरा में ही हर दिन छोटे-छोटे बच्चे सुबह- सुबह यमुना स्नान करने या फिर तैरने जाते थे. 

शाम को कछुओं के लिए आटे की गोलियां लिए घाटों पर जाते थे. 

लौटते वक्त यमुना जल भर लाते थे. 

इस पीढ़ी के जवान होते-होते यमुना इतनी बदल गई कि स्नान और पीना तो दूर लोग आचमन से भी बचने लगे. गंदगी ने यमुना को नई पीढ़ी से दूर कर दिया. 


आज यमुना के नाम पर शंख फूंकने वाले तो कई हैं लेकिन उसके दामन पर बढ़ते जा रहे गंदगी के पैबंदों के खिलाफ महाभारत करने वाला कोई नहीं. 

दुनिया बदलने की शुरुआत खुद को बदलने से की जाए तो अच्छा. 

बच्चों को यमुना छठ के मौके पर घाट और यमुना की गोद तक लाने का मकसद यही था. 

'युगांधर' ने नारे लिखने और तख्तियां तैयार करने का काम भी बच्चों के जिम्मे सौंपा. 

यकीन मानिए हर बच्चा बहुत उत्साह में था. 

लिखते वक्त बच्चे नारे जोर-जोर से बोलते रहे. 

कंप्यूटर से प्रिंट निकाला 

कागज के बराबर साइज का गत्ता काटा 

गोंद लेकर उसे चिपकाया और अपने-अपने हिस्से की तख्तियां सब बच्चों ने थाम लीं. 

जिस वक्त तख्तियों का बंटवारा हो रहा था. सुरभि ने डिमांड की, उसे "श्री यमुना की सफाई तक नहीं थमेंगे,नहीं झुकेंगे, नहीं रुकेंगे" लिखी तख्ती चाहिए. 

हर प्यारे बच्चे की तरह सुरभि भी थोड़ी जिद्दी है. 

नहीं थमेंगे, नहीं झुकेंगे वाला जज्बा जो ऐसे बच्चों में अक्सर दिखता है, उसमें भी है. शायद यही वजह रही होगी कि उसने ये तख्ती चुनी. 
सुरभि के सलेक्शन ने गांधीवादी चिंतक और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र जी की कही बात याद दिला दी. 

कुछ बरस पहले 'युगांधर' सदस्य अनुपम जी से मिलने दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंचे. 

पानी पर युगांतकारी काम का अनुभव रखने वाले अनुपम जी ने बहुत सी बातें बताईं. 

आखिर में कहा, 'यमुना से जिसने जो मांगा, उसे मिला. पैसा मांगा, मिला. नाम मांगा, मिला. दिल से उसकी सफाई मांगोगे वो भी मिलेगा'. 

'मांग के तो देखो'. 

अब तक सफाई के नाम पर 'ढपोरशंखों' को देखते रहने के बाद भी सुरभि के तेवर देखकर लगता है कि उसकी पीढ़ी यमुना से सफाई मांग लेगी. 

अनुपम जी की बातें याद करते हुए कहूं तो ये जरुरी भी है. 

अनुपम जी ने ये भी कहा था, 'ये मत भूलो यमुना यमराज की बहन है. अभी शिकायत भाई तक नहीं पहुंची है. सोचो अगर उसने कभी फरियाद कर दी तो बहन के लिए यमराज क्या कुछ नहीं कर सकते?' 

डरिए मत, सुरभि जैसे बच्चों पर भरोसा रखिए. (राकेश शर्मा, युगांधर के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. उनसे युगांधर के फेसबुक और ट्विटर अकाउंट पर संपर्क किया जा सकता है.)

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

उनकी समझ पे हंसिए और समझिए ...

रेस में क्यों हार रही है कांग्रेस?





 यकीन कीजिए, आनंद शर्मा को देखकर पहले कभी हंसी तो क्या मुस्कराहट तक नहीं आई थी. 

भले ही उन्हें राजनीति में ज्यादा गंभीरता से न लिया जाता हो लेकिन वो 'दिग्गी राजा' की तरह दुनिया को हंसाने का हुनर भी नहीं जानते. 

लेकिन, कल मुस्कराहट भी आई और हंसी भी. वजह बना आनंद शर्मा का एक बयान. 

वो कह रहे थे, 'मैं कहूंगा एक दुख की भी बात है. परिहास भी है. एक क्रूर मज़ाक कि जो जवाहर लाल नेहरू के आलोचक और विरोधी हों उनको जवाहर लाल नेहरू के नाम से जुड़ी संस्थाओं में लगा दो. जो इंदिरा जी के आलोचक और विरोधी हों उनको इंदिरा से जुड़े संस्थानों में लगा दो'. 

