सोमवार, 24 अगस्त 2015

हां सलमान

हिंदुस्तान है कुर्बान 


किसी रात ऐसा हो सकता है. वो उठें और एक के बाद एक ट्वीट करने लगें.

सुबह हो तो वो आधा हिंदुस्तान जिसे आप जानते हैं और थोड़ी बहुत बातचीत करते हैं, आपको बताने लगे कि उन्होंने कितने मिनट के बीच कितने ट्वीट किए.

उनकी तमाम गर्लफ्रेंड्स के नाम हर वो शख्स जानता है, जिसे आप जानते हैं. 

उनकी लवस्टोरी कब शुरु हुई. कब तक चली. फिर 'उसे' कौन ले उड़ा? ये किस्सा कोई भी बता सकता है. 

आपका प्लम्बर. दूध वाला. अखबार वाला. माली. जिम इंस्ट्रक्टर. आपका बॉस भी. 

उनके हर केस की जानकारी होने के लिए आपका वकील होना जरुरी नहीं. 

और, उनकी फिल्मों के बिजनेस की जानकारी के लिए न फिल्म पंडित होने की जरुरत है और न ही फिल्मों दिलचस्पी रखने की. 


फिल्म में कहानी क्या थी?  गाने कैसे थे लोकेशन कैसी थी? किसे याद रहता है.

थियेटर से बाहर निकलने वाले कभी ये बताने में दिलचस्पी नहीं लेते कि फिल्म कैसी थी?

वो तो बस यही कहते हैं, 'सलमान रॉक्स' 

'सलमान वाज़ सुपरब' 

'ही इज़ रीयल रॉक स्टार' 

अब आपको पता है कि उनके पिता हिंदुस्तानी सिनेमा के मशहूर स्क्रिप्ट राइटर थे तो ये आपकी ग़लती है. 

और आपने ये ग़लती सवाल की शक्ल में आगे बढ़ा दी तो जवाब मिलेगा 

'यार कहानी देखने कौन जाता है. हम तो सलमान को देखने जाते हैं'. 

जी हां, सलमान खान हिंदी सिनेमा के वो सितारे हैं, जिसका अपना आसमान है

और, मसाला फिल्मों में अपने सपनों की दुनिया खोजने वाला हिंदुस्तान अब इसी आसमान के नीचे बसेरा करता है. 


ऐसी फैन फॉलोइंग तो एक्टिंग के शहंशाह दिलीप कुमार को भी नसीब नहीं हुई. 

एक मैगज़ीन ने खुलासा किया है कि अमिताभ बच्चन कमाई के मामले में अब भी सलमान खान को टक्कर देते हैं. 

स्टारडम के लिहाज से हिंदुस्तान ने अमिताभ बड़ा सितारा नहीं देखा. (असहमत हों तो माफ कीजिएगा मैं अमित जी का फैन हूं)

उनकी एक्टिंग का भी हर कोई लोहा मानता है 

लेकिन, आपको ऐसी कितनी फिल्में याद है, जिसमें अमिताभ बच्चन हों और जिसकी स्टोरी या डॉयलॉग दमदार न हो, वो बॉक्स ऑफिस पर झंडे लहरा गई हो. 

आमिर खान तो बिना उम्दा पटकथा के काम करने को ही तैयार नहीं होते. 

और शाहरुख खान, उनका स्टारडम तो हमेशा से बड़े बैनर के भरोसे ही टिका है. 


इन सबके बीच सलमान खान कहां हैं? 

ईद पर 'बजरंगी भाईजान' आई तो भाई लोगों ने कहा, 'बहुत दिनों के बाद सलमान की कोई फिल्म आई है जिसमें कोई कहानी है'. 

मतलब? बहुत दिनों से सलमान जिन फिल्मों में काम कर रहे थे, उनमें कोई कहानी ही  नहीं होती थी? 

ऐसा आंकलन मेरा नहीं. 

मै सलमान का उस अंदाज में मुरीद भी नहीं. 

ये बात अलग है कि उन्होंने जिस 'सौ करोड़' के क्लब की नींव डाली है, उसमें चंदा मैंने भी दिया है. यानी उनकी लगभग हर फिल्म देखी है. 

सलमान ने मेहनत से बॉ़डी बनाई है. पचास की उम्र में भी वो चॉकलेटी हैं. एक्शन भी हिला देने वाला करते हैं. 

लेकिन, उनके पास न तो अमिताभ बच्चन जैसी जादुई आवाज है. न दिलीप कुमार और आमिर खान जैसी एक्टिंग की काबीलियत. वो गोविंदा और हृतिक की तरह नाच भी नहीं सकते. सनी देओल की तरह चीख नहीं सकते और शाहरुख की तरह रो नहीं पाते. 

लेकिन, एक स्टार के तौर पर सलमान इन सभी से मीलों आगे जा चुके हैं. 

स्टार वही है, जिसकी चमक में दुनिया को कुछ और दिखाई नहीं दे. बाकी सबकुछ धुंधला हो जाए. 

साल 1989 के दिसंबर महीने में 'मैनें प्यार किया रिलीज' होने के बाद सलमान पर न जाने कितने और कैसे कैसे आरोप लगे. 

कितनी बार उनकी एक्टिंग का पोस्टमार्टम हुआ 

कितनी बार उनकी निजी ज़िंदगी की चीर फाड़ की गई.

कितनी बार उनके करियर के खत्म होने का एलान किया गया. 

जाने कितनी बार 

लेकिन हर बार सलमान नाम के सितारे की चमक कुछ और बढ़ गई. 

सलमान के स्टारडम का असल मतलब तो मुझे तब समझ आया, जब 'दबंग' रिलीज हुई. 

मेरे चार बरस के भांजे ने मेरी जेब के मुताबिक मेरे बेशकीमती धूप के चश्मे को उठाया. अपनी कॉलर में टांगा और खालिस सलमान स्टाइल में 'दबंग... दबंग.. दबंग' करने लगा. 

वो रीयल सलमान को नहीं जानता. उनकी ढेर सारी लव स्टोरीज़ से भी अनजान है. उसे उन पर चलते मुकद्मों की भी जानकारी नहीं. वो सलमान के ट्वीट भी नहीं पढ़ता. 

लेकिन सलमान की हर फिल्म देखने ज़िद करता है. सलमान जैसी बॉडी बनना चाहता है और आगे कभी सलमान जैसा ही स्टार बनना चाहता है. 

बच्चे की बात छोड़ए. अपने मोदी जी से पूछ लीजिए. सलमान के स्टारडम को बयान करने वाली कहानियां तो उनके पास भी हैं. 

रविवार, 23 अगस्त 2015

चाहें सोना मांगे प्याज़

कैसा चलन, कैसा मिजाज 

'मेरा राजा बेटा'. 

'मेरा सोना बेटा'.

वो कौन सी मां होगी, जिसने कभी न कभी अपने बेटे को राजा और सोना कह कर न बहलाया हो. 

हर मां के लिए उसका बेटा किसी राजा की तरह रौबीला होता है. सोने की तरह चमकदार और बेशकीमती होता है. 

क्या आपने किसी मां को कहते सुना है मेरा 'प्याज' सा बेटा 

चलिए सीन बदलते हैं, सवाल बदलते हैं 

हिंदुस्तान में सरकार जब किसी पर खुश होती है. मदद के तौर पर मेहरबानी करना चाहती है तो क्या देती है. 

सीधा सा जवाब है, पेट्रोल पंप 

सीमा पर शहीद होने वालों के परिवार को पेट्रोल पंप. पुलिस की वर्दी में शहीद होने वालों के घरवालों को पेट्रोल पंप. अपने चहेते कार्यकर्ताओं को पेट्रोल पंप. 

क्या आपने सुना है कि कभी सरकार ने किसी को प्याज की आढ़त दी हो? 

कहा हो, 'जा बेटा प्याज बेच खूब कमा'

आप ये तो नहीं सोच रहे कि मैं घूम फिरके प्याज पर क्यों आ रहा हूं? 

प्याज मैं मेरी खास दिलचस्पी नहीं. मैं तो जमाने के चलन को देखकर हैरान हूं. 

अनमोल सोने का मोल इस साल इतना टूटा कि भाई लोगों ने कह दिया कि सोना तो 20 हज़ार के नीचे चला जाएगा. यानी 10 ग्राम सोना सिर्फ बीस हज़ार में मिलने लगेगा. 

ठीक है कि सोना 25 हज़ार के आसपास ठहर गया लेकिन फिर भी ये किसने सोचा था कि 2015 में सोने दाम सिर्फ 25 हजार रुपये होंगे. 

और तेल. उसने तो सारे जमाने को हैरान कर दिया है. कच्चा तेल 40 डॉलर प्रति बैरल तक टूट गया है. करीब 7 सालों में कच्चा तेल इतना कमजोर नहीं हुआ. 



जमाना जिन चीजों को हासिल करने के लिए दीवाना हुआ फिरता है, वो दोनों बेशकीमत चीजें ऐतिहासिक तौर पर सस्ती हो गई हैं.

लेकिन, ज़रा लोगों का मिजाज तो देखिए वो प्याज की कीमतों को लेकर हाय-तौबा किए जा रहे हैं. 

