शनिवार, 11 अप्रैल 2015

...राजगद्दी के पहले वनवास

                                                   एक 'युवराज' की अजब-गजब कहानी 





ये कहानी कलियुग की है. त्रेतायुग की उस मशहूर कहानी से इस का साम्य तलाशना पूरी तरह बेमानी होगा. राहुल गांधी और राम में समानता सिर्फ़ इतनी है कि दोनों का नाम 'रा' से शुरु होता है. 'भक्त' ये भी कह सकते हैं कि राम भी 'गद्दी' संभालने के पहले वन चले गए थे. लेकिन, राम का वनगमन मर्यादा से बंधा था. पिता के वचन की मर्यादा. इसका मान रखते हुए वो वन में ही 'मर्यादा पुरुषोत्तम' हो गए. राम वन न जाते तो रामायण की कथा भी न होती. वनवास ने उन्हें पुरुष से महापुरुष और फ़िर भगवान बना दिया. 

                                         

राम की इस कहानी के उलट राहुल गांधी ने ख़ुद वनवास चुना. वो भी उस समय जब कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उनकी ताज़पोशी की ख़बरें ज़ोरों पर थीं. राम माता कैकयी की नाराज़गी की वजह से वन गए थे तो राहुल गांधी ख़ुद नाराज़ बताए जाते हैं. ये जरुर है कि उन्हें भी जाने की इजाज़त मां ने ही दी. वो कहां हैं और कब लौटेंगे, इस बारे में कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है. हालांकि, सार्वजनिक तौर पर चुप रहने वाले कांग्रेस के नेता बिना पूछे ही बता देते हैं कि राहुल म्यामांर में हैं और 19 अप्रैल को कांग्रेस की किसान रैली के पहले दिल्ली लौट आएंगे. 



राम वन गए थे तो राजकाज से जुड़ी उनकी जिम्मेदारियां भरत ने संभाली थीं. राहुल की गैरमौजूदगी में कांग्रेस को संजीवनी देने का काम उनकी मां सोनिया गांधी को संभालना पड़ा. सोनिया बेटे की गैरमौजूदगी में इस कदर सक्रिय हुईं कि कई कांग्रेसियों ने दबे सुर में कहना शुरु कर दिया कि राहुल का वनवास जितना लंबा खिंचे पार्टी के लिए उतना ही अच्छा है. राम के राज संभालने का इंतज़ार हर किसी को था, लेकिन, राहुल के पक्ष में ऐसा कोई माहौल नहीं दिखता. कांग्रेस के जो नेता राहुल गांधी के वनवास की टाइमिंग पर सवाल उठा रहे थे, वो सोनिया की सक्रियता देखने के बाद कहने लगे कि अभी अध्यक्ष बदलने का सही समय नहीं. इनमें गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले संदीप दीक्षित जैसे नेता शामिल हैं. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे नेता भी इशारों में राहुल पर निशाना साध चुके हैं. 


राहुल के नेतृत्व को लेकर कांग्रेस के नेताओं ऐसा रुख पहली बार नहीं दिखा. 2004 में सक्रिय राजनीति में आए राहुल गांधी के पांव जब कभी सियासी अखाड़े में उखड़ते दिखे कांग्रेस में एक ऐसी जमात सक्रिय हो गई, जो राहुल को पीछे करने और प्रियंका गांधी को आगे लाने की वकालत में जुट गई. पति रॉबर्ट वाड्रा पर लगे तमाम आरोपों के बाद भी राजनीतिक विश्लेषकों, मीडिया और वोटरों के बीच प्रियंका के लिए खास आकर्षण दिखता है. इंदिरा गांधी से उनकी तुलना होती है. राजनीति की कसौटी पर प्रियंका अब तक कसी नहीं गईं, लेकिन, 2014 के आम चुनाव में जब पूरी कांग्रेस बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के हमलों के आगे हांफ रही थी, तब अकेले प्रियंका थीं, जिन्होंने मोदी पर जमकर पलटवार किया. यूपी की रायबरेली और अमेठी सीट पर सोनिया और राहुल गांधी की जीत को भी प्रियंका का ही करिश्मा माना गया. लेकिन, सोनिया गांधी ने कभी राहुल को पीछे कर प्रियंका को आगे लाने की कोशिश नहीं की. इसके पीछे एक अजब थ्योरी बताई जाती है. भारत की तरह इटली में भी पितृसत्तात्मक समाज है. यानी उत्तराधिकारी बेटे को ही बनाया जाता है. प्रियंका भी अब तक राहुल के लिए चुनौती बनती नहीं दिखीं.