आनंद शर्मा ने ये बयान 'इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र' यानी 'इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर द आर्ट्स' में हुए बदलाव को लेकर दिया. 


केंद्र का अध्यक्ष वरिष्ठ और बेहद सम्मानित पत्रकार श्री रामबहादुर राय को बनाया गया है. 

पत्रकारिता में ओजस्वी करियर के पहले राय साहब जेपी आंदोलन के अगुवा नेताओं में थे. 

आनंद शर्मा इसी पृष्ठभूमि की ओर संकेत कर रहे थे. 

मुझे हंसी इसी वजह से आई. 

उम्मीद की जाती है कांग्रेस का नेता अपनी पार्टी का इतिहास जाने. 


 पार्टी का पूरा इतिहास न पता हो तो कम से कम 'गांधी परिवार' खासकर इंदिरा जी के बारे में जानकारी होने की तो उम्मीद की ही जाती है. 

सवाल ये है कि क्या आनंद शर्मा जानते हैं कि इंदिरा सरकार के खिलाफ 'संपूर्ण क्रांति' का नारा देने वाले लोकनायक जय प्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के बीच क्या रिश्ता था? 

आप निश्चित ही जानते होंगे. 

ये बेहद करीबी रिश्ता था. चाचा और भतीजी का रिश्ता. 

और ये उस दौर का रिश्ता था जब संबंध स्वार्थ की डोर से नहीं बंधे होते थे. उनमें अपनेपन की गर्माहट होती थी. 

लेकिन ये वो समाज है, जहां देशहित के सामने रिश्ते का मोह नहीं ठहरता. 

रामायण, महाभारत से लेकर जेपी तक की गाथा यही बताती है. 

देश और समाज के प्रति कर्तव्य के इसी बोध की वजह से भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी भी हैं और मजबूत भी. 

लोकतंत्र में विरोध व्यक्ति नहीं विचारों का होता है. 



 जेपी ने अपनी भतीजी के खिलाफ संघर्ष का बिगुल लोकतंत्र की इसी आदर्श आचार संहिता की वजह से बजाया.

इंदिरा कुर्सी से हटीं तो रिश्ते फिर बदले.

जेपी को भतीजी की चिंता भी हुई.

उन्होंने एक दिन इंदिरा जी से पूछा, 'अब तुम प्रधानमंत्री नहीं हो तो तुम्हारा खर्चा कैसे चलेगा?'

ये लोकनायक नहीं चिंतित चाचा का सवाल था.

इन्हीं जेपी ने राय साहब को अपने आंदोलन की अगुवा रही 11 लोगों की कमेटी में जगह दी थी. निश्चित ही उनके आदर्शवाद से प्रभावित होकर.

उस आंदोलन में नारे भर दोहराने वाले भारतीय राजनीति में कहां से कहां तक पहुंच गए बताने की जरुरत नहीं.

लेकिन, ये सवाल जरुर पूछा जाना चाहिए कि राय साहब ने क्या फायदा लिया? 

जवाब है कुछ नहीं. 

लोकतंत्र की मजबूती के लिए हुए 'संपूर्ण क्रांति' के यज्ञ से निकले 'सत्ता के अमृत कलश' को हाथ तक न लगाने वाले संभवत राय साहब इकलौते 'बैरागी' हैं. 

उनका अनुकरणीय पत्रकारिता करियर भी आदर्शवाद की मिसाल है. 

यही वजह है कि उनकी नियुक्ति की हर तरफ दिल खोलकर सराहना हुई. 

नरेंद्र मोदी सरकार के ये उन चंद फैसलों में हैं जिसे सरकार के वैचारिक विरोधियों ने भी सराहा. 

लोगों ने यहां तक कहा, 'कुर्सियां कुछ लोगों का मान बढ़ाती हैं और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे कुर्सियों का मान बढ़ता है. राय साहब के बैठने से कुर्सियां ही गौरवान्वित होती हैं.' 

आनंद शर्मा को ये भी समझना चाहिए कि राजनीति में विपक्ष का काम सिर्फ विरोध करना नहीं होता. 

विपक्ष में अच्छे और रचनात्मक फैसलों की सराहना करने की समझ भी होनी चाहिए.

इसी समझ की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी ने 1971 की जंग में इंदिरा जी की तारीफ की थी. और उसके काफी पहले नेहरु जी अटल जी की तारीफ करते थे. 