कई बार सोचता हूं कि इस निठल्ले प्याज की किस्मत पर तो सोने को भी रश्क होता होगा. उन देशों को भी जो तेल बेच-बेचके धन्ना सेठ हो गए हैं. 

कभी ये प्याज महंगा होता है तो सरकार बदल देता है. कभी ये प्याज महंगा होता है तो मामला अदालत में पहुंच जाता है. 

जी हां, लखनऊ में लोग प्याज की कीमत को लेकर हाईकोर्ट पहुंच गए हैं. कोर्ट से गुहार लगाई है कि वो प्याज के दाम घटाने के आदेश जारी करे. सरकार को पार्टी बनाया गया है. 

अब बताइये ये कोई बात हुई. आप सोने को भूल गए. तेल को भूल गए और प्याज पर पिल गए. वो भी उस प्याज पर जो मंहगा होने पर रुलाता है और आसानी से मिल जाए तो भी आंख में आंसू ला देता है. 

चलते- चलते बात सरताज अज़ीज़ के नहले पे सुषमा स्वराज के दहले की. 

पाकिस्तान के सुरक्षा सलाहकार सरताज अज़ीज़ ने कहा कि अगर वो बातचीत के लिए हिंदुस्तान गए तो तीन डॉजियर साथ ले जाएंगे, जिसमें सबूत हैं कि भारत की खुफिया एजेंसी रॉ पाकिस्तान में दखल देती है. 

थोड़ी देर बाद भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. सुषमा ने कहा, ' वो क्या कागज़ देंगे. जिंदा सबूत है हमारे पास. हम तो जिंदा आदमी खड़ा कर देंगे'. 

इशारा उस पाकिस्तान  के आतंकवादी की तरफ था जिसे हाल में जम्मू कश्मीर में जिंदा दबोचा गया है. 

प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म हुई तो एक अलग वजह से मैंने राहत महसूस की. 

मुझे डर था कि कोई अतिउत्साही रिपोर्ट ये न पूछ ले, सुषमा वो सब छोड़िए, ये बताइये कि आखिर आपने ललित मोदी की मदद क्यों की? क्या आप पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की भी मानवीय आधार पर मदद करेंगी.?

थैंक्स पत्रकार दोस्तों... 

शनिवार, 22 अगस्त 2015

कभी हंस भी लिया करो

हाल-ए-दिल पे ही सही 


अचानक ख्याल आया. 

चचा गालिब ने यूं ही तो नहीं कह दिया होगा 

'पहले आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी, अब किसी बात पे नहीं आती'. 

कोई तो बात होगी. फिर खुद को टटोला. गिनती की और हैरान रह गया. 

उस 'नन्ही परी' को जब मुस्कुराते देखता हूं, बस तभी खिलखिलाने को दिल करता है. बाकी वक्त तो न हंसी अपने पास आती और न हम उस तक जाने की कोई कोशिश करते हैं. 

वैसे देखिए तो हंसी को किसी के बुलावे का इंतज़ार तो होता नहीं. खुशी जब कभी दिल के करीब दस्तक देती है, वो बिना बुलाए चली आती है. 

पूरी दुनिया उसकी कद्र भी जानती है. 

कहने को तो हर कोई कहता है, 'मुस्कुराते रहो. हंसते रहो'

लेकिन हंसी नसीब कितनों को होती है? 

ये हंसी इतनी दुर्लभ न होती तो बाज़ार में हंसने- हंसाने की दुकानें भी न सजतीं. 

व्हाट्सअप हो, टीवी हो या फिर कोई फिल्म. हर जगह, हर वक्त, हर कोई हंसाने की कोशिश में लगा दिखता है. 

हंसी आती भी है, मगर खोखली सी. खुशी की पालकी पे बैठ के नहीं आती. 

टीवी और फिल्मों  में तो हंसाने का अजब सा फंडा चल पड़ा है. 

या तो किसी की बेवकूफी पर हंसाने की कोशिश होती है या फिर किसी की बेइज्जती करके. 

ये बेइज्जती वाला फंडा शायद पाकिस्तानी नाटकों से आया है. 

मानो हंसाने वाले माने बैठे हों कि जब तक किसी के गाल पे 'झन्नाटे' वाला नहीं पड़ेगा, हमारी हंसी का गुब्बारा फूटेगा ही नहीं. या फिर जब तक हमारे सामने कोई निपट मूरख नहीं आएगा, हम हंसी की महफिल सजाएंगे ही नहीं. 

हंसी के वो हल्के फुल्के लम्हे तो गायब से ही हो गए हैं जो कई बार इत्तेफाक से आते थे और गुदगुदा के चले जाते थे. कई बार ठहर भी जाते थे और हंसते-हंसते ऐसा लगता था कि कहीं जान ही न निकल जाए. 

मसलन, आपने पेट दर्द का बहाना बनाके स्कूल की छुट्टी कर दी हो, छत पर पतंग उड़ाने चढ़ गए हों और तभी छोटा भाई आकर ख़बर दे. 

'भैया मैथ वाले सर आ रहे हैं तुझे देखने'. 

और आप पतंग, चरखी, चप्पल सब छोड़ के भागे हों, छत की सीढ़ियां फलांगते हुए अपने कमरे की तरफ. तभी सर घऱ की घंटी बजाते हैं और घर के सारे लोगों की हंसी छूट रही हो और आप समझ नहीं पा रहे हैं कि मुंह दबाएं कि पेट. 

लोगों को हंसाने के लिए अब लाफिंग क्लब चल रहे हैं. लेकिन मेरी दिलचस्पी उस खोखली हंसी में नहीं. मैं तो चाहता हूं कि आप हंसे तो ऐसे जैसे कुदरत के आशीर्वाद से फूल हंसते हैं. खुलकर. खिल- खिलाते हुए. 

मैं प्रयोग शुरु कर रहा हूं. आप भी आजमा सकते हैं. बेवकूफी पर ही हंसना है तो अपनी बेवकूफियां चुनें. बेइज्जती पर ही हंसना है तो तभी हंसे जब कोई आपको धो दे. 

चलते-चलते एक हंसगुल्ला, शायद आपको पसंद आए. मैं तो इसे पढ़ते ही हंस पड़ा था. 

रिजल्ट का दिन था. 

दो दोस्तों को साथ स्कूल जाना था. एक को लगा कि वो पास नहीं होगा तो बीमारी का बहाना कर घर पर ही रुक गया. 

स्कूल जा रहे अपने साथी से कहा, 'देख अगर मैं एक सब्जेक्ट में फेल हो जाऊं तो कहना जय श्रीकृष्ण' 

'दो में फेल हो जाऊं तो कहना जय श्रीराम' 

'तीन में फेल हो जाऊं तो कहना जय महादेव' 

दोस्त सिर हिलाकर चला गया. 

स्कूल से निकलने के बाद उसने फोन किया 

घर पर रुक गए दोस्त ने पूछा, 'रिजल्ट देखा, क्या हुआ' 

जवाब मिला, 'संसार के सभी देवी-देवताओं  की जय' 

दोस्तों, कभी हंस भी दिया करो. फेल होना तो नियति है. 

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

कहां ले जाएगी ये उत्तेजना

ज़रा ठहरिए और सोचिए 


शिव तीसरा नेत्र खोलते हैं तो प्रलय आता है. 

शिव की दो आंखें दुनिया के कल्याण के लिए हैं. तीसरी विनाश के लिए. 

महादेव के तीसरी आंख खोलने की कथाएं कम ही हैं. 

तीसरी आंख प्रतीक ज्यादा है. कामदेव को भस्म करने के लिए खुलती है और फिर बंद हो जाती है. 

शिव के क्रोध का ज्वालामुखी युगों में एक बार फूटता है. वो भी दुनिया के कल्याण के लिए. 

लेकिन, शिव भक्तों का हाल देखिए. गुस्सा जाहिर करने के लिए तीसरी आंख की जरुरत ही नहीं. दोनों आंखों में ही अंगार लिए घूमते हैं. 

गुस्से का एक नमूना देखिए. 

उज्जैन के महाकाल मंदिर में एक डिप्टी कलेक्टर और एक कॉन्सटेबल के बीच महाभारत हो गया. 

बात छोटी सी थी. डिप्टी कलेक्टर वीवीआईपी ट्रीटमेंट चाहते थे. गेट पर खड़ा कॉन्सेटेबल उन्हें पहचान नहीं पाया. परिचय पूछ लिया. 

डिप्टी कलेक्टर साहब नाराज़ हो गए. आकार में अपने से डेढ़ गुने कॉन्सटेबल को थप्पड़ जड़ दिया. 

पद की गर्मी में शायद सोचा हो कॉन्सेटबल सह जाएगा.

लेकिन, आकलन गलत हो गया. कॉन्सटेबल के पास भी वर्दी की गर्मी थी. 

कुछ वर्दी का गुरुर और कुछ थप्पड़ खाने की खीज. सिपाही हत्थे से उखड़ गया. डिप्टी कलेक्टर साहब को मारने दौड़ा. 

खुलकर एलान किया, 'हल चलाकर खा लूंगा, मार नहीं खाऊंगा'. 

यानी नौकरी मेरे ठेंगे पे. 'थप्पड़ का बदला तो लेके रहूंगा डिप्टी कलक्टर' 

दस-दस लोगों ने पकड़ा तब सिपाही काबू हो सका. 

