शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

ब्रेक तो बनता है बॉस!

... ताकि ज़िंदगी चलती रहे


गाड़ी हो या 24 घंटे चलने वाले चैनल. आईपीएल का मैच हो या नौकरी. ब्रेक तो सबको चाहिए. ज़रा कल्पना कीजिए आप किसी गाड़ी में बैठे हों और ब्रेक ना लगे तो क्या हो ? ज़िदगी भी एक ऐसी ही गाड़ी है, जो रास्ते से भटकने लगे तो ब्रेक लगाना पड़ता है.



ये बात दीगर है कि कई बार ब्रेक बहुत अखरते हैं. टीवी पर किसी दिलचस्प सीरियल को देखते वक्त मैंने ब्रेक को लेकर बहुत सी शिकायतें सुनी हैं. मसलन, ' ये टीवी वाले बड़े चालू हैं. जबरदस्ती कहानी खींचते हैं. जब कुछ इंट्रेस्टिंग आने वाला होता है, ब्रेक ले लेते हैं. '

जब से टीवी और रिमोट ने जिंदगी का कंट्रोल संभाला है ब्रेक की अहमियत और भी बढ़ गई है. देखने वालों को ब्रेक टाइम भले ही कितना भी अखरता हो, एंकर्स की अदा को निखार देता है. इन एंकर्स की ही बलिहारी है कि बच्चे- बच्चे की ज़ुबान पर चढ़ गया है, 'बस एक छोटा सा ब्रेक'. पढ़ने का मन ना हो तो ये छोटा ब्रेक कितना बड़ा हो सकता है सब जानते हैं. बच्चों की बातों को ज़रा ध्यान से सुनिए कहीं जाते वक्त कहेंगे 'मिलते हैं ब्रेक के बाद'. कुछ पूछो तो कहेंगे 'बताएंगे ब्रेक के बाद' या 'दिखाएंगे ब्रेक के बाद'



टीवी के लिए तो ब्रेक ही वो इंजन है, जो मुनाफे की गाड़ी को खींचता है और चैनलों का बाकी कंटेंट उसी पर सवार होकर आगे बढ़ता है. क्रिकेट में कमाई की लीग के ब्रॉडकास्टर्स को जब उम्मीद के मुताबिक मुनाफ़ा होता ना दिखा तो आईपीएल में भी 'ब्रेक' आ गया.स्ट्रेटजिक ब्रेक. यूं तो क्रिकेट मैचों में ब्रेक पहले भी होते थे. दो पारियों के बीच इनिंग्स ब्रेक, लेकिन, स्ट्रेटजिक ब्रेक का मकसद ही ब्रॉडकॉस्टर को वो खिड़की मुहैया करना था, जिसके जरिए वो दर्शकों को विज्ञापनों का दीदार कराके ख़ुद मुनाफ़े की गारंटी कर सकें.


वैसे, कई बार उन लोगों के लिए ब्रेक बड़े काम का होता है जो कुदरत के दबाव के ख़िलाफ़ जंग लड़ रहे होते हैं. वो किसी दिलचस्प सीरियल या फ़िर मैच के बीच 'कुदरत की पुकार ' (नेचर्स कॉल दोस्तों) को अनसुना करते हुए कुर्सी पर जमे रहते हैं. ऐसे में ब्रेक कितनी बड़ी राहत लाता है, बस वो ही बता सकता है, जो इस हालात से गुज़रा हो. हालांकि, ज़्यादतर लोगों को 'छोटे' बताए जाने वाले ब्रेक बड़ा अखरते हैं. उनकी शिकायत होती है, 'प्रोग्राम बताते आधे घंटे का हैं, लेकिन, 20 मिनट से ज्यादा कभी नहीं दिखाते. पता ही नहीं चलता, प्रोग्राम के बीच ब्रेक दिखाते हैं या ब्रेक के बीच प्रोग्राम'

ये शिकवा सिर्फ टीवी चैनलों से नहीं. सरकारी बाबुओं से भी लोगों को यही शिकायत होती है. 'इनके तो ब्रेक ही खत्म नहीं होते. कभी लंच ब्रेक तो कभी टी ब्रेक.' लेकिन आप लाख शिकवे करते रहिए, उनकी सेहत पर फर्क नहीं पड़ता.




फिलहाल सरकार की गाड़ी के ड्राइवर यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जवाहर लाल नेहरु की ही तरह 'आराम हराम है' का नारा बुलंद करते हैं. वो कई बार कह चुके हैं कि उन्होंने अपने काम से 15 मिनट की भी छुट्टी यानी ब्रेक नहीं लिया, लेकिन इन बाबुओं की बला से. वो तो ये ही मानते हैं कि ज़िदगी की गाड़ी को सही तरीके से चलाने के लिए ब्रेक बहुत जरुरी है. वो आप से भी कहेंगे कि कभी काम का तनाव हावी हो जाए और आप किसी समझदार शख्स से समाधान पूछें तो वो यही कहेगा, 'टेक ए ब्रेक'. ऐसे ही समझदार लोगों ने जुमला बनाया है, 'ब्रेक तो बनता है'



मुझे नहीं पता, नेहरु के परनाती राहुल गांधी ने किस से सलाह ली. लेकिन उन्होंने घोषित तौर पर ब्रेक लिया. (अघोषित तौर पर तो वो अक्सर ही ब्रेक पर रहते हैं). वो भारतीय राजनीतिक इतिहास के पहले ऐसे सक्रिय नेता बन गए जो लगातार 8 हफ्ते तक ब्रेक पर रहे. अब क्या कहें एक रिवाज सा हो गया है कि तमाम लोगों को ख़ुद तो ब्रेक लेना पसंद है, लेकिन, दूसरों का ब्रेक अखरता है. राहुल का ब्रेक पर जाना भी अखरा. अब राहुल वापस आ गए हैं. तो इंतज़ार इस बात का है कि ब्रेक के बाद वो क्या दिखाते हैं ? उनकी राजनीति की कहानी में कोई ट्विस्ट आता है या नहीं.... ये भी जानेंगे, लेकिन, एक छोटे से...


2 टिप्‍पणियां:

  1. चलो आज फिर थोड़ा मुस्कुराया जाएँ...
    बिना माचिस के कुछ लोगो को जलाया जाएँ।

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