इंदिरा जी होतीं तो उन्हें ये गुर जरुर सिखातीं. 

इस समझ के अभाव में ही बटवृक्ष रही कांग्रेस  छुईमुई का पौधा होती जा रही है.

कांग्रेस को ये भी समझना चाहिए कि इंदिरा जी के नाम पर बनाए गए तमाम संस्थानों की कुर्सियां रेवड़ियों की तरह बांटने की वजह से ही  इन संस्थानों की चमक खोती चली गई. 

ऐसे संस्थान इंदिरा जी के ख्यातिनाम का पूरक बने इसके लिए इन संस्थानों की कमान वास्तविकता में कर्तव्य की मर्यादा से बंधे लोगों के हाथ होनी चाहिए. 

आनंद शर्मा समझें ना समझें, हम आप जानते हैं कि हमारे समाज में मर्यादा की स्थापना ही 'राम' नाम के महापुरुषों ने की है. 

आपको रामनवमी की शुभकामनाएं. 


सोमवार, 11 अप्रैल 2016

मां ने कहा था....

'आग से मत खेलना' 



हे मां!

खुशी के वक्त आप जिसे चाहे याद करें.

दुख, दर्द, तकलीफ, मुश्किल, परेशानी और बुरे वक्त में तो मां ही याद आती है.

क्यूं ?

दिमाग और दिल भरोसे की उस मजबूत बुनियाद पर यकीन करते हैं, जिसे उन्होंने बचपन से परखा होता है.

भूख लगे तो मां खाना खिलाती है.

चोट लगे तो मां जख्म सहलाती है. आंसूं पोछती है. आंचल की छांव में छुपाकर सारा दर्द छीन लेती है.

मुश्किल वक्त हो तो उम्मीद भरी बातों से हौसले के टिमटिमाते चिराग को सूरज की तरह रौशन कर देती है और चुनौतियों का अंधेरा खुद ही दूर हो जाता है.

फेल होने पर ताना नहीं देती.

कहती है, 'चल फिर ट्राई कर, तू तो टॉप करेगा'. 


देवी मंदिरों में जाने वाले भक्त भी 'मां' पर इसी भरोसे की वजह से कतार लगाते हैं.

फिर क्या वजह है कि मां के आंगन में, उसकी आंख के सामने ही उसके सौ से ज्यादा बच्चे भस्म हो गए.

साढे तीन सौ से ज्यादा झुलस गए.

वो मां के आंगन में खुशी खोजने आए थे. उनके हिस्से मातम को लिख गया.

प्रधानमंत्री और मुख्यमत्री की विजिट के बीच सक्रिय हुए प्रशासन ने जांच का आदेश दे दिया है.

लेकिन, जांच इस एंगल से नहीं होगी, इसका यकीन है.

किसी का 'ताव' भी नहीं कि ऐसे सवालों का जवाब दे सके


ग़म में पूरा देश शरीक है.

जिनके पास संवेदनाएं हैं, उन्हें हर तरह का हादसा हिला देता है.

चोट भले ही दूसरे को लगे. खून भले ही किसी और का बहे. आंखें उनकी नम हो जाती हैं.

मैं बहुत से ऐसे लोगों को जानता हूं जो बेवजह अस्पतालों का रुख नहीं करते

वो खुद का दर्द तो बर्दाश्त कर जाते हैं लेकिन दूसरों को कराहते देख नहीं पाते.

हालांकि, जब मानवता पुकारती है तो ऐसे लोग कलेजा पत्थर करके मदद के लिए सबसे आगे दिखते हैं.

केरल में भी ऐसे लोग जरुर आगे आए होंगे.    


हादसों में 'बर्न केस' सबसे ज्यादा तकलीफदेह होते हैं.

चोट का दर्द सह लिया जाता है. लेकिन जलन असहनीय होती है.

बारुद से घायल होने वालों को हफ्तों और महीनों तक चैन नहीं मिलता.

सरकारों ने मुआवजों का एलान कर दिया है. मुख्यमंत्री ने कहा, 'मरने वालों को दस लाख'. प्रधानमंत्री ने कहा, 'दो लाख'.

मुआवजे का मरहम तकलीफ कम कर पाएगा, कहना मुश्किल है.

मुश्किल तो वो सवाल भी है, जो शुरु में पूछा था.

कोल्लम के मंदिर में बैठी जो 'मां' सौ साल से अपने बच्चों की मन्नत पूरी कर रही थी.

वो इस हादसे को क्यों नहीं रोक पाई?

देवी ने कोई चमत्कार क्यों नहीं किया?