मंदिर में तमाशा खड़ा हो गया. डिप्टी कलेक्टर और सिपाही की तकरार का वीडियो नेशनल मीडिया में छा गया. 

प्रशासनिक खामियों के लिए लगातार सुर्खियां बटोर रहे मध्य प्रदेश के नाम पर एक और दाग लग गया. 

गुस्से का ऐसा गुबार सिर्फ उज्जैन में नहीं फूटा है. 

आप कहीं चले जाइये, आपको हर तरफ लोग गुस्से में तपते नज़र आएंगे. 

इस गुस्से की वजह से सड़क पर मारपीट के किस्से आम हो चले हैं. ऐसी लड़ाइयों में जान जाने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. 

दिल्ली में सड़क पर मामूली टक्कर की दो अलग-अलग घटनाओं में एक बाइक सवार और एक बस ड्राइवर की मौत का मामला अभी ताज़ा है. 

एक ऐसा समाज जिसकी सहनशीलता, दूसरों की गलतियों को क्षमा करने की खूबी और किसी सूरत में किसी कमजोर पर हिंसा न करने की प्रतिज्ञा पूरी दुनिया में मशहूर थी, वो आज बात-बात में उबल और उफन रहा है. 

उसके लिए गुस्सा और अपना गुरुर इतना अहम है कि दूसरों के स्वाभिमान को तो छोड़िए जान की भी कोई कीमत नहीं रही. 

किसी वक्त सहनशीलता शक्ति का परिचायक मानी जाती थी. आज सहन न करने को ताकत बताने का जरिया मान लिया गया है. 

बीते चार साल से तो मैं देख रहा हूं कि एक समाज के तौर पर हम लगातार उत्तेजना के चरम पर बने हुए हैं. 

इसकी शुरुआत अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से हुई. 

अन्ना अनशन पर बैठे और भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरा देश उबल पड़ा. 

फिर दिल्ली की सड़क पर एक असहाय के साथ चलती बस में हैवानियत की घटना हुई.

इस बार भी दिल्ली समेत पूरा देश उबल पड़ा. 

इसके बाद तो उत्तेजना, गुस्सा और उन्माद समाज का स्थायी भाव सा हो गया. 

समाज की अगुवाई करने वालों ने बदलाव की दुहाई देते हुए इस भाव को बदलने नहीं दिया. लोकसभा चुनाव खत्म हुए तो लगा कि चलो, लावा बह गया अब मन का ज्वालामुखी शांत हो जाएगा. 

लेकिन, नहीं. उन्माद, उत्तेजना और गुस्से की भट्टी में ईधन डालने वाले अब भी थके नहीं है. 

मैं फिक्रमंद हूं. ये स्थिति एक समाज के तौर पर हमारी पहचान के उलट है. 

हमारी पहचान तो विरोधी को भी सम्मान देने की रही है. हम वो समाज हैं, जिसने कभी गुरुर के लिए गुस्सा नहीं किया. 

हम जिन सर्वशक्तिमान भगवान को पूजते हैं, उनकी छवि को याद करें तो उनका सुदर्शन नहीं, बांसुरी ही हमें याद आती है. 

किसी शिशुपाल की गलतियां सौ की गिनती पार कर जाती हैं तो चक्र हाथ में आता जरुर है, लेकिन स्थाई तौर पर नहीं रहता. 

हमारे गुरु जब ज्ञान देते हैं तो कहते हैं, 'जिसने आपको क्रोधित कर दिया, उसने आपको पराजित कर दिया'. 

तो फिर हम पराजय को स्थाई भाव में बदलने को बेताब क्यों हैं? 

हम इस गुस्से की आग में किसे जलाना चाहते हैं ? अपने विरोधी को . अपनी क्षमाशीलता को या फिर एक समाज के तौर पर अपनी पहचान को?

सजा देने वाले से बड़ा माफ करने वाला होता है. अगर आप वास्तविकता में शक्तिशाली हैं तो माफ करने से आपकी ताकत और रुतबे में इजाफा ही होता है.गुजारिश है, माफ करने की खूबी को भुलाइये मत. 

अगर आप ये कर सके तो जब कभी आपको क्रोध आएगा तो वो शिव का क्रोध होगा. प्रलयंकारी. 

रोज़ उबलेंगे तो आपका गुस्सा आपका ही दुश्मन हो जाएगा.   

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

अगर करनी है चोरी

तो मत सुनना धार्मिक कथा 

चोरों को धार्मिक कथाएं नहीं सुननी चाहिए. 

बताते हैं कि किसी दौर में चोरों के गैंग में ये सबसे जरुरी नियम होता था. 

इसे लेकर एक कहावत भी बन गई 

'चोर सुने धरम के कथा'? 

यानी चोर कहीं धर्म की कथा सुनते हैं? 

कहावत कई बार सुनी थी. मतलब बहुत बाद में समझ आया. 

मतलब सीधा सा है. चोर अगर धर्म की कथा सुन लेगा तो फिर चोरी नहीं कर पाएगा. यानी अपने धंधे से ही मुंह मोड़ लेगा. 

भगवान वाल्मीकि के साथ ऐसा ही हुआ था. वो चोर नहीं डाकू थे. संतों से एक मुलाकात क्या हुई, ब्रह्म के समान हो गए. 

कोई अबोध पाप और पुण्य का अंतर नहीं जानता. वो जो सुनता है, उसी के आधार पर पाप और पुण्य की तस्वीर बनाता है. 


सुनकर कुछ कर गुजरने का जज्बा वीरगाथा काल की रचनाओं से भी जाहिर होता है. 

युद्ध में उतरने के पहले हर किसी को डर लगता है. लेकिन, अगर कानों में ऐसी कविता गूंजे जिसे सुनते ही खून खौल उठे, बाजू फड़कने लगे तो डर भला कहां ठहरेगा? 

ऐसी ही एक कविता का करिश्मा था कि शूरवीर महाराज पृथ्वीराज चौहान ने आंखें गंवाने के बाद भी चार बांस, चौबीस गज और आठ अंगुल की ऊंचाई पर रखे सिंहासन पर बैठे 'सुल्तान' को ऐसा सटीक तीर मारा कि उसकी आत्मा शरीर छोड़कर हमेशा के लिए चली गई. 

ऐसी कविताएं और कहानियां आज भी असर दिखाती हैं. 

वैद्यनाथ धाम जल चढ़ाने गए छोटे भाई निलेश ने ये तस्वीर भेजी है. कैप्शन लिखा है- आधुनिक श्रवण कुमार. 

सतयुग में श्रवण कुमार ने अपने अंधे मां-बाप को इसी तरह तीर्थ कराया था. 

इस नौजवान ने अगर श्रवण कुमार की कहानी नहीं सुनी होती तो शायद अपनी बूढ़ी मां को इस तरह से वैद्यनाथ धाम ले जाने का आइडिया भी नहीं आता.  

105 किलोमीटर पैदल चलना ही किसी तपस्या से कम नहीं. ऊपर से मां का वजन. 

मैंने किसी से ऐसा ही किस्सा सुना था. एक छोटी लड़की कंधे पर एक बच्चे को रखे तेज़ी से पहाड़ी चढ़े जा रही थी. पहाड़ी के ऊपर उसका घर था. उस पहाड़ी पर कई और लोग चढ़ाई कर रहे थे. उनमें से ज्यादातर खाली हाथ थे लेकिन फिर भी चढ़ते-चढ़ते हांफने लगे. 

वहीं उस छोटी लड़की के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी. किसी ने पूछा कि बेटी ये बोझ लेकर चढ़ती हो, थकती नहीं. बच्ची ने तपाक से जवाब दिया, 'थकूंगीं क्यों  ये बोझ नहीं मेरा भाई है'. 


इत्तेफाक की बात है. धर्म की राह दिखाने वाली एक कहानी का असर बड़े भाई कपिल शर्मा के किस्से में भी मिला. 

कपिल भाई भगवान दत्तात्रेय के भक्त हैं. 

भगवान दत्तात्रेय के भक्तों की एक परंपरा है. अगर कोई उनसे कुछ खाने या पीने के लिए मांगता है तो वो कभी मना नहीं करते. 

एक बार कपिल भाई वाराणसी गए. विश्व प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट पर थे. किसी ने खाने के लिए कुछ मांग लिया. अब श्मशान पर ये मांग कैसे पूरी होती. जैसे- तैसे उन्होंने व्यवस्था की. 

उसी वक्त संकल्प लिया और पास के सिंधिया घाट पर भंडारा शुरु हो गया. 

वाराणसी मोक्षदायिनी नगरी मानी जाती है. अनगिनत लोग आखिरी सांस लेने यहां पहुंचते हैं. इनमें से कुछ की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती. उनके संस्कार के बाद परिवार के सामने भोजन की समस्या रहती है. ये भंडारा ऐसे लोगों के लिए वरदान साबित हो रहा है. 

ये तमाम अच्छी बातें अच्छी कहानियों का नतीजा हैं. 

तभी तो बापू कहते थे, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो 

(स्पष्टीकरण: ये पोस्ट उनके लिए नहीं, जो चोरी को संसार का सबसे उत्तम काम मानते हैं. )

बुधवार, 19 अगस्त 2015

सीख लो मंतर

जाने कब सांप पकड़ना पड़ जाए

अन्ना जी गांधीवादी हैं. उनसे इस बारे में सलाह लेना दुस्साहस होगा.

लेकिन, उन भाइयों को मैं आगाह जरुर करना चाहता हूं, जिनका दिमाग, आंखें और हाथ बिना कुछ लिए दिए नहीं चलते.

'भाई साहब, अगर आपको ये आदत हो गई है कि आप सामने रखी फाइल को तब तक आगे नहीं बढ़ाते जब तक कि टेबल के नीचे से गांधी जी छपे हुए कागज न मिलें तो खास मंत्र सीख लीजिए'.

'सांप पकड़ने का मंतर'.

वरना लगता है कि आने वाले दिन में आपका काम नहीं चलने वाला.

ख़बर बस्ती की है. ये जिला सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक भले ही 'ए' और 'बी' कैटेगरी में न आता हो, लेकिन जनाब आप तो जानते ही हैं कि हिंदुस्तान में सोशल मीडिया की क्रांति हो गई है.

शहरों और गांवों  में सड़कें हों न हों, बिजली आती हो न आती हो, स्कूल कायदे से चलते हों कि नहीं लेकिन वहां फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्विटर धडल्ले से चलते हैं.

सोशल मीडिया के इन प्लेटफॉर्मों ने पूरी दुनिया को ऐसा तड़ित चालित तार बना दिया है जिसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक करंट पहुंचने में कोई वक्त ही नहीं लगता.
मेरी मंशा में खोट न देखिए.

मैं किसी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से नहीं जुड़ा हूं.

ये बात अलग है कि अस्सी फीसदी हिंदुस्तानियों की तरह मेरी खुद की स्लेट क्लीन है. मैं 'खाता' नहीं और इसके लिए मुझे किसी ग्रंथ की शपथ लेने की जरुरत नहीं. 


मेरे में बारे में तमाम लोग ऐसी गवाही खुद ही दे देते हैं.

वजह ये है कि एक तो मैं ऐसी किसी स्थिति में नहीं हूं कि मुझे कोई कुछ खिलाए. दूसरे, बचपन से अम्मा, बाबा, मां और पापा ने मन में ऐसे संस्कार भर दिए हैं कि इस लोक से ज्यादा चिंता परलोक की होती है.

सीसीटीवी कैद कर रहा हो या नहीं लेकिन हमेशा ये लगता है कि वो ऊपर बैठा सब देख रहा है. हर नेकी और हर बदी का हिसाब रखता जा रहा है.

लेकिन, मैं यहां साफ करता चलूं कि न खाने का मतलब ये नहीं कि मैंने किसी को 'खिलाया' नहीं. 


ट्रेन से लेकर, अस्पताल से लेकर, कॉलेज से लेकर, सरकारी दफ्तर तक असुविधा से बचने के लिए चाहे अनचाहे 'सुविधा शुल्क' तो देना ही पड़ता है.

सरकारी महकमों से रिटायर होने वालों से पूछ लीजिए, बो बता देंगे, अपने ही डिपार्टमेंट से अपना ही फंड, ग्रेच्युटी और पेंशन पाने के लिए अगर 'सुविधा शुल्क' न दिया तो काम नहीं होता. 


खैर जो बात आप जानते हैं, उसे दोहराने से क्या फायदा.

फायदे की बात तो मैं उन भाइयों को बताना चाहता हूं जो बिना 'खाए' कुछ करने को तैयार नहीं होते कि भाई साहब बस्ती में हुआ यूं कि रिश्वत मांगे जाने से कुछ किसान इस कदर नाराज़ हो गए कि उन्होंने सांप पकड़े और रिश्वत के बदले उन साहब के कमरे में छोड़ दिए.

सांप भी एक दो नहीं पूरे चालीस.

तो आप समझ लीजिए, वो बस्ती आपकी 'बस्ती' से भले ही दूर हो लेकिन क्या आप फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सअप और इंटरनेट को रोक सकते हैं? 


नहीं न. तो फिर समझिए कि अगर आपने सांप पकड़ने का मंतर मारना नहीं सीखा तो आपकी भी खैर नहीं.

दिल समझाने को आप कह सकते हैं कि गांव के किसान तो सांप पकड़ सकते हैं लेकिन शहर के लोगों में न तो ये हिम्मत है और न हुनर.

तो भाई साहब ये जान लीजिए कि यहां भी सपेरे बहुत घूमते हैं. दो-दो रुपये में नाग देवता के दर्शन कराते हैं. उनकी हथेली पर अगर इकट्ठे दो सौ रुपये रख दिए जाएं तो सोचिए वो क्या कर सकते हैं.

फिर आप तो हैं ही. सांप को देखकर घिग्घी बंध जाए तो आपको भी अंटी ढीली करने में कितनी देर लगेगी?

तो भाई साहब बात बिगड़े उसके पहले सीख ही लीजिए, सांप को वश में करने का मंतर. क्योंकि 'खाना' तो आपसे छूटेगा नहीं.

ये मंतर नेता भी सीख लें तो अच्छा.

तमाम नेताओं को हमने कहते सुना है, ये सांपनाथ हैं वो नागनाथ. क्यों बहन जी? सही कहा न?

नेताओं की बात हो ही गई तो एक नज़र उस चर्चा पर भी जो हर किसी का ध्यान खींच रही है. जी हां, मैं बिहार की बात कर रहा हूं. राजनीति का असल दंगल तो बिहार की जमीन पर  हो रहा है.

लोकसभा चुनाव के मैदान में तो मुक़ाबला एक तरफा हो गया था. लेकिन यहां ज़ोर बराबरी का चल रहा है.

एक पहलवान एक दांव लगाता है और देखने वालों को लगता है कि कुश्ती हो गई उसके नाम. तभी दूसरा ऐसी काट मारता है कि लगता है कि विरोधी को चित ही कर देगा. 


दम साधकर देखिए. ये याद रह जाने वाला दंगल है.

राजनीति और नेताओं की बातों के बीच याद उस महान शख्स की भी जिसे पूरी दुनिया दिल से नेताजी कहती है.

महान स्वाधीनता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस. 


1945 में 18 अगस्त को जापान में हुई विमान दुर्घटना में नेताजी के मौत की ख़बर आई थी. सच क्या था, वो जाने कब देश के सामने आए?

जय हिंद का अमर नारा देने वाले नेताजी को शतशत नमन. जय हिंद

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

नंबर का खेल समझिए साहेब

दुनिया फंसेगी आंकड़ों का जाल तो बिछाइये 


आज बात एक सवाल से शुरु करते हैं. 

क्या आपको आंकड़ों से खेलना आता है ? अगर नहीं तो जल्दी सीख लीजिए. 

21 वीं सदी में कामयाबी के तिलिस्म का ताला आंकड़ों की चाबी से ही खुलता है. 

लेकिन, आपको ध्यान रखना होगा कि आपके पास सही चाबी है. 

नहीं तो ज़िंदगी ताले खोलने की कोशिश में ही गुजर जाएगी.  

जो आंकड़ों को महज भरम मानते हैं, उनसे मैं कहूंगा अपनी सोच को थोड़ा सा 'मॉडिफाई' कर लें. 

आंकड़े भरम नहीं इंद्रजाल सरीखे होते हैं, जो पूरे जमाने को भरमा देते हैं. या कहें कि दीवाना बना देते हैं. 

चलिए मैं एक और सवाल पूछता हूं. 

नितिन फायर प्रोटेक्शन इंडस्ट्रीज का नाम सुना था? मैंने कल तक नहीं सुना था. सुनने की वजह बना एक दिलचस्प आंकड़ा. 

कंपनी के शेयरों में अमिताभ बच्चन ने निवेश किया और उनमें दस फ़ीसदी का उछाल आ गया. 

अगर शेयर इतनी तेज़ी से छलांग न लगाते तो अमिताभ का निवेश भी ख़बर नहीं बनता. 

बात अमिताभ की निकली है तो बॉलीवुड का हाल भी देखते चलें. 

एक दौर वो था, जब किसी आने वाली फिल्म की कहानी, संगीत और दूसरे आर्टिस्टिक पहलू पर बात होती थी लेकिन अब सवाल सिर्फ एक होता है. क्या ये फिल्म 100 करोड़ के क्लब में शामिल होगी?

क्रिकेट तो खैर आंकड़ों की पिच पर ही खेला जाता है. 

ये आंकड़े ही खेल की दिलचस्पी बढ़ाते हैं और फैन्स को मैदान और टीवी के सामने तक खींच कर लाते हैं. 

अब मैच की कामयाबी टीआरपी यानी उस आंकड़े से तय होती है कि टीवी पर उसे कितने लोगों ने देखा. 

भारत और श्रीलंका की बोरिंग समझी जा रही टेस्ट सीरीज में भी आंकड़ों ने ही दिलचस्पी जगाई. 

सीरीज़ शुरु होने के पहले बताया गया कि भारत ने 22 साल से श्रीलंका में टेस्ट सीरीज़ नहीं जीती है और विराट कोहली की जोशीली युवा टीम ऐसा कर सकती है. 

ये बात अलग है कि गॉल में खेले गए पहले टेस्ट मैच में इस टीम ने कुल्हाड़ी पर पैर मार लिया. 

