सोमवार, 27 अप्रैल 2015

For Ladies Only

अविश्वसनीय लेकिन सच है!

बात हक की है. कम से कम महिलाएं 'यहां' अपना हक़ लेना जानती हैं. इससे बेशक दिल्ली की तस्वीर न बदलती हो. 16 दिसंबर 2012 को चेहरे पर लगा बदनुमा दाग न धुलता हो, लेकिन, एक स्टीकर पर लिखे 'तीन शब्दों' को दिल्ली जितनी इज्ज़त देती है, उसको सलाम तो बनता है.
दिल्ली मेट्रो में सफ़र करते 11 साल से ज्यादा वक्त हो गया. शुरुआत में सफ़र का मक़सद उत्सुकता थी. उस वक्त मेट्रो का इतना विस्तार भी नहीं था. दिल्ली में लाइन का जाल बिछा तो मेट्रो जरुरत बन गई. 'पीक आवर' में भीड़ में पिस जाने की घबराहट और टनल में अचानक मेट्रो के रुक जाने पर होने वाली बेचैनी के वक्त जाने कितनी बार मेट्रो में सवार न होने की कसम ली है. फिर भी कोई कशिश तो मेट्रो में है, जो खींच लेती है. हर दिन एक्सरसाइज़ न कर पाने की खीज मेट्रो की अंतहीन सीढ़ियां चढ़ने में गुम हो जाती है. सड़क पर सिग्नल दर सिग्नल रेंगते हुए चलने और ऑटोवालों से किराए को लेकर होने वाली किचकिच से मेट्रो मज़े में बचा लती है. ईमेल चेक करते, व्हॉटसएप पर आए मैसेज पढ़ते बीस से पच्चीस मिनट का सफ़र कैसे कट जाता है, पता नहीं चलता. 
अगर आप शुरुआती स्टेशन से मेट्रो में सवार नहीं होते तो सीट मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं होता. हर मुसाफिर ऐसे ही चमत्कार की आस लिए मेट्रो में दाखिल होता है. कनॉट प्लेस के स्टेशन (राजीव चौक) को छोड़ दें तो हर जगह सीट पाने को आपाधापी सी दिखती है. मेट्रो का दरवाजा खुलते ही प्लेटफॉर्म पर खड़े लोग ऐसे लपकते हैं, जैसे डर हो समुद्र मंथन से निकला अमृत पल भर की देर होने पर गुम हो जाएगा. अगर आप इत्मिनान के हामी हैं और 'सीट प्रेमी लपका ब्रिगेड' के एक्शन व्यवहार पर नज़र रखने का इरादा बनाकर मेट्रो में सवार होते हैं तो यकीन कीजिए आप हर दिन एक दिलचस्प कहानी लेकर उतरेंगे. 
मैं आज मेट्रो में लगे जिस स्टिकर की बात कर रहा हूं, आपको भी उसकी ताक़त का अंदाजा होगा. हरे रंग के इस स्टिकर ने दिल्ली को बेहद सभ्य, समझदार और उदार बना दिया है. महिलाएं इत्तेफ़ाक रखें या नहीं, इस स्टिकर ने उनकी 'शक्ति' में इज़ाफ़ा कर दिया है. इरादा परखने का हो तो यकीनन आजमा के देखिए. अगर किसी कोच में वो दो सीट खाली हैं, जिन के ऊपर 'For Ladies Only' यानी सिर्फ़ महिलाओं के लिए लिखा हो, तो 100 में से 60 फ़ीसदी उम्मीद है कि वो तब तक खाली ही रहेंगी, जब तक कि कोई महिला ही उसे आकर धन्य न कर दे. 


मैंने कल ही गौर किया. कॉलेज में पढ़ने वाले पांच लड़के आठ डिब्बे वाली मेट्रो के आखिरी कोच में सवार हुए. इत्तेफ़ाक से एक तरफ एक साथ पांच सीट खाली थीं, लेकिन उनके बीच एक अजीब होड़ शुरु हो गई. उनमें से कोई भी उन दो सीटों पर नहीं बैठना चाहता था, जिनके ऊपर महिलाओं के आरक्षित होने का स्टिकर लगा था. तीन 'अनारक्षित' सीटों पर बैठे लड़के कहते रहे, ' बैठ जाओ यार. कोई आए तो हट जाना ' लेकिन, बाकी बचे दो लड़कों को खड़ा रहना मंजूर था, महिलाओं के लिए आरक्षित पर बैठना नहीं. बाद में वो मेट्रो का नियम भंग करते हुुए फर्श पर बैठ गए, लेकिन, लेडीज़ सीट पर नहीं बैठे. ऐसा मैंने पहली बार नहीं देखा. महिला सीट पर बैठने की गुस्ताखी अपने से भी नहीं होती. अगर कोई पुरुष ऐसी सीट पर बैठ भी जाए तो महिला के आते ही ऐसे खड़ा हो जाता है, जैसे क्लास में प्रिंसिपल के आते ही सारे छात्र खड़े हो जाते हैं. अगर कोई न उठे तो शाम तक उनकी तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है. जैसे कि 2014 में इन दो महाशयों की हुई थी. 