सौ बार जब ये सवाल सुने तो मां की सुनाई दो कहावतें याद आ गईं

'आग और पानी खेलने की चीज नहीं'

हर मां अपने बच्चों को बार-बार ये याद दिलाती है. हिदायत देती है. कभी मनुहार करती है, कभी डांटकर बताती है.

शायद वो ऐसे ही डर की तरफ इशारा करती है.

और फिर यहां तो आतिशबाजी, पटाखों और बारूद का पूरा ढेर था.

देखने वालों और सुनने वालों ने बताया है कि धमाके की गूंज एक किलोमीटर दूर तक सुनाई दी


दूसरी कहावत है, 'जानकर जड़ करें और देव को दोष दें'.

यानी आप गलतियां खुद करें और दोष देवताओं पर लगा दें.

कहने का मतलब ये कतई नहीं कि पीड़ितों ने गलती की. लेकिन कोल्लम में गलतियां हुईं. एक नहीं कई.

आस्था के ऐसे मेलों में जहां हज़ारों हज़ार लोग जुटते हैं आग का खेल कितना घातक हो सकता है, इस बात का अंदाजा नहीं लगाने वाले क्या देवी मां के आंगन में खड़े होने के हकदार हैं?

गौर कीजिएगा. अगर कहीं दीपक जलता हो और बच्चा उसके पास जाए तो मां दौड़कर उसे खींच लाती है

दीपक को ऐसी जगह रख देती है जहां तक बच्चे की पहुंच न हो.

मां ने इशारा यहां भी दिया होगा लेकिन अंधी होड़ में देखने समझने की जहमत किसने उठाई

प्रशासन कहता है, 'हमने अनुमति नहीं दी'.

ठीक है अनुमति नहीं दी होगी लेकिन जहां आतिशबाजी का ऐसा बड़ा तमाशा हुआ हो, हज़ारों की भीड़ जुट रही हो तो क्या सिर्फ एक एप्लीकेशन लौटाने भर से प्रशासन का काम पूरा होता है


अपना इरादा शासन, प्रशासन, सरकार और आयोजकों को कोसने का नहीं.

हम तो उस 'बरहामन' को कोस रहे हैं जिसने वर्ष प्रतिपदा के दिन ग़ालिब की ग़ज़ल सुनाते हुए कहा था, 'ये साल अच्छा है'.

कोल्लम की तकलीफ में हम सब शामिल हैं

लेकिन क्या हम इस हादसे से सबक लेंगे?  

रविवार, 10 अप्रैल 2016

सलाम कि तुम 'पप्पू' हो



                                                   
'पप्पू'

भाई लोग कहते हैं ये नाम उस पर सूट करता है.

जावेद अख्तर ने जब गाना लिखा, 'पप्पू कान्ट डान्स साला' , उसका नाम उसके काफी पहले रखा गया था.

एक चर्चित राजनीतिक शख्सियत के लिए सोशल मीडिया पर 'पप्पू' उपनाम पॉपुलर होने से बहुत- बहुत पहले.

अस्सी के दशक में मां-बाप बच्चों के ऐसे ही नाम रख लेते थे.

घर के पुकारू नाम.

पप्पू, गुड्डा, मुन्ना, कालू, ...

मैंने तो एक बार पूछ भी लिया था.

'यार, आजकल पप्पू का मतलब तो निपट चू ि ् माना जाता है. तुझे बुरा नहीं लगता, तेरा नाम पप्पू है'.

वो हंसकर रह गया.

ऐसा नहीं है कि उसे सवाल समझ न आया हो.

ऐसे भी वो मेरे मुश्किल सवालों को दरकिनार ही कर देता है. कभी हंसकर. कभी बहाने बनाकर

लेकिन दिलचस्प ये है कि जैसे ही वो कोई बहाना बनाता है, झूठ झट से पकड़ में आ जाता है.

उसके बहानों के लिए मैंने कई बार उसकी कान खिंचाई भी की है. सरेआम

मसलन, समोसे के साथ मिलने वाली लाल मीठी चटनी को ब्रज क्षेत्र में सोंठ कहा जाता है. 

मिर्च नहीं खाने वाले सोंठ खूब पसंद करते हैं. 

एक बार हम दोस्त बैठे गप लगा रहे थे. पप्पू से समोसे लाने को कहा गया. साथ में सोंठ भी लाने की हिदायत दी गई. 

भाई लौटा तो सोंठ नहीं लाया. 

सवाल हुआ तो बोला, 'सोंठ खत्म हो गई थी'. 

