रविवार, 16 अगस्त 2015

... हार तो ध्रुव सत्य है

लेकिन ज़रा किशोर दा को भी तो सुन लो 


इसे स्वतंत्रता दिवस की वजह से बना 'उन्माद' कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. 

मेरे साथ ऐसा अक्सर होता है. 

जब तक पास में आखिरी गोली होती है, फौजी हार नहीं मानता. 

उसी तरह मैं भी टीम इंडिया की आखिरी जोड़ी के क्रीज पर होने तक ये मानने को तैयार नहीं होता कि हम मैच हार जाएंगे. 

मैं क्रिकेटर नहीं हूं. बरसों पहले ये भी जान गया हूं कि भारत के नाम से जो टीम खेलती है, दरअसल वो हिंदुस्तान की सरकारी टीम नहीं है. वो बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया यानी बीसीसीआई की टीम है और हमारे देश के प्रतिनिधित्व का दावा सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए करती है.  

बीसीसीआई को जब फैन्स के जुनून को बाज़ार में भुनाकर रुपया और डॉलर जुटाना होता है, वो भारत की प्रतिनिधि संस्था बन जाती है. जब हित आड़े आते हैं तो वो प्राइवेट ब़ॉडी बनकर तमाम जिम्मेदारियों से परे हो जाती है. 

मैंने क्रिकेट और क्रिकेटरों के मैच फिक्सिंग की कीचड़ में लोटने के किस्से भी सुने हैं. ऐसे किस्से जिन्हें सुनने के बाद जिन्हें आप खेल के बड़े देवता का दर्जा देते हुए पूजते हैं, उन्हें शैतान बताते हुए पत्थर भले ही न उठाएं लेकिन मुंह जरुर फेर लेंगे. 

बीसीसीआई की राजनीति में खेल और खिलाड़ियों को पिसते, स्वाभिमान से समझौते करते और मूक-बधिरों की तरह बर्ताव करते भी देखा है. 

फिर भी , क्रिकेट नाम के खेल और हिंदुस्तान के नाम खेलती टीम में जाने वो कौन सी कशिश है, जो मुझे आखिरी विकेट उड़ने या फिर आखिरी गेंद फिंकने तक ये कहने पर मजबूर कराती है कि 'नहीं, हम अब भी जीत सकते हैं'. 

टीवी खोला तो टीम इंडिया का स्कोर था आठ विकेट पर 88 रन. श्रीलंका ने जीत के लिए 176 रन का टार्गेट दिया था. पहली पारी में 375 रन बनाने वाली टीम दूसरी पारी में पौने दो सौ रन भी नहीं बना सकेगी, ये सोचना मुश्किल था. मैं ही नहीं तमाम लोग माने बैठे थे कि 15 अगस्त को विराट कोहली के जांबाज सिपाही क्रिकेट मैदान में उतरेंगे. अपने बल्ले को तलवार बनाएंगे. ये मार के वो मार मचाएंगे. मैदान मार के आज़ादी के जश्न की रौनक बढ़ा देंगे. 


ये तब की बात थी, जबकि भारत ने दूसरी पारी शुरु ही की थी. लेकिन, मैं तो महज अस्सी रन पर आठ विकेट गिरने के बाद भी शर्त लगाने को तैयार था कि 'नहीं हम जीतेंगे'. घर पर पूजा कराने आए पंडित जी को भी मैंने जाने नहीं दिया. कहा, 'बैठिए पंडित जी मिलके मैच जिताते हैं'. 

मुझे और पंडित जी को बैटिंग नहीं करनी थी. टीवी के सामने बैठकर चीयर भी करें तो क्या फायदा. न आवाज पिच खड़े रहाणे को सुनाई देगी और न ही अमित मिश्रा को. 

पंडित जी समेत सबने कहा, 'अब ये क्या जीतेंगे'. तो मेरे पास इसकी काट के भी तर्क थे. 

मैंने कहा, 'रहाणे को क्या समझ रखा है. इसने टेस्ट मैचों में तीन सेंचुरी जमाई हैं. पहली न्यूज़ीलैंड में, दूसरी इंग्लैंड में और तीसरी ऑस्ट्रेलिया में. दक्षिण अफ्रीका में भी इसका औसत 70 का रहा है. फिर ये तो लंका है. स्पिनरों को तो ये सपने भी सूंत दे. और, अमित मिश्रा, उसे भी किसी बल्लेबाज से कम मत समझो'. 

क्रिकेट में आंकड़ों का अपना आकर्षण है, लेकिन, हिंदुस्तान में इस खेल को देखने वाले इतनी समझ रखते हैं कि वो नंबरों की भूल भुलैया में दाखिल ही नहीं होते. 

अपने लोगों की एक और बड़ी खूबी है. उन्होंने श्रीमद्भगवदगीता पढ़ी हो या नहीं. उसका व्यावहारिक ज्ञान जरुर रखते हैं. यानी हादसा होने के पहले मोह त्याग देते हैं. यानी मान लेते हैं कि मृत्यु तो (यहां हार पढ़ें) ध्रुव सत्य है. आंसू क्या बहाना? 

मैं कहना ये चाहता हूं कि वो टीम के हारने के पहले ही विरोधी खेमे में खड़े हो जाते हैं. 

'ये क्या जीतेंगे. इनका तो यही हाल रहा है. ये आईपीएल के मतलब के ही हैं. मैं तो इसीलिए मैच नहीं देखता. लंका छोड़ो अब तो ये बांग्लादेश को भी नहीं हरा सकते'. 

ऐसी तमाम बातें वही लोग करना शुरु कर देते हैं, जो इसी टीम की एक जीत पर पटाखे फोड़ने और ढोल बजाने को तैयार रहते हैं. मेरे साथ बैठकर गॉल टेस्ट के चौथे दिन का खेल देखने वालों में भी ऐसे मिजाज वालों की कमी नहीं थी. 

हालांकि, उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा. लेकिन मैं जब रहाणे और मिश्रा की बल्लेबाजी की खूबियों के बारे में दलीलें दिए जा रहा था और ये बताने की कोशिश में लगा था कि 'उम्मीद मत छोड़ो. ये दोनों भी चाहें तो मैच जिता सकते हैं. फिर क्रिकेट तो चमत्कारों का ही खेल है'. 

उनमें से ज्यादातर को मैंने इस अंदाज में मुस्कुराते देखा कि मानो कह रहे हों, 'बीस मिनट रुक जा, खुद पता चल जाएगा. रहाणे क्या करता है. अमित मिश्रा क्या करता है. जब आठ कुछ नहीं कर सके तो ये क्या खाक करेंगे?'
 
पिछले तमाम मौकों की तरह इस बार भी मेरी कल्पनाओं का महल भरभराकर गिर गया. जो मुस्कुराते हुए मेरी दलील का मजाक उड़ा रहे थे उनकी आंखों में दिखती शरारत कुछ और बढ़ गई. मैंने मान लिया जो रोज हो जाए वो 'चमत्कार' क्या. 

कभी और सही लेकिन अपने दबंग चमत्कार करेंगे जरुर. मैं उन्हें हर दिन चमत्कार करते देखना चाहता हूं तो सिर्फ इसलिए कि हिंदुस्तान के नाम पर खेलने वाली टीम की हार की कल्पना मुझसे हो ही नहीं सकती. तभी तो शर्त लगा के कहता हूं कि आज नहीं तो आगे जीतेंगे. 

फिर किशोर दा भी तो कह गए हैं. जिंदगी की यही रीत है, हार के बाद ही जीत है. 

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