मेरे कहने का ये मक़सद कतई नहीं कि लेडीज सीट छोड़ने वाले सिर्फ डर की वजह से ऐसा करते हैं. ज्यादातर लोगों का फ़ैसला उनकी विनम्रता और अनुशासन से जुड़ा होता है. मैंने 'अनारक्षित' सीटों पर बैठे ऐसे लोगों को भी देखा है जो किसी महिला के आते ही अपनी जगह ऑफर कर देते हैं और खुद खड़े होकर सफ़र पूरा करते हैं. ये लोग भी उसी दिल्ली का हिस्सा हैं, जिसे मेट्रो का प्रबंधन करने वालों ने किसी वक्त महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रही माना था और एक कोच रिजर्व करने का फ़ैसला किया था. ये बात 2010 की है. 
उसके बाद दिल्ली की तस्वीर बहुत बदली. दिसंबर 2012 के 'निर्भया कांड' के बाद कई सवाल उठे और उन्हें उठाने वाली सिर्फ़ महिलाएं नहीं थीं. उनके हक़ की आवाज पुरुष साथियों ने भी बुलंद की. लेकिन, हक़ (सीट) के लिए महिलाओं का जितना आग्रह मेट्रो में दिखता है, उतना कहीं और नहीं.
 दिल्ली मेट्रो की वो तमाम खूबियां जिन पर कुर्बान होकर फिल्मवाले शूटिंग के लिए आते हैं, वो भविष्य में शायद इस पहलू पर भी गौर करना चाहेंगे. मैं तो खैर मेट्रो में सफ़र करने वाले उन तमाम देवताओं को प्रणाम कर ही रहा हूं. वो देवता क्यों हैं, अर्थ इस श्लोक में है 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता'  

रविवार, 26 अप्रैल 2015

... लगा, हममें से कोई नहीं बचेगा

किसी को छू के गुजरी, किसी को साथ ले गई मौत 

फ़ोन डरते हुए लगाया. नेटवर्क भी साथ नहीं दे रहा था. डर ये था कि पता नहीं दूसरी तरफ से क्या ख़बर मिलेगी? घंटी बजती गई. कोई जवाब नहीं मिला. मैंने रिडायल का बटन दबाया. इस बार दूसरी तरफ से कांपती सी आवाज आई.  हे...लो. ये नरेंद्र थे. मेरे एक साथी के परिचित. बिहार के रहने वाले हैं. अब काठमांडू में रहते हैं. मुझे, उनसे काठमांडू के हालात पता करने थे.  

नेपाल और उससे जुड़े भारतीय इलाके से लेकर दिल्ली तक की जड़ को हिलाने वाले भूकंप को गुजरे तीन घंटे का वक्त हो चुका था. नरेंद्र की सांसें जिस कदर उखड़ी हुई थीं, उससे साफ़ था कि काठमांडू में हालात बेहद खराब हैं. उस वक्त तक मरने वालों का आधिकारिक आंकड़ा सौ के करीब बताया जा रहा था. लेकिन, नरेंद्र से बात करते करते मैं समझ चुका था कि ये गिनती कहां तक पहुंचेगी, इसका दुनिया को अभी ठीक-ठीक अंदाजा ही नहीं. 
'जाने कितने लोग मलबे में फंसे हैं. कैसे उन्हें निकालें? अस्पताल में जितने घायल पहुंच रहे हैं, उतने बेड नहीं हैं. कितने घर गिर गए हैं. कई तो अब भी हवा में झूल रहे हैं. अब गिरे कि तब गिरे. मेरी गली में ही छह मकान लटके हुए हैं. बिजली नहीं है. टीवी बंद है. मोबाइल भी मुश्किल से लग रहा है. सब कुछ ढह गया है'