पप्पू इतने पर रुकता तो फिर वो पप्पू ही क्या? 

उसने आगे कहा. 

'दुकानदार बोला, सोंठ नहीं है बक्खर ले जा. अब मैं बक्खर क्या लाता'. 

अगर आप नहीं जानते तो बताना जरुरी है, बक्खर चीनी की उस चाशनी को कहा जाता है जिसमें जलेबी और इमरती को डुबोकर मीठा बनाया जाता है. 

पप्पू का जवाब सुनते ही कुछ साथी हंसे. कुछ मुस्कुराए पर अपना पारा चढ़ गया. 

लेकिन, पप्पू ज़िद्दी इतना कि बात मुंह से निकल गई तो फिर पीछे हटने को तैयार नहीं. 


भाई लोग ये किस्से भी सुनाते हैं कि वो अपने पैसे कितने एहतियात से रखता है. 

साथ में सफ़र करना हो और टिकट लाने की जिम्मेदारी पप्पू के नाम हो तो यकीन मानिए आते ही सबसे उनके हिस्से की रकम वसूल लेगा. 

ऐसा अपना अनुभव नहीं. बाकी साथियों का कहना है. 

दोस्त ऐसे ही और भी किस्से सुनाते हैं. 

और पप्पू के 'पप्पू' होने पर खूब चुटकी लेते हैं. उसे कंजूस बताने वालों की भी कमी नहीं. 

अपनी राय भी ऐसी ही बातों पर बनती बिगड़ती थी. 

लेकिन पप्पू ने अभी एक झटके में आंख खोल दी. बता दिया कि कही, सुनी बात को लेकर किसी की ब्रांडिंग करना ठीक नहीं. 

कई बार तो आंखों देखी बातें भी सच की पूरी तस्वीर पेश नहीं करतीं. 

पप्पू जहां काम करता है, वो एक ट्रस्ट है. गायों की सेवा भी करता है. 

गोवंश यानी गाय, बछड़े, बछिया या फिर सांड़ों के मरने पर उनको समाधि देता है. 

बीते दिनों पप्पू को भी इस काम में लगाया गया. सुपरविजन करने के लिए. जरुरत पड़े तो बाकी कर्मचारियों की मदद के लिए. 

पूरी प्रक्रिया में मदद करने वालों को मेहनताना भी मिलता है. 

200 रुपये. 

दस मौके मिले महीने में तो दो हज़ार रुपये. 

पप्पू की अब तक जो तस्वीर गढ़ी गई थी, उसके मुताबिक ये रकम कम नहीं है. 

पप्पू को जब पहली बार इस काम पर भेजा गया तो लौटकर आने पर उसे 200 रुपयों की पेशकश हुई. 

पप्पू ने इनकार कर दिया. 

सवाल हुआ 'क्यों नहीं लोगे?'. 

पप्पू ने कहा, 'गाय मां है, मां की सेवा के पैसे नहीं लूंगा'. 

सवाल पूछने वाले ने कहा, 'बड़े अधिकारी बुलाकर कहेंगे तो?' 

पप्पू ने कहा, 'कह दूंगा, चारा मंगाकर गायों को खिला दो साहब'.

'और ये भी समझ लो साहब, पैसे नहीं लूंगा तो ये मत समझना कि काम नहीं करूंगा'. 

'महीने में रोज़ जाना होगा तो जाऊंगा'.  


गायों को लेकर देश में बड़ी बहस छिड़ी है. 

पप्पू कभी ऐसी बहस में नहीं पड़ता. कम से कम मैंने नहीं देखा. 

उसके देखे सुने अंदाज से जो तस्वीर बनी थी, उसके मुताबिक भी अपनी सोच होती कि पप्पू पैसे छोड़ नहीं सकता. 

लेकिन, वाह भई पप्पू . मौके पर चौका जमा दिया. 

सामने नहीं किया. लेकिन अब लिख के सरेआम पूरी दुनिया के सामने कहता हूं 'सलाम पप्पू' . 

इसलिए नहीं कि उसने कमाई के एक जरिए को किनारे किया. 

बल्कि इसलिए कि सिर वही है जो सही चौखट पर झुके. हर कदम को चूमने वाला 'चापलूस' सबको पसंद भले ही आ सकता हो लेकिन क्या वो मां का मोल लगाने से बच पाएगा. 

गाय को वोट के बाज़ार में उतारने वालों से पूछ के देखिए.

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

'नाम वाले' अमिताभ

और प्रत्यूष-प्रत्युषा के सपने



प्रत्यूष. 

बिल बनाते वक्त उसकी मां ने यही नाम बताया था. 

बिल बनाने का नंबर काफी बाद में आया था. उसके पहले काफी लंबी उधेड़ बुन रही. गुणा-गणित चलता रहा. 

सवाल साइकिल का था. गियर वाली साइकिल. मां का बजट 15 हज़ार का था. वो दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद के वैशाली में हाल-फिलहाल खुले 'बेनेफिट' स्टोर पर आईं थीं. 

उनके इस स्टोर तक आने की बड़ी वजह यहां साइकिलों पर मिल रही छूट थी. दरअसल, स्टोर की शुरुआत की ही इस मकसद से गई है कि लोग साइकिल खरीदने को प्रोत्साहित हों. 

पर्यावरण को ठीक रखने में यथा-संभव मदद करें. अपने शरीर को नियंत्रित रखें. खुद को फिट बनाएं. मुनाफे की सोच सबसे आखिरी पायदान पर है. 
छूट 15 फीसदी की थी. बजट 15 हज़ार का था. लेकिन, बेटे को जो साइकिल पंसद आ रही थी वो छूट के बाद 20 हज़ार की थी. 

मां चाहती थीं कि स्टोर के मालिक छूट बढ़ाएं. आखिर सवाल बच्चे की पसंद और उसके सपने पूरे करने का था. 

स्टोर चलाने वालों की दिक्कत ये थी कि मुनाफा भले ही न लें लेकिन घाटा कैसे सहें. 

गुजारिश, मान- मुनव्वल, जोड़ घटाव चलता रहा. थोड़ा मां ने बजट बढ़ाया तो बच्चे का सपना पूरा करने के लिए स्टोर के मालिक भी घाटे की चोट सहने को तैयार हो गए. 

ये दुकानदारी की 'समझदारी' तो नहीं लेकिन बच्चों के मन में सपने दुनियावी समझ के मुताबिक कहां सजते हैं. 

बाल मन तो वो है जो चांद पर मचल जाए. या तो उसे पंसद का चाहिए या फिर कुछ भी नहीं. 

पूरे किस्से में अपनी भूमिका एक दर्शक भर की थी. 


इस सच्ची कहानी में जैसे ही 'द एंड' का बैनर आया अचानक नज़र ट्विटर पर गई. 

वहां प्रत्युषा का नाम था. 

जी हां, आपकी जानी पहचानी टीवी एक्ट्रेस. 

खबर उसकी खुदकुशी की थी. प्रत्यूष और उसके सपने ने हाल ही दिमाग में घर बनाया था. 

प्रत्युषा से कोई जान पहचान नहीं थी. कभी वो सीरियल भी नहीं देखा था, जिसकी वजह से उनका नाम घर-घर तक पहुंचा था. 

लेकिन, इस खबर ने अंदर तक हिला दिया. 

लगा, जब सपने टूटते हैं और आवाज़ अनसुनी कर दी जाए तो एक खूबसूरत कहानी भी बेवक्त खत्म हो जाती है. 

प्रत्यूष के सपने को बचाने के लिए दो लोगों ने पूरी शिद्दत से कोशिश की. घाटा सहकर भी.

प्रत्युषा को शायद कोई ऐसा दरियादिल नहीं मिला. उनकी मौत पर अफसोस करने वालों की संख्या देखकर लगता है कि उनके पास भी चाहने वालों की कोई कमी नहीं थी लेकिन शायद एतबार में कमी थी. 

प्रत्युषा को अगर यकीन होता कि कोई उनका सपना पूरा कर सकता है तो शायद ज़िंदगी का पहिया आज भी घूम रहा होता. 

ये होता तो क्या होता? 

यकीन मानिए बताने वालों ने दुनिया को भले ही रंगमंच का स्टेज या फिल्म का पर्दा बता दिया हो, लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं. 

यहां रील और रियल का फर्क साफ दिखता है. 

अमिताभ बच्चन साहब से पूछकर देखिए. 

अमिताभ बच्चन को भारतीय सिनेमा का सबसे जगमगाता सितारा बनाने वाली फिल्मों पर गौर कीजिए. 

दीवार. अमिताभ स्मग्लर के गुर्गे की भूमिका में थे. 

शोले. अमिताभ चोर के रोल में थे.

डॉन. अमिताभ ने अंडरवर्ल्ड डॉन का किरदार निभाया. 

अग्निपथ. अमिताभ ने अंडरवर्ल्ड डॉन की भूमिका निभाई. 