राहुूल को युवराज कहने वाले भी दलील देते हैं कि कांग्रेस एक लोकतांत्रिक पार्टी की तरह काम नहीं करती. ये राजवंश की परिपाटी पर आगे बढती है, जहां सबसे अहम कुर्सी गांधी परिवार के लिए सुरक्षित है. कांग्रेस को सत्ता मिलती तो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहली दावेदारी राहुल गांधी की ही होती. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए जाने कितनी बार कहा था कि वो राहुल गांधी के लिए कुर्सी छोड़ सकते हैं. लेकिन, राहुल किसी और मिट्टी के बने हैं. उनके आगे जो कुर्सियां लगाई जाती हैं, उनमें वो कभी दिलचस्पी नहीं दिखाते. राहुल गांधी को जब कांग्रेस ने अपना उपाध्यक्ष चुना तो उन्होंने बड़े भावुक अंदाज में राज़ खोला कि उनकी मां ने बताया है,'हकीकत में सत्ता ज़हर है'.2014 के आम चुनाव में पूरी कांग्रेस चाहती थी कि राहुल ये ज़हर पी लें और नीलकंठ हो जाएं, लेकिन, नरेंद्र मोदी ने ये साध पूरी नहीं होने दी. 


कांग्रेस ने राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले प्रोजेक्ट तो नहीं किया, लेकिन, बीजेपी नेता ने  अपने पत्ते कुछ इस अंदाज में चले कि लड़ाई राहुल बनाम मोदी की हो गई. राहुल ये लड़ाई क्यों हारे, इसके कारणों की पड़ताल होती रहेगी, लेकिन, ये बताना जरुरी है कि ये राहुल की पहली हार नहीं थी. आम चुनाव के पहले राहुल ने यूपी के विधानसभा चुनाव में जान लगाई थी, लेकिन, वहां अखिलेश यादव ने उन्हें पटखनी दे दी, जो करिश्मे और अनुभव में मोदी के आगे कहीं नहीं ठहरते. दिल्ली के सियासी अखाड़े में राहुल को अरविंद केजरीवाल ने पीटा. हार के इस सिलसिले ने राहुल के राजनीतिक कौशल पर इतना बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया कि कांग्रेस उनके वनवास पर खुश होने लगी. कांग्रेस के अंदर से आती खबरें बताती हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस को बदलना चाहते हैं. वो नए प्रयोग और नए चेहरों को आजमाना चाहते हैं. पुराने कांग्रेसी ऐसा होने नहीं देना चाहते. इसी वजह से राहुल नाराज़ हैं.इतना तय है कि नाराजगी दूर होते ही राहुल गांधी लौटेंगे. देर सवेर उन्हें कांग्रेस की सबसे अहम कुर्सी भी मिल जाएगी, लेकिन, ये एक नेता के तौर पर उनके भविष्य बदलने की गारंटी नहीं. राहुल को अगर कांग्रेस का उद्धारक बनना है तो उन्हें रणछोड़ की छवि से पीछा छुड़ाना होगा. उन्हें पहले कांग्रेस को भरोसा दिलाना होगा कि वो पार्टी की तकदीर बदल सकते हैं. इसके बाद वोटरों का भरोसा जीतने की बारी आएगी. जब तक राहुल चुनौतियां के आगे अड़कर खड़ा होना नहीं सीखेंगे उन्हें गुस्सा आता रहेगा और कोई ना कोई वन उन्हें अपनी ओर खींचता रहेगा. इतना तय है कि इस वनवास से राहुल न राम बनेंगे और न ही गौतम बुद्ध. 

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