नरेंद्र अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालते हुए ताज़ा हालात का हूबहू ब्योरा पेश करने लगे. जब भूकंप आया वो काठमांडू के मुख्य बाज़ार में थे. भावुक से हुए नरेंद्र ने कहा, 'उस पल लगा हममें से कोई नहीं बचेगा.' उफ! क्या खौफ़ रहा होगा. डगमगाते कदम. हिलती- डुलती ज़मीन. कांपता जिस्म. मौत के डर को महसूस कर सुन्न सा होता दिमाग. 
फ़ोन चालू ही था. नरेंद्र हालात बयान किए जा रहे थे. पल भर के लिए मेरे दिमाग ने मुझे उसी हालात के बीच लाके खड़ा कर दिया. सोचने लगा, अगर मैं वहां होता, तो क्या करता? जवाब भी खुद ही सामने आ गया. नेपाल से सैंकड़ो मील दूर मैं उस वक्त दिल्ली के धर्मशिला हॉस्पिटल के सामने था. मुझे, हॉस्पिटल के सामने के अपार्टमेंट में रहने वाले अपने करीबी मित्र अतीत जी के घर पहुंचने की जल्दी थी. तभी कदम डगमगाए. मुझे लगा, हाल में मुंह में डाली 'तुलसी' असर दिखा रही है. ये ख्याल हावी होता उसके पहले ही मैंने अपार्टमेंट की अलग-अलग बिल्डिंग में रहने वालों को बेतहाशा दौड़ते हुए ग्राउंड फ्लोर पर आते देखा. तब समझ आया ये तुलसी नहीं भगवान 'शेषनाग' का प्रभाव है. (बचपन में कहानी पढ़ी थी कि ये पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है. वो हिलते हैं तो भूकंप आता है. इस कथा का असल आशय क्या है, किसी दूसरे दिन चर्चा करेंगे )
 एक सवाल उस दिन भी दिमाग में आया था, जब किसान गजेंद्र सिंह जंतर-मंतर पर फंदा लगाकर झूल गए थे. मैं होता तो क्या करता? सच ये है कि मैं नहीं था, जो थे, या जो वहां ना होकर भी कुछ कर सकते थे, उन्होंने सिर्फ राजनीति की. भूकंप से हुई तबाही के बीच फिलहाल किसानों का दर्द पर्दे के पीछे चला गया है. 


अपने बिहार और यूपी में भी जान-माल का नुकसान हआ है, लेकिन, नेपाल तो तबाहो-बर्बाद हो गया है. भूकंप का डर लोगों के दिल में बैठ गया है. जिनके घर ढह गए या गिरने की हालत में पहुंच गए, उनकी बात अलग है. जिनके घर सलामत हैं वो भी रात के वक्त घरों में जाने को तैयार नहीं. ये डर जल्दी नहीं जाएगा. चुनौती प्रशासन के सामने भी कम नहीं. उसके सामने नेपाल को दोबारा खड़ा करने का इम्तिहान है. परीक्षा की इस घड़ी में भारत ने नेपाल की तरफ मजबूती से मदद का हाथ बढ़ाया है. 

कई दिनों से मुश्किलों में घिरी दिखने वाली मोदी सरकार भूकंप के वक्त मुस्तैदी दिखाने को लेकर तारीफ की हकदार है. हिंदुस्तान के प्रभावित राज्यों के साथ नेपाल को मदद भेजने में जो जज्बा, तत्परता और सूझबूझ दिखाई गई है, वो सलाम करने लायक है. 
और, आखिर में दो मिनट का मौन उनके लिए जो कुदरत के कोप के चलते बेवक्त ही महाकाल के गाल में चले गए. प्रार्थना, हर दूसरे साल हिमालय की गोद में क्रोध दिखाने वाले शिव से भी. हे, केदारनाथ... हे, पशुपतिनाथ... अब तांडव बंद कर दो. हर दिन मायूसी की बात करना अच्छा नहीं लगता... त्राहिमाम...त्राहिमाम 

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

तुझमें रब दिखता है...

ये अक्खा इंडिया कहता है


कुछ ऐसा ही हुआ होगा. कृष्ण ने जब गोवर्धन उठाया होगा. अकेले. अपनी सबसे छोटी उंगली पर और जिसने वो दृश्य देखा होगा, वो उन्हें 'भगवान' ना कहता तो क्या कहता ? 


