बुधवार, 8 अप्रैल 2015

चुप-चुप बैठे हो...

                             

                             क्या कहती है आडवाणी की खामोशी? 



सवाल गर्म है. इसी से जुड़ा एक सवाल और भी है. वो ये कि क्या बीजेपी को अपने 'लौहपुरुष' की चुप्पी की फिक्र है? इस सवाल का ऑफ़िशियल जवाब है, 'हां' और अनाफ़िशियल जवाब है,'नहीं'. जी हां, ये वो ही लाल कृष्ण आडवाणी हैं, जो ना सिर्फ कभी बीजेपी की आवाज़ थे बल्कि उसका चेहरा और दिमाग भी थे. 

पैंतीस साल पहले भारतीय राजनीति के धरातल पर उगी इस पार्टी को खड़ा होना, चलना, दौड़ना और जीतना आडवाणी ने ही सिखाया. आडवाणी ने इसे ज़ुबान दी. नारे दिए. जुमले दिए. दिशा दी. आडवाणी जब कभी रथ पर चढ़े, बीजेपी का ग्राफ़ ऊपर चढ़ गया. 

लेकिन, आडवाणी का ये करिश्मा 2004 में अचानक भरभरा गया. कहानी 11 साल पुरानी है. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. आडवाणी उस सरकार में उप प्रधानमंत्री थे. कहते हैं, राजनीति के 'सुजान' आडवाणी के कहने पर ही तब की सरकार ने वक़्त के पहले आम चुनाव कराने का फ़ैसला कर लिया. चुनाव की सलाह देने वालों का आंकलन था कि अपने 'अभूतपूर्व' कामकाज के दम पर सरकार जनता में इस कदर पॉपुलर है कि सत्ता में वापसी में कोई संदेह ही नहीं. 




आडवाणी खुद 'फील गुड' मोड में थे. सरकार के मुखिया भले ही वाजपेयी रहे हों, लेकिन, बीजेपी आडवाणी के इशारे पर ही चलती थी. 'इंडिया शाइनिंग' के जिस नारे के सहारे बीजेपी 2004 के चुनावी समर में उतरी, आडवाणी ने कई बार खुद बड़े फ़ख्र से बताया कि वो नारा उनकी ही देन था. नारा पिटा. बीजेपी सत्ता से बाहर हुई, लेकिन, आडवाणी का रुतबा कायम रहा. पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना को लेकर विवादस्पद बयान के बाद आरएसएस के कथित दबाव के बाद आडवाणी को अध्यक्ष पद भले ही छोड़ना पड़ा हो, लेकिन, वो बीजेपी का चेहरा, उसकी सोच और आवाज़ बने रहे. 



बीजेपी ने 2009 का आम चुनाव भी आडवाणी को आगे करके लड़ा. आडवाणी के इशारे पर बीजेपी ने 'मजबूत नेता (आडवाणी) बनाम मजबूर नेता' (मनमोहन सिंह) का नारा बुलंद किया. इस नारे का हश्र भी इंडिया शाइनिंग सरीखा हुआ. इसके बाद आडवाणी ऐसा कोई नारा नहीं खोज पाए, जिस पर वोटर तो दूर बीजेपी भी मोहित हो सके. राजनीति का पुराना सिद्धांत है कि अगर आप ऊपर की दिशा में नहीं बढ़ते तो आपका नीचे आना तय है. बीजेपी के लिए आडवाणी के 'महान योगदान' को देखते हुए पार्टी में किसी ने उन्हें नीचे लाने का साहस नहीं दिखाया, लेकिन, एक दौर के उनके प्रिय शिष्य नरेंद्र मोदी ऊपर की ओर जरुर बढ़ने लगे. एक स्थिति वो भी आई जब मोदी आडवाणी से भी आगे निकलते दिखे. ऐसे नाजुक वक्त आडवाणी वक़्त का आकलन करने में क़ामयाब नहीं हुए. बीजेपी के मोदीमय होने के दौर में आडवाणी ने अपने एक गलत दांव से मोदी के लिए मैदान खाली कर दिया. वो पहली बार पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मीटिंग में नहीं पहुंचे. शायद आडवाणी माने बैठे थे कि उनकी नाराजगी मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार बनने से रोक सकती है, लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. 



बीजेपी तब तक समझ चुकी थी कि वो मोदी का हाथ पकड़ कर ही आगे बढ़ सकती है. पार्टी ने ये बात आडवाणी को भी समझाने की कोशिश की. स्थिति ये रही कि बीजेपी को बनाने और उसे बढ़ाने वाले रथयात्री आडवाणी अपनी पसंद की सीट से चुनाव तक नहीं लड़ सके. मोदी के रंग में रंगी बीजेपी उनसे जो उम्मीदें लगाईं थीं, वो 2014 के आम चुनाव में पूरी हुई. अपनी तमाम हसरतों के साथ आडवाणी पीएम इन वेटिंग ही रह गए और मोदी पीएम बन गए. मोदी ने सरकार की कमान संभाली और पार्टी की बागडोर उनके विश्वस्त सिपहसालार अमित शाह के हाथ आ गई और इस जोड़ी ने आडवाणी के लिए 'मार्गदर्शक' की भूमिका चुनी. 

बदले दौर में आडवाणी भी बदले-बदले नज़र आने लगे. वो बीजेपी की सांसदों की मीटिंग में रोए. बीजेपी को जीत दिलाने के लिए मोदी को धन्यवाद दिया, लेकिन, गाहे- बगाहे उनके दिल का दर्द फूटता रहा. बीजेपी और मोदी के विरोधियों ने ऐसे तमाम मौकों पर आडवाणी के बहाने प्रधानमंत्री पर निशाना साधा, लेकिन, ऐसे तमाम किस्सों ने कहीं ना कहीं इस धारणा को भी जन्म दिया कि बीजेपी के स्वनामधन्य संस्थापक अगली पीढ़ी के बागडोर थामने से खुश नहीं हैं. 


हालांकि, आडवाणी को ऐसी राय से कोई दिक्कत हो, ऐसा आभास नहीं होता. मोदी युग के आगाज़ के बाद से ही आडवाणी कोई ना कोई ऐसा कदम उठाते दिखते हैं, जिससे उनका शिकवा जाहिर होता रहे. बीजेपी की बैंगलुरु में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मीटिंग में आडवाणी की 'चुप्पी' को इसी से जोड़कर देखा गया. हालांकि, ये कदम पार्टी और आडवाणी दोनों के लिए फ़ायदेमंद रहा. आडवाणी बोलते तो शायद इतनी तवज्जो हासिल नहीं कर पाते. खामोशी ने उन्हें उम्मीद से ज्यादा अहमियत दिला दी. वहीं उनकी चुप्पी ने बीजेपी का ये डर दूर कर दिया कि अगर 'मार्गदर्शक' नसीहत देने पर उतर आए तो पार्टी की किरकरी ना हो जाए.  बीजेपी के लिए 'आडवाणी युग' का अवसान हो चुका है, लेकिन, आडवाणी के लिए ये मानने की कोई बाध्यता नहीं. उनके खुश होने के लिए ये काफ़ी है कि उनकी चुप्पी भी बहस का मुद्दा बन सकती है. लेकिन, क्या इस चुप में हज़ार बातों की बात है? क्या ये किसी तूफ़ान के पहले की शांति है? अगर ये सवाल बीजेपी के नए युगांधरों से पूछे जाएं तो उनका जवाब यकीनन ना ही होगा. 


1 टिप्पणी: