रविवार, 26 अप्रैल 2015

... लगा, हममें से कोई नहीं बचेगा

किसी को छू के गुजरी, किसी को साथ ले गई मौत 

फ़ोन डरते हुए लगाया. नेटवर्क भी साथ नहीं दे रहा था. डर ये था कि पता नहीं दूसरी तरफ से क्या ख़बर मिलेगी? घंटी बजती गई. कोई जवाब नहीं मिला. मैंने रिडायल का बटन दबाया. इस बार दूसरी तरफ से कांपती सी आवाज आई.  हे...लो. ये नरेंद्र थे. मेरे एक साथी के परिचित. बिहार के रहने वाले हैं. अब काठमांडू में रहते हैं. मुझे, उनसे काठमांडू के हालात पता करने थे.  

नेपाल और उससे जुड़े भारतीय इलाके से लेकर दिल्ली तक की जड़ को हिलाने वाले भूकंप को गुजरे तीन घंटे का वक्त हो चुका था. नरेंद्र की सांसें जिस कदर उखड़ी हुई थीं, उससे साफ़ था कि काठमांडू में हालात बेहद खराब हैं. उस वक्त तक मरने वालों का आधिकारिक आंकड़ा सौ के करीब बताया जा रहा था. लेकिन, नरेंद्र से बात करते करते मैं समझ चुका था कि ये गिनती कहां तक पहुंचेगी, इसका दुनिया को अभी ठीक-ठीक अंदाजा ही नहीं. 
'जाने कितने लोग मलबे में फंसे हैं. कैसे उन्हें निकालें? अस्पताल में जितने घायल पहुंच रहे हैं, उतने बेड नहीं हैं. कितने घर गिर गए हैं. कई तो अब भी हवा में झूल रहे हैं. अब गिरे कि तब गिरे. मेरी गली में ही छह मकान लटके हुए हैं. बिजली नहीं है. टीवी बंद है. मोबाइल भी मुश्किल से लग रहा है. सब कुछ ढह गया है'

नरेंद्र अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालते हुए ताज़ा हालात का हूबहू ब्योरा पेश करने लगे. जब भूकंप आया वो काठमांडू के मुख्य बाज़ार में थे. भावुक से हुए नरेंद्र ने कहा, 'उस पल लगा हममें से कोई नहीं बचेगा.' उफ! क्या खौफ़ रहा होगा. डगमगाते कदम. हिलती- डुलती ज़मीन. कांपता जिस्म. मौत के डर को महसूस कर सुन्न सा होता दिमाग. 
फ़ोन चालू ही था. नरेंद्र हालात बयान किए जा रहे थे. पल भर के लिए मेरे दिमाग ने मुझे उसी हालात के बीच लाके खड़ा कर दिया. सोचने लगा, अगर मैं वहां होता, तो क्या करता? जवाब भी खुद ही सामने आ गया. नेपाल से सैंकड़ो मील दूर मैं उस वक्त दिल्ली के धर्मशिला हॉस्पिटल के सामने था. मुझे, हॉस्पिटल के सामने के अपार्टमेंट में रहने वाले अपने करीबी मित्र अतीत जी के घर पहुंचने की जल्दी थी. तभी कदम डगमगाए. मुझे लगा, हाल में मुंह में डाली 'तुलसी' असर दिखा रही है. ये ख्याल हावी होता उसके पहले ही मैंने अपार्टमेंट की अलग-अलग बिल्डिंग में रहने वालों को बेतहाशा दौड़ते हुए ग्राउंड फ्लोर पर आते देखा. तब समझ आया ये तुलसी नहीं भगवान 'शेषनाग' का प्रभाव है. (बचपन में कहानी पढ़ी थी कि ये पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है. वो हिलते हैं तो भूकंप आता है. इस कथा का असल आशय क्या है, किसी दूसरे दिन चर्चा करेंगे )
 एक सवाल उस दिन भी दिमाग में आया था, जब किसान गजेंद्र सिंह जंतर-मंतर पर फंदा लगाकर झूल गए थे. मैं होता तो क्या करता? सच ये है कि मैं नहीं था, जो थे, या जो वहां ना होकर भी कुछ कर सकते थे, उन्होंने सिर्फ राजनीति की. भूकंप से हुई तबाही के बीच फिलहाल किसानों का दर्द पर्दे के पीछे चला गया है. 


अपने बिहार और यूपी में भी जान-माल का नुकसान हआ है, लेकिन, नेपाल तो तबाहो-बर्बाद हो गया है. भूकंप का डर लोगों के दिल में बैठ गया है. जिनके घर ढह गए या गिरने की हालत में पहुंच गए, उनकी बात अलग है. जिनके घर सलामत हैं वो भी रात के वक्त घरों में जाने को तैयार नहीं. ये डर जल्दी नहीं जाएगा. चुनौती प्रशासन के सामने भी कम नहीं. उसके सामने नेपाल को दोबारा खड़ा करने का इम्तिहान है. परीक्षा की इस घड़ी में भारत ने नेपाल की तरफ मजबूती से मदद का हाथ बढ़ाया है. 

कई दिनों से मुश्किलों में घिरी दिखने वाली मोदी सरकार भूकंप के वक्त मुस्तैदी दिखाने को लेकर तारीफ की हकदार है. हिंदुस्तान के प्रभावित राज्यों के साथ नेपाल को मदद भेजने में जो जज्बा, तत्परता और सूझबूझ दिखाई गई है, वो सलाम करने लायक है. 
और, आखिर में दो मिनट का मौन उनके लिए जो कुदरत के कोप के चलते बेवक्त ही महाकाल के गाल में चले गए. प्रार्थना, हर दूसरे साल हिमालय की गोद में क्रोध दिखाने वाले शिव से भी. हे, केदारनाथ... हे, पशुपतिनाथ... अब तांडव बंद कर दो. हर दिन मायूसी की बात करना अच्छा नहीं लगता... त्राहिमाम...त्राहिमाम 

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