और तो और, आंकड़े न हों तो घोटालों की 'गरिमा' भी समझ में नहीं आती. 

मसलन दो हज़ार करोड़ का घोटाला. सुनते ही लगता है, हैरान होकर पूछें, 'भैये बताओ क्या लूट मचाई है'? किसी चौपाल पर कोई पूछ भी सकता है, 'बताओ तो जी, कित्ते ज़ीरो लगिंगे दो हज़ार करोड़ में?'

इन आंकड़ों के दम पर ही पूर्व सीएजी विनोद राय का नाम बच्चे-बच्चे को याद हो गया. अब उस कुर्सी पर शर्मा जी बैठे हैं, लेकिन किसे पता? 

आंकड़ों का ये खेल इमेज बिल्डिंग में खासा मददगार साबित हो सकता है. 

क्या आपको पता है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कितने घंटे सोते थे और कितने घंटे काम करते थे?

मुझे नहीं पता. लेकिन मोदी जी के बारे में पता है. वो बीस घंटे काम करते हैं और चार घंटे सोते हैं. 

मुझे ये भी पता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने 15 मिनट की भी छुट्टी नहीं ली. 

और, अब थोड़ी देर पहले ये भी पता चला है कि वो यूएई से एक भारी-भरकम आंकड़ा लेकर लौट रहे हैं 

मोदी जी लेकर क्या गए थे, पता नहीं लेकिन साढ़े चार लाख करोड़ के निवेश का भरोसा लेकर आ रहे हैं. 

ये आंकड़ा इतना बड़ा है कि अगर आप ज़ीरो लगाने या गिनने को कह दें तो मुझे चक्कर आ सकते हैं. 

और अब आज के लिए मेरा आखिर सवाल कि इस रकम का होगा क्या?  

क्या इससे आपकी ज़िंदगी में बदलाव आएगा? जरुर आ सकता है, बशर्ते आप आंकड़ों से खेलना सीख पाएं

और, चलते-चलते आंकड़ों से जुड़ा एक किस्सा. 

कुछ दिन पहले बिहार के एक सांसद से मुलाकात हुई. बड़े दिलचस्प और ईमानदार सांसद हैं. बातें भी ईमानदारी से करते हैं. बात रेलवे की हो रही थी. 

उन्होंने कहा, 'हम तो अपनी जानते हैं. पहले हमारे यहां के लिए मगध नंबर एक गाड़ी थी. वक्त पर चलती थी. फिर संपूर्ण क्रांति आई. मगध पिटने लगी. संपूर्ण क्रांति नंबर वन बन गई और वक्त पर पहुंचाने की गारंटी देने  लगी. फिर, राजधानी सातों दिन के लिए मिल गई. अब राजधानी नंबर वन हो गई'. 

मैंने पूछा, 'संपूर्ण क्रांति का क्या हुआ'? 

वो बोले, 'होना क्या था? पिटने लगी. हमारे यहां तो कोई एक ही नंबर वन रह सकता है'. 

ज़रा नंबर का खेल समझिए, साहब 

सोमवार, 17 अगस्त 2015

हवा बदल सकती है

लेकिन फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता 

बाल्की का वो एड अद्भुत था. 

काका की मौत के कुछ दिन पहले ही टीवी पर दिखना शुरु हुआ था.

दुनिया ये भूली नहीं थी कि काका यानी राजेश खन्ना हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे लेकिन उन दिनों वो किस हाल में थे, किसी को नहीं पता था. न फिक्र थी. 

अचानक वो विज्ञापन आया और छा गया. हरेक के दिलो दिमाग पे. 

वो फैन्स चौंक पड़े, जिन्होंने सत्तर के दशक में राजेश खन्ना के चमकते चेहरे, अदा के साथ गर्दन को झटका देते हुए आंख बंद करने के अंदाज पर निसार होकर उन्हें सुपरस्टार की पदवी दी थी. 

कांपती आवाज. झुकी हुई पीठ. सफेद दाढ़ी शायद पिचके हुए गालों को छुपाने के लिए रखी गई थी, लेकिन वो ऐसा करने में नाकाम थी. 

आंख पर चश्मे था. लेकिन देखने वाले ये परखने से नहीं चूके कि काका की आंखों में वही रूमानियत बाकी है. 

सुनहरे दिनों की याद दिलाने वाली कोई और बात बाकी थी तो वो था सुपरस्टार होने का गुरुर. 

पैंतीस सैकेंड के एड में जब राजेश खन्ना इठला के कहते हैं 

'हवा बदल सकती है लेकिन फैन्स हमेशा मेरे रहेंगे' 

'बाबू मोशाय, मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता' 

तो शायद ही किसी को लगा हो कि वो गलत दावा कर रहे हैं. 

आपको हैरत हो सकती है, भला आज में इस एड को क्यों याद कर रहा हूं. क्यों उसकी बात कर रहा हूं. बताता हूं, 
इसकी वजह हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. 

यूएई के दौर पर गए मोदी के लिए अबू धाबी में वही दीवानगी दिखी, जो राजेश खन्ना जैसे बॉलीवुड के गिने-चुन सुपरस्टार्स को नसीब होती है. राजनीति में तो उसकी कल्पना बेमानी है. 

उनका शेख जायद मस्जिद पहुंचना कई मामलों में अनूठी बात थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी पहली बार एक मस्जिद में दाखिल हुए. 

लेकिन, इससे भी बड़ा अजूबा था, वहां मौजूद लोगों का 'मोदी- मोदी, मोदी-मोदी' कहते हुए प्रधानमंत्री को चीयर करना. हमने ये भारत में देखा है. अमेरिका में देखा है. ऑस्ट्रेलिया में देखा है और अब यूएई में देख रहे हैं.

मोदी का यूएई दौरा तय होने के बाद ज्यादातर लोग जान गए हैं कि वहां करीब 26 लाख हिंदुस्तानी रहते हैं. 

विरोधी कह सकते हैं कि ये इवेंट मैनेजमेंट का कमाल है. 

लेकिन, अबू धाबी के चंद एक लोग, जिनसे मेरी बात हुई, वो ऐसा नहीं मानते. 

उन्हें मोदी के दौरे के इर्द-गिर्द एक अजब सा उत्साह दिख रहा है. 

अब बात हवा बदलने की भी कर लेते हैं. घर में अब मोदी के लिए वो माहौल नहीं दिखता, जिसके दम पर उन्होंने लोकसभा का चुनाव जीता था. 

उनकी सरकार कई सवालों के घेरे में है. मोदी से लोगों का मोह भले ही भंग न हुआ हो, लेकिन उनको लेकर दिखने वाली दीवानगी जरुर घटी है. 

संसद के मानसून सत्र में विपक्ष के हंगामे में कार्यवाही न चल सकी तो तमाम लोगों ने मोदी की भूमिका पर भी सवाल उठाए. 

विपक्ष को तो खैर उनके हर कदम में खोट नज़र आता ही है. फिल्म हो या फिर राजनीति जब हवा बदलने लगती है तो पैरों के नीचे की जमीन संभालना मुश्किल होता है. फैन्स तो खैर सबसे पहले साथ छोड़ते हैं. 

और, जो बदलते हालात के बाद भी फैन्स को तिल भर भी नहीं हिलने दे. अपने तिलिस्म में बांधे रखे. वो सदाबहार सुपरस्टार होता है. काका की तरह. 

पहले लाल किले से बच्चों के बीच की तस्वीरें और अब यूएई का माहौल गवाही देता है कि मोदी ने भी स्टारडम का वो फॉर्मूला खोज लिया लगता है, जहां वो हर विरोधी से कह सकते हैं,  

'हवा बदल सकती है लेकिन फैन्स हमेशा मेरे रहेंगे' 

'मित्रों, मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता' 

रविवार, 16 अगस्त 2015

... हार तो ध्रुव सत्य है

लेकिन ज़रा किशोर दा को भी तो सुन लो 


इसे स्वतंत्रता दिवस की वजह से बना 'उन्माद' कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. 

मेरे साथ ऐसा अक्सर होता है. 

जब तक पास में आखिरी गोली होती है, फौजी हार नहीं मानता. 

उसी तरह मैं भी टीम इंडिया की आखिरी जोड़ी के क्रीज पर होने तक ये मानने को तैयार नहीं होता कि हम मैच हार जाएंगे. 

मैं क्रिकेटर नहीं हूं. बरसों पहले ये भी जान गया हूं कि भारत के नाम से जो टीम खेलती है, दरअसल वो हिंदुस्तान की सरकारी टीम नहीं है. वो बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया यानी बीसीसीआई की टीम है और हमारे देश के प्रतिनिधित्व का दावा सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए करती है.  

बीसीसीआई को जब फैन्स के जुनून को बाज़ार में भुनाकर रुपया और डॉलर जुटाना होता है, वो भारत की प्रतिनिधि संस्था बन जाती है. जब हित आड़े आते हैं तो वो प्राइवेट ब़ॉडी बनकर तमाम जिम्मेदारियों से परे हो जाती है. 