सारी फिल्मों का जादू दर्शकों के सिरचढ़ कर बोला. अमिताभ कालजयी हो गए. एंटी हीरो, गैरकानूनी काम करने वाले शख्स की भूमिका अदा करने वाला सितारा सदी का महानायक बन गया. 


फिर कहिए, किसी देश की किसी कंपनी के कोई गोपनीय दस्तावेज में नाम आते ही उसी महान सितारे की चमक खुरचने वालों की भीड़ सामने आ गई. 

अमिताभ ने सफाई दे दी है. वो हालात के ऐसे मुश्किल अग्निपथ से पहले भी गुजरे हैं. 

वो रील और रियल लाइफ के बीच फर्क भी जानते हैं. 

और वो खुद गुनगुना भी चुके हैं. 

'जो है नाम वाला वही तो बदनाम है'.   

गुरुवार, 31 मार्च 2016

गेल से अमिताभ बच्चन की डील!

पार्टी तो बनती है!!!



अब आप मिस्टर बच्चन को क्या कहेंगे? 

कम से कम खबरों में बने रहने के लिए उन्हें क्रिकेट की जरुरत नहीं. 

खबरें तो उनके पीछे दौड़ती हैं. वो 73 बरस के हैं. 

उम्र को मात देते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नौ साल पहले पैदा हुए हैं. लेकिन जोश 37 बरस के तमाम आंके-बांकों से कई गुना ज्यादा है. 



 एक दिन वो कोलकाता में होते हैं. अगले दिन दुबई में फिर तीन दिन के अंदर कतर में दिखाई देते हैं.

और हर जगह तमाम सितारों और सुपर सितारों के बीच कद्रदानों की निगाहें सिर्फ उन पर टिकी होती हैं.

तभी जानकारी मिलती है कि नेशनल अवॉर्ड चुनने वाली जूरी ने पैनल के सारे नाम दरकिनार करते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुना है.

हर तरफ से बधाइयों का तांता शुरु हो जाता है. फैन्स. बॉलीवुड. यहां तक कि पुरस्कार पाने वाले दूसरे कलाकार भी कहते हैं कि उन्हें फख्र इस बात है कि वो राष्ट्रीय पुरस्कार के काबिल उस वक्त समझे गए जबकि श्रीमान अमिताभ बच्चन को भी पुरस्कार मिल रहा है.


सोशल मीडिया पर लोकप्रियता का आलम देखिए. ट्विटर पर उन्हें फॉलो करने वालों की संख्या 20 मिलियन के पार निकल चुकी है. आप तो जानते हैं कि एक मिलियन का मतलब दस लाख होता है. यानी दो करोड़ लोग ट्विटर पर उनके पीछे हैं. 

एक बार फिर मुझे कहना पड़ रहा है कि ट्विटर के किंग माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनसे पीछे हैं. प्रधानमंत्री को 19 मिलियन लोग फॉलो करते हैं. 

और, क्रिकेट  के नए फरिश्ते विराट कोहली को फॉलो करने वालों की संख्या बच्चन के फॉलोअर्स से आधी है. 

अब ये भी साफ हो चुका है कि सीनियर बच्चन साहब कमाई के लिए क्रिकेट की बातें नहीं करते. 

बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष और भारतीय टीम के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली ने रिकॉर्ड पर कहा है कि मिस्टर बच्चन ने भारत-पाकिस्तान के बीच कोलकाता के ईडेन गार्डन्स मैदान पर हुए मैच के पहले राष्ट्रगान गाने के लिए कोई रकम नहीं ली थी. 

उन्होंने न सिर्फ कोलकाता आने जाने के लिए चार्टेड प्लेन का किराया खुद दिया था बल्कि मैच का टिकट भी लिया था. 

मेरे ख्याल से करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिलों पर राज करने वाले सीनियर बच्चन जानते हैं कि ये सारे दिल क्रिकेट के लिए भी दीवाने हैं. 

दिलों का ये मेल ही उन्हें इस खेल की तरफ खींचता होगा. 

दूसरी वजह ये भी है कि वो लोगों की पसंद और ट्रेंड को भांपने के उस्ताद हैं. पीढ़ियां बदलने के बाद भी उनका जादू बरकरार होने की एक वजह ये भी है. 

वो सही वक्त पर सही जगह मौजूद होने की अहमियत जानते हैं. यही बात उन्हें हर वक्त सबसे अहम बनाए रखती है. 

सीनियर बच्चन साहब बांग्लादेश पर भारत की रोमांचक जीत के बाद कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की तारीफ करते हैं तो मोहाली में ऑस्ट्रेलिया की धुलाई करने के लिए कोहली के करिश्मे को दाद देते हैं. 