मैंने क्रिकेट और क्रिकेटरों के मैच फिक्सिंग की कीचड़ में लोटने के किस्से भी सुने हैं. ऐसे किस्से जिन्हें सुनने के बाद जिन्हें आप खेल के बड़े देवता का दर्जा देते हुए पूजते हैं, उन्हें शैतान बताते हुए पत्थर भले ही न उठाएं लेकिन मुंह जरुर फेर लेंगे. 

बीसीसीआई की राजनीति में खेल और खिलाड़ियों को पिसते, स्वाभिमान से समझौते करते और मूक-बधिरों की तरह बर्ताव करते भी देखा है. 

फिर भी , क्रिकेट नाम के खेल और हिंदुस्तान के नाम खेलती टीम में जाने वो कौन सी कशिश है, जो मुझे आखिरी विकेट उड़ने या फिर आखिरी गेंद फिंकने तक ये कहने पर मजबूर कराती है कि 'नहीं, हम अब भी जीत सकते हैं'. 

टीवी खोला तो टीम इंडिया का स्कोर था आठ विकेट पर 88 रन. श्रीलंका ने जीत के लिए 176 रन का टार्गेट दिया था. पहली पारी में 375 रन बनाने वाली टीम दूसरी पारी में पौने दो सौ रन भी नहीं बना सकेगी, ये सोचना मुश्किल था. मैं ही नहीं तमाम लोग माने बैठे थे कि 15 अगस्त को विराट कोहली के जांबाज सिपाही क्रिकेट मैदान में उतरेंगे. अपने बल्ले को तलवार बनाएंगे. ये मार के वो मार मचाएंगे. मैदान मार के आज़ादी के जश्न की रौनक बढ़ा देंगे. 


ये तब की बात थी, जबकि भारत ने दूसरी पारी शुरु ही की थी. लेकिन, मैं तो महज अस्सी रन पर आठ विकेट गिरने के बाद भी शर्त लगाने को तैयार था कि 'नहीं हम जीतेंगे'. घर पर पूजा कराने आए पंडित जी को भी मैंने जाने नहीं दिया. कहा, 'बैठिए पंडित जी मिलके मैच जिताते हैं'. 

मुझे और पंडित जी को बैटिंग नहीं करनी थी. टीवी के सामने बैठकर चीयर भी करें तो क्या फायदा. न आवाज पिच खड़े रहाणे को सुनाई देगी और न ही अमित मिश्रा को. 

पंडित जी समेत सबने कहा, 'अब ये क्या जीतेंगे'. तो मेरे पास इसकी काट के भी तर्क थे. 

मैंने कहा, 'रहाणे को क्या समझ रखा है. इसने टेस्ट मैचों में तीन सेंचुरी जमाई हैं. पहली न्यूज़ीलैंड में, दूसरी इंग्लैंड में और तीसरी ऑस्ट्रेलिया में. दक्षिण अफ्रीका में भी इसका औसत 70 का रहा है. फिर ये तो लंका है. स्पिनरों को तो ये सपने भी सूंत दे. और, अमित मिश्रा, उसे भी किसी बल्लेबाज से कम मत समझो'. 

क्रिकेट में आंकड़ों का अपना आकर्षण है, लेकिन, हिंदुस्तान में इस खेल को देखने वाले इतनी समझ रखते हैं कि वो नंबरों की भूल भुलैया में दाखिल ही नहीं होते. 

अपने लोगों की एक और बड़ी खूबी है. उन्होंने श्रीमद्भगवदगीता पढ़ी हो या नहीं. उसका व्यावहारिक ज्ञान जरुर रखते हैं. यानी हादसा होने के पहले मोह त्याग देते हैं. यानी मान लेते हैं कि मृत्यु तो (यहां हार पढ़ें) ध्रुव सत्य है. आंसू क्या बहाना? 

मैं कहना ये चाहता हूं कि वो टीम के हारने के पहले ही विरोधी खेमे में खड़े हो जाते हैं. 

'ये क्या जीतेंगे. इनका तो यही हाल रहा है. ये आईपीएल के मतलब के ही हैं. मैं तो इसीलिए मैच नहीं देखता. लंका छोड़ो अब तो ये बांग्लादेश को भी नहीं हरा सकते'. 

ऐसी तमाम बातें वही लोग करना शुरु कर देते हैं, जो इसी टीम की एक जीत पर पटाखे फोड़ने और ढोल बजाने को तैयार रहते हैं. मेरे साथ बैठकर गॉल टेस्ट के चौथे दिन का खेल देखने वालों में भी ऐसे मिजाज वालों की कमी नहीं थी. 

हालांकि, उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा. लेकिन मैं जब रहाणे और मिश्रा की बल्लेबाजी की खूबियों के बारे में दलीलें दिए जा रहा था और ये बताने की कोशिश में लगा था कि 'उम्मीद मत छोड़ो. ये दोनों भी चाहें तो मैच जिता सकते हैं. फिर क्रिकेट तो चमत्कारों का ही खेल है'. 

उनमें से ज्यादातर को मैंने इस अंदाज में मुस्कुराते देखा कि मानो कह रहे हों, 'बीस मिनट रुक जा, खुद पता चल जाएगा. रहाणे क्या करता है. अमित मिश्रा क्या करता है. जब आठ कुछ नहीं कर सके तो ये क्या खाक करेंगे?'
 
पिछले तमाम मौकों की तरह इस बार भी मेरी कल्पनाओं का महल भरभराकर गिर गया. जो मुस्कुराते हुए मेरी दलील का मजाक उड़ा रहे थे उनकी आंखों में दिखती शरारत कुछ और बढ़ गई. मैंने मान लिया जो रोज हो जाए वो 'चमत्कार' क्या. 

कभी और सही लेकिन अपने दबंग चमत्कार करेंगे जरुर. मैं उन्हें हर दिन चमत्कार करते देखना चाहता हूं तो सिर्फ इसलिए कि हिंदुस्तान के नाम पर खेलने वाली टीम की हार की कल्पना मुझसे हो ही नहीं सकती. तभी तो शर्त लगा के कहता हूं कि आज नहीं तो आगे जीतेंगे. 

फिर किशोर दा भी तो कह गए हैं. जिंदगी की यही रीत है, हार के बाद ही जीत है. 

शनिवार, 15 अगस्त 2015

'मैं हिंदुस्तान का सिपाही बनना चाहता हूं'

एक बच्चे का सपना और आपका कर्तव्य 

पांच बरस के भांजे ने मेरी गोद में बैठे-बैठे अचानक सवाल दागा. 

'मामा, पता है मैं क्या बनना चाहता हूं'

मैंने उसकी आंखों में देखा. वो आंखें चमक रही थीं. 

उसने खुद ही जवाब दिया, 'एयरफोर्स का पायलट.'

उसके हाथ में मोबाइल था. 

मोबाइल में फाइटर प्लेन का गेम उसका फेवरेट है. 

गेम ऑन था. उसने एरोप्लेन को ऊपर नीचे करना शुरु किया. 

खेल चलता रहा और वो अपना सपना मुझसे साझा करता गया. 

'ऐसे ही प्लेन उड़ाऊंगा. करतब करूंगा. उल्टा-सीधा, उल्टा-सीधा घुमाऊंगा. कलाबाजी करुंगा'. 

'इंडिया गेट के बीच से निकालूंगा'. 

इतना कहके वो रुका. 

मुझसे सवाल किया. 'क्या इंडिया गेट के बीच से निकल पाएगा प्लेन'?

मैंने गरदन हिलाई. तो खुद ही बोला, 'नहीं ऊपर से निकालूंगा'. 

उसकी कहानी मुझे पीछे, बहुत पीछे ले गई. 


बचपन में मैं भी सेना से जुड़ना चाहता था. एयरफोर्स नहीं आर्मी मेरी पसंद थी. 

बाद में पता चला मेरे पापा ने तो एनडीए का एक्ज़ाम भी पास किया था, लेकिन, सेना में नहीं जा सके. 

यानी सेना में शरीक होने का सपना तीन पीढ़ी पुराना है. 

मेरा एक और भांजा जो करीब 12 साल का है, वो भी सेना में जाना चाहता है. 

बचपन, उम्र का वो पड़ाव होता है, जब न दिल में मिलावट होती है, न सपनों में और न ही इरादों में. 

इरादा एक ही होता है, देश के लिए जीने और देश पर मर मिटने का. 

मैंने सुना है, अपने पापा से और कभी कभार चाचा से भी, मेरे बाबा आज़ादी की लड़ाई के सिपाही थे. 

देश को आज़ादी मिलने के बाद उन्होंने कभी पेंशन नहीं ली. उन्हें जरुरत भी नहीं थी. 

मैंने भी उनसे आज़ादी की लड़ाई की कई कहानियां सुनीं. उनमें कुछ कहानियां धुंधली-धुंधली सी याद हैं. 

वो ऐसा दौर था जब हर हिंदुस्तानी नौजवान सिपाही था. फौज का नहीं, आज़ादी की लड़ाई का. 

कई बार दिल कहता है, अगर हम उस दौर में होते तो क्या करते?

डरकर घर बैठते या फिर आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा होते. 

लड़ते तो हम आज भी हैं. हालात से. सिस्टम से. नाइंसाफियों से. तकदीर से. 

कहने को हम आज़ाद हैं लेकिन कितने आज़ाद? 

सवाल पेचीदा है. इसे लेकर हर किसी का जवाब अलग हो सकता है. 

मुझे लगता है कि जब देश आज़ाद नहीं था तब लोगों के पास अपने हित कुर्बान करने की वजह रही होगी. 

देश की बातें तो हम अब भी करते हैं लेकिन कुर्बानी बात शायद ही किसी को अच्छी लगती हो. 

कुर्बानी सिर्फ जान की नहीं होती. सपनों की भी होती है. स्वार्थ की भी होती है. 

और, जब आप देश के लिए लड़ने को सेना में जाने का फ़ैसला करते हैं तो बहुत कुछ कुर्बान करते हैं. 

हर सिक्के के दो पहलू हैं. देखने वाले ऐसा भी देख लेते हैं कि सेना में जाने वालों को कितने फायदे मिलते हैं. 

मसलन, नौकरी की गारंटी होती है. सुविधाओं की गारंटी होती है. ताउम्र पेंशन की गारंटी होती है. समाज में रौब और इज्जत की गारंटी होती है. 

लेकिन, जान? ऐसी गारंटियों पर कितने लोग जान दांव पर लगाएंगे? 

सिर्फ वो जो सरफ़रोश हैं. जिनके अंदर देश के लिए मरने का जुनून है. जो उस आज़ादी की हिफाजत करने को 
बेताब रहते हैं,जो लाखों-लाख स्वाधीनता सैनानियों ने अपना पसीना और खून बहाकर हासिल की थी. 

और, जब ऐसे सरफरोश आज़ाद हिंदुस्तान की राजधानी के जंतर-मंतर पर अपनी मांगों के लिए दो महीने तक धरना देते हैं और आज़ादी की सालगिरह के ठीक पहले उन्हें वहां से हटाने का फरमान सुना दिया जाता है तो दुख होता है.

अच्छा है कि वक्त रहते दिल्ली पुलिस ने अपना फरमान वापस ले लिया. अच्छा हो कि सरकार भी उनकी मांगों पर सुनवाई करे और उन्हें पूरा कर दे. 

क्योंकि फ़ौजी वो तबका है, जो आजादी मिलने के बाद भी देश के लिए लगातार लड़ता रहा है और लड़ता रहेगा. 

इन्हीं फौजियों को देखकर मेरे भांजे हिंदुस्तानी सेना का हिस्सा बनना चाहते हैं. आर्मी का भी और एयरफोर्स का भी. 

छोटे भांजे को तो पैसे की कीमत का भी अंदाजा नहीं. उसे तो एयरफोर्स की वर्दी लुभाती है. फाइटर प्लेन अपनी तरफ खींचते हैं. 

देश के दुश्मनों को मारने की कल्पना रोमांचित कर देती है. इस कल्पना और उसके सपने को बचाना होगा. तभी हमारा नियति से मिलन होगा. 

स्वाधीनता दिवस की ढेरों शुभकामनाएं, देश पर जान देने वाले हर शहीद को सलाम. आज़ादी के लिए लड़े हर वीर को सलाम. भारतीय सेना को सलाम. तिरंगे झंडे को सलाम. जय हिंद. जय भारत. 

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

कहानी कामयाबी की

सफलता न मिले तो पैसे वापस 

वैधानिक चेतावनी पहले दे देता हूं. 

मैं कोई उपदेशक नहीं हूं. गाइड नहीं हूं. मैनेजमेंट गुरु नहीं हूं. 

सिर्फ अनुभव के आधार पर एक जानकारी बांटना चाहता हूं. आखिर हमने रायशुमारी के लिए ही तो ये मंच बनाया है. ये बात अलग है कि अभी राय एकतरफा है. 

यानि, बातें सिर्फ मेरी तरफ से ही होती हैं. चिंटू जी या निलेश जैसे एक- दो दोस्त ही इतना वक्त निकाल पाते हैं कि मेरे कहे पर जो सोचते हैं, अपनी राय रख देते हैं. 

हालांकि,आप जवाब दे या न दें, मेरे लिए इतना ही काफी है कि मेरे किस्से पढ़ने के लिए अपना कीमती वक्त निकाल लेते हैं. 

आज जो बात करनी है, उसे करते वक्त थोड़ा डर भी लग रहा है. डर इसलिए कि महीना सावन का है. शिव का है. फिर भी कहानी सुनाने की हिम्मत जुटाई तो सिर्फ इसलिए कि महादेव ही हैं, जो डर के आगे जीत का आशीर्वाद देते हैं. मतलब कि मुझ जैसे डरपोकों को 'अभय' बना देते हैं. 

कहानी शंकर भगवान की है लेकिन उसमें रहस्य कामयाबी का छुपा है. 

कामयाबी के लिए सबसे जरुरी क्या है? 

टैलेंट, मेहनत, किस्मत या फिर किसी की मेहरबानी? 

इस दमघोंटू, गलाकाटू मुकाबले के दौर में हर किसी के पास कायमाबी के अपने फंडे हैं. 

जो कामयाब हैं वो खुद को ही 'फॉर्मूला' मान लेते हैं. 

जो नाकाम हैं, उनके पास होते हैं बहाने. 

मसलन, कम तो हम भी नहीं, बस हम पर .... नहीं होती. 

यानि वो कहना चाहते हैं कि सफलता.... पर टिकी है. 

मैं तो बाबा तुलसीदास के फंडे पर भरोसा करता हूं. 

'हानि-लाभ  जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ'   

ये विधि संविधान निर्माताओं या सांसदों का बनाया कानून नहीं. इसे तो विधाता ने रचा है. 

बस मेरा सवाल ये है कि विधाता हमें कामयाब होते क्यों नहीं देखना चाहेगा? 

मेरे भगवान ने कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े होकर स्पष्ट घोषणा की थी 

'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि'

मतलब आप जानते हैं. कर्म करो, फल की इच्छा मत करो. 

कर्म के जरिए कामयाबी का फल कैसे मिलता है, शिव से जुड़ी कहानी यही बताती है. 

ये कहानी काल्पनिक है या सच मुझे नहीं पता. ये यकीन जरुर है कि आप में से ज्यादातर ने इसे सुना या पढ़ा जरुर होगा. 

ये कहानी एक गांव की है. एक उजाड़ सा गांव. उस गांव में गिने-चुने घर थे. 

गांव के बाहर एक वीरान सा शिव मंदिर था. मंदिर कब बना था किसी को नहीं पता था. मंदिर में ज्यादा लोग आते भी नहीं थे. 

गांव की सरहद से दो कोस दूर होने की वजह से हर दिन मंदिर जाना अपने आप में एक तपस्या थी. छोटे गांव में आबादी ज्यादा नहीं थी तो आने जाने के साधन भी कम थे. मंदिर जाना हो तो पदयात्रा ही करनी होती थी. 

गांव के आस्थावान शिवरात्रि या सावन के सोमवार जैसे मौकों पर ही मंदिर का रुख करते थे. 

गांव के दो लोग ऐसे थे जो हर रोज मंदिर जाते थे. 

इनमें से एक की गांव में बड़ी इज्जत थी. उसे गांव का सबसे आस्थावान व्यक्ति माना जाता था. शिवलिंग पर दूध मिला जल चढ़ाए बिना वो खाना तो दूर गले के नीचे पानी भी नहीं उतरने देता था. 

दूसरे आदमी को गांव में कोई पसंद नहीं करता था. एक हादसे में उसका परिवार उजड़ गया था. तब से वो भगवान से रुठ गया था. गुस्सा भी ऐसा वैसा नहीं था. इस कदर था कि वो रोज शिव मंदिर जाता. अपने पांव से जूता निकालता. हाथ में लेता और शिवलिंग पर दे दनादन.. दे दनादन करने लगता. 

ये क्रम तब तक चलता जब तक कि वो थककर पस्त नहीं हो जाता. 

जब इस सिलसिले की शुरुआत हुई, तब गांव वालों ने इसे हादसे का असर माना. 

शोक के दिन बीते तो गांव में सभा हुई. सबने उसे समझाया कि हादसे को भूल जाओ. जिंदगी में आगे बढ़ो. क्या भगवान तुम्हारे परिवार को बचाने आते. तुम्हारी किस्मत में यही लिखा था. 

भगवान तो अदृश्य शक्ति है. वो ताकत देता है. मदद तो तुम्हें अपनी खुद ही करनी होती है. तुम्हारा परिवार नहीं बचा तो ये तुम्हारी गलती है. तुम इसके लिए भगवान को कैसे कुसूरवार ठहरा सकते हो. 

तुम्हें गुस्सा था. गम था. तो हम अब तक चुप रहे. अब बहुत हो चुका है. या तो गांव छोड़कर चले जाओ. या फिर गांव की मर्यादा का ध्यान रखो. 

तुम शिवलिंग पर जूते बरसाते हो और चोट हमें लगती है. आगे से ऐसा मत करना. 

पंचायत उठी. सोचा मामला सुलझ जाएगा. लेकिन, वो दिलजला कहां मानने वाला था. 

अगली सुबह फिर मंदिर पहुंच गया. उतारा जूता और शुरु हो गया. दे दनादन. दे दनादन. 

भक्त महाराज भी मंदिर में थे. उन्होंने गांव आकर किस्सा बाकी लोगों को बयां किया. उसके दुस्साहस को बताते वक्त उनके आंसू बह रहे थे. 