और जिस वक्त भारतीय ड्रेसिंग रुम में क्रिस गेल को सेमीफाइनल में रोकने की रणनीति पर होने वाली चर्चा को लेकर हर नुक्कड, हर चौपाल, हर बैठकखाने और हर ड्राइंग रुम में डिबेट जारी है ट्विटर पर गेल की मेजबानी करते श्रीमान बच्चन की तस्वीर सामने आती है. 

जी हां, जिस गेल को लेकर हिंदुस्तान की नींद में खलल पड़ा हुआ है, जो मौजूदा वर्ल्ड ट्वेंटी-20 के इकलौते शतकवीर हैं, जो भारतीय टीम और वर्ल्ड ट्वेंटी-20 ट्रॉफी के बीच की सबसे बड़ी दीवार माने जा रहे हैं, वो अपने बच्चन साहब के फैन हैं. 

और बच्चन साहब को भरोसा है कि गुरुवार को यानी आज होने वाले मैच में वो भारतीय टीम पर मेहरबान होंगे. 

फिर पार्टी तो बनती है. 

(साभार: सभी तस्वीरें श्रीमान अमिताभ बच्चन के आधिकारिक ट्विटर अकाउंट @SrBachchan से ली गई हैं. इसका मकसद व्यावसायिक इस्तेमाल नहीं है. :  ) 

बुधवार, 23 मार्च 2016

कृष्ण खेलें होली

और तरसें हम गोरे-काले...

 चेहरे पर रंग चढ़ा हो फिर क्या पता, कौन गोरा है और कौन काला.

सबको समान बना देने वाला होली जैसा कोई उत्सव दुनिया के किसी हिस्से में होता हो तो बता दें.

और अगर आप ब्रज की गलियों में पहुंच जाएं तो बरसाना से लेकर नंदगांव और मथुरा- वृंदावन तक में गुलाल के गुबार के बीच लाठियां लेकर पुरुषों को दौड़ाती महिलाओं के दर्शन न हों, ये मुमकिन नहीं.

ये दृश्य अब से नहीं पांच हज़ार साल पहले से दिखते हैं. महिला अधिकारों और नारी स्वतंत्रता को लेकर शुरू हुई बहसों से हज़ारों साल पहले से.

यही कृष्ण का दर्शन है और यही उनकी कृपा.

अन्याय और असमानता का रोना रोने से समानता आ सकती है या नहीं, ये बहस का मुद्दा है.
कृष्ण कभी ऐसी बहस में नहीं पड़े.

उन्होंने उत्सवीय परंपराओं को ऐसे मोड़ दे दिए कि हंसते- खेलते, आनंद मनाते ऊंच-नींच के भेद मिटते चले गए.

कृष्ण की पिचकारी से प्रेम रंग निकला. राधा भींगी और नाराज़ होकर कान्हा की तरफ लाठी लेकर दौड़ीं. ये लाठी अधिकार की थी. 

इसने ब्रज की महिलाओं के हाथ को इतना शक्ति संपन्न बना दिया जिसका बल पांच सहस्त्राब्दियों के बाद भी कम नहीं हुआ है. 

फागुन के महीने में लाठियों की ये बारिश देखने देश दुनिया से अनगिनत लोग ब्रज की गलियों में जुटते हैं. वो कृष्ण युग की परंपराओं से क्या सीखते हैं पता नहीं लेकिन वो उतने पल के लिए कृष्ण या राधा बन जाते हैं जितनी देर ब्रज की धूल में मिला रंग-गुलाल उनके चेहरे पर चिपका रहता है. 

कृष्ण का महारास हो या फिर होली का उल्लास. हर तरफ कृष्ण थे क्योंकि वहां मौजूद हर कोई कृष्ण हो गया. 
लेकिन कृष्ण बने रहना आसान नहीं. कृष्ण होकर आप शिकायत नहीं कर सकते. आनंद, उल्लास और प्रेम में रो तो सकते हैं लेकिन अवसाद के सागर में डूबे नहीं रह सकते. 
जिन्हें झीकते रहने की आदत है, वो क्षणिक आनंद के बाद अपने गोरे- काले चेहरे लिए कृष्ण लोक से बाहर आ जाते हैं. 

और जो कृष्ण बने रहते हैं, उनके लिए हर दिन होली का उत्सव है और हर तरफ आनंद है. जहां कृष्ण है वहां उमंग, उल्लास और उत्साह के रंगों की बरसात के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता. 

यकीन न हो तो इस होली कृष्ण होकर देखिए.