गांव के भक्तराज ने एलान कर दिया, 'अगर समस्या का समाधान नहीं हुआ तो मैं अन्न जल त्याग दूंगा'. 

कुछ आंसुओं का असर, कुछ भक्तराज की धमकी का प्रभाव और कुछ भगवान के अपमान की पीडा. गांव के सारे मुसटंडे नौजवान हाथ में लाठियां लिए मंदिर की तरफ दौड़ लिए. 

भगवान पर जूता बरसाने वाले को पकड़ा और धुलाई शुरु कर दी. 

तब तक मारते रहे जब तक कि वो अधमरा नहीं हो गया. 

पीटने वालों ने सोचा मामला खत्म हो गया. 

लेकिन ये कहानी तो किसी और मोड पर जानी थी. 

भगवान की जूतों से आरती करने वाले को न मानना था, न वो माना. 

गांव वाले उसे पीटते गए और वो भगवान से हिसाब चुकाता गया. 

न उसने गांव छोड़ा. न मंदिर जाना छोड़ा. न जूते बरसाना छोड़ा. 

एक दिन गांव में आफत आ गई. शाम से तेज़ बारिश शुरु हो गई. ऐसी बारिश मानो प्रलय आ गई हो. मोटी-मोटी बूंदे. बादलों की तेज़ आवाज और कड़कड़ाती बिजली. रात घिरने लगी तो बारिश तेज़ होने लगी. गांव की गलियां और सड़कें नदी बन गईं. घरों में पानी घुसने लगा. 

लोगों ने प्रार्थना शुरु कर दी. भक्तराज का घर टीले पर बना था. पूरा गांव जैसे तैसे उसी में समा गया. घंटा बीता, दो घंटे बीते, रात बीतने को आई लेकिन बारिश नहीं रुकी. आधा गांव डूब सा गया. 

आफत में घिरे लोगों ने मंदिर में जूते बरसाने वाले शख्स को कोसना शुरु कर दिया. गांववालों का कहना था कि उसकी गलती की सज़ा पूरे गांव को मिल रही है. 

सुबह होने पर भी बारिश बंद नहीं हुई. भक्तराज के घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. पक्का मकान था. अंदर चूल्हा जला और गांव के लोगों के लिए चाय नाश्ता तैयार होने लगा. आखिर भूखे पेट कोई भगवान से बारिश बंद होने की प्रार्थना करे भी तो कैसे?

फिक्र थी तो सिर्फ भक्तराज की. वो तो भगवान को जल चढ़ाए बिना पानी तक नहीं पीते. दोपहर तक तो भक्तराज पानी, चाय नाश्ते का आग्रह ठुकराते गए. उम्मीद थी बारिश बंद हो जाएगी. पानी उतरेगा तो जैसे तैसे मंदिर पहुंच ही जाएंगे. दोपहर बाद तक बारिश हल्की नहीं हुई तो हिम्मत जवाब देने लगी. 

चेहरे से हवाई उडने लगी. बारिश बंद होने से ज्यादा चिंता ये सताने लगी कि जाने कब तक कुछ खाए पिए बिना रहना होगा. 

पत्नी ने ताड़ लिया. पतिव्रता नारी व्रत का तोड़ निकालने लगी. 

कहा,  'भगवान को जल चढ़ाने की चिंता क्यों करते हो. आज तो स्वयं इंद्रदेव भगवान की सेवा में जुटे हैं. इंद्रासन खतरे में होगा. तभी तो तुम जैसे भक्त को रोकने की व्यवस्था की है. फिर तुम्हें कौन सा इंद्र बनना है. भगवान को यहीं याद करके जल चढ़ा दो. पूरा गांव डूबा हुआ है. तैर के भी नहीं पहुंच पाओगे. गए तो फिर लौटोगे कैसे. तुम नहीं लौटे तो मेरा और बच्चों का क्या होगा. हमारा ध्यान रखना भी तो भगवान की ही सेवा है. यहीं जल चढाओ. पानी-पानी में मिलेगा और भोले बाबा तक पहुंच जाएगा. तुम्हारी तपस्या भी नहीं टूटेगी'. 

गांव के दूसरे लोग भी यही दलील देने लगे. भक्तराज ने लोटे में दूध मिला जल लिया. भगवान शिव को याद किया. बारिश की वजह से घर के बाहर जमा हुए पानी में डाल दिया. 

पूजा की रस्म होते ही खाने की थाली पर टूट पड़े. 

कीर्तन का शोर और तेज़ हो गया. बारिश बंद होने की प्रार्थना गूंजने लगी. 

भक्तराज जिस वक्त खाना खाकर उठे, गांव के एक बच्चे को जूता मारने वाले की याद आ गई. 

उसने पूछा कि पंडित तो मंदिर जा नहीं पाए. उस पगले ने क्या किया होगा. 

किसी ने कहा, 'मर गया होगा'. 

'उसका घर तो वैसे भी नीचे है. यहां आया नहीं. अब तक तो जल समाधि हो गई होगी. उसी के पापों का फल तो हम भुगत रहे हैं. शिव पर जूते बरसाओगे तो क्या प्रकृति देवी माफ करेंगी. आखिर उनकी पत्नी हैं. देखा, पंडित जी को बचाने के लिए पंडिताइन ने कैसी दलीलें दीं. फिर वो तो भगवान की पत्नी हैं. ऐसे ही थोड़े छोड़ देंगी'. 

ये अनुमान सिर्फ अनुमान ही थे. किसी ने ये नहीं सोचा कि जो भगवान पर जूता उठाने से नहीं डरा. जो गांव के मुस्टंडों की मार से नहीं डरा. जो मौत की आंखों में आंखें डालकर भगवान से खुद पर हुए हर जुल्म का हिसाब मांगता रहा. वो बारिश की आफत से क्या डरेगा. 

घनघोर बारिश में वो पानी से लड़ता रहा. मंदिर जाने का वक्त हुआ तो पानी को काटता, तैरता हुआ आगे बढ़ा. रास्ते में कूड़ा कचरा मिला तो किनारे कर दिया. तैरते सांप मिले तो हाथ से उठाकर फेंक दिए. 

जूते पैरे से निकलकर बहने लगे तो एक बहती रस्सी पकड़कर जूतों की माला बनाई और गले में पहन ली. 

तय वक्त पर वो मंदिर पहुंच गया. आसमान में बिजली कड़क रही थी. बादल ऐसे बरस रहे थे मानो किसी ने तेज़ धार वाला नल खोल दिया हो. मंदिर में भी पानी दाखिल हो गया था. शिव लिंग पानी में डूब गया था. इतने पर भी उसका गुस्सा ठंडा नहीं हुआ था. 

उसने गले से जूतों की माला उतारी. हाथ में थामी. शिवलिंग तक पहुंचने को डुबकी लगाई और शुरु हो गया. 

अचानक, बिजली कड़की. बहुत तेज़ आवाज हुई. इतनी रोशनी हुई मानो सूरज जमीन पर उतर आया हो. जूते बरसाते उसके हाथ अचानक थम गए. शिवलिंग से साक्षात शिव प्रकट हो गए. 

भगवान ने कहा, 'तू है मेरा सच्चा भक्त. तू आज भी मुझे भेंट देने चला आया. न तुझे प्रकृति का कोप रोक पाया और न ही मौत का डर. मांग क्या मांगता है'. 

भगवान का इतना कहना था कि बरसों से जमा बांध टूट गया. गुस्सा आंसुओं में बह गया. जूते कहां गए पता नहीं चला. वो शिव के पैरों में गिर पड़ा. रोते हुए भगवान से पूछा, 'प्रभु, मुझ पापी के लिए आप क्यों प्रकट हुए. आपका असल भक्त तो गांव के बीच रहता है. आपने उसे तो दर्शन नहीं दिए. मुझ पर ऐसी कृपा क्यों. मुझे तो दंड देना चाहिए'. 

शिव की गंभीर आवाज गूंजी. 

'जो हर हाल में मुझे याद करे उससे बड़ा भक्त कौन होगा. इस जानलेवा बारिश में जब मेरा तथाकथित भक्त अपने घर के बाहर जमा हुए गंदे पानी में मुझे जल चढ़ाकर भक्तराज कहला रहा था, तब तू जान हथेली पर लिए मुझे जूतों की भेंट देने चला आया. तेरे जूतों से मुझे चोट नहीं लगती. मैं तो ज़हर को गले के नीचे उतरने ही नहीं देता. मेरे बच्चे, जो हर वक्त मेरे बारे में सोचता है, मैं उसके बारे में क्यों नहीं सोचूं'. 

ये कहानी मुझे बताती है कि कामयाबी के लिए सबसे जरुरी है कंसिसटेंसी. निरंतरता. जो लगा रहेगा, वो ही जीतेगा. 

अब एक सच्ची कहानी. मेरी गली के एक पंडित जी दसवीं की परीक्षा में पांच बार फेल हो चुके थे. 

छठी बार परीक्षा दी और जिस दिन रिजल्ट आने वाला था, गली के मंदिर में शिवलिंग पकड़कर बैठ गए. 

बोले, 'जब तक पास नहीं कराओगे तुम्हे छोड़ूंगा नहीं'. 

अब ये मत पूछिए रिजल्ट क्या हुआ. जय शिव.