फिर, हमारा कुसूर क्या ? हम भी गवाह हैं, 22 अप्रैल 1998 की उस अद्भुत रात के, जब शारजाह क्रिकेट एसोसिएशन के उस स्टेडियम को रेतीला तूफान उड़ा लेने की ज़िद दिखा रहा था. रेत के अंधड़ के बीच हर कोई छुपने की जगह तलाश रहा था. क्रिकेट का रोमांच धूल भरी तूफ़ानी आंधी में कहां उड़ गया था, पता ही नहीं चला. छुपते, भागते और हांफते लोगों की जमात के बीच सिर्फ एक शख्स था, जो हाथ में बल्ला थामे ऐसे डटकर खड़ा था मानो उसी बल्ले के ज़ोर से तूफ़ान को शारजाह की बाउंड्री के बाहर खदेड़ देगा. ये हौसला 24 बरस की उसकी उम्र, 5 फुट 5 इंच के कद और औसत काठी के मुक़ाबले कहीं बड़ा था. उसका असल कद तो रेतीली हवा का गुबार थमने के बाद दिखा. ऑस्ट्रेलिया की महापराक्रमी टीम के खिलाफ़ उसने वैसे ही बल्ला चलाया, जैसे कृष्ण का सुदर्शन घूमता था. विरोधी गेंदबाज हांफने लगे और भारतीय समर्थक नाचने लगे.

कलियुग में क्रिकेट को धर्म मानने वाले भक्तों ने उसी रात सचिन तेंदुलकर नाम के उस शख्स को भगवान का दर्जा दे दिया. मैं भी ऐसे ही भक्तों में शामिल हूं. इस पोस्ट को पढ़ने वाले लोगों में से अगर कुछ ऐसे हैं, जिन्होंने उस मैच महान मैच को लाइव नहीं देखा, तो मैं बता देता हूं कि स्कोर बोर्ड आपको कभी उस रोमांच की जानकारी नहीं दे सकता जो हमने महसूस किया. ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ वो मैच भारत के लिए सेमीफाइनल सरीखा था. जीत के लिए 285 और फ़ाइनल में पहुंचने के लिए 254 रन चाहिए थे. सौरव, मोंगिया, अजहर, जडेजा सारे बल्लेबाज नाकाम हो गए, लेकिन, अकेले सचिन ने ऑस्ट्रेलिया को घुटने पर ला दिया. अगर अंपायर ने गलत डिसीजन ना दिया होता तो सचिन ने मैच भी जीत लिया होता. 143 रन की पारी के साथ फ़ाइनल का टिकट तो वो न्यूज़ीलैंड से छीन ही लाए. दो दिन बाद अपने जन्मदिन के रोज़ सचिन ने एक और शतक जमाया और ऑस्ट्रेलिया का ट्रॉफी जीतने का ख्वाब तोड़ दिया.
इस मैच के करीब नौ साल पहले पाकिस्तान के पेशावर में भारत और पाकिस्तान के बीच बीस ओवरों का नुमाइशी मैच खेला जा रहा था. सचिन की उम्र तब 16 साल थी. वोे क्रीज पर आए तो भारत को पांच ओवर में सत्तर रन बनाने थे. सचिन ने मुश्ताक अहमद को निशाने पर लिया. ओवर खत्म हुआ तो महान लेग स्पिनर अब्दुल क़ादिर बच्चे से दिखते सचिन सामने खड़े थे. क़ादिर ने पूरे गुरुर में कहा,'बच्चे को क्यों मार रहे हो? हमें मार के दिखाओ?' कादिर को कतई पता नहीं था कि उन्होंने सांड़ को लाल कपड़ा दिखा दिया है. ओवर की पहली गेंद हवा में उड़ते हुए बांउड्री के बाहर. तीसरी गेंद पर चौका और आखिरी तीन गेंदों पर लगातार तीन छक्के. छह गेंदों में 28 रन देने वाले क़ादिर उस ओवर के बाद ऐसे गुम हुए कि फिर सचिन के सामने कभी नहीं दिखे. 



सचिन ने अपने बल्ले से क्रिकेट मैदान पर पराक्रम की जो कहानी लिखी, उसमें एक क़ादिर का ही गुमान नहीं उतरा, उन्हें गेंदबाजी करने वाला हर बॉलर सजदा करते हुए ही गया. सचिन ने इस करिश्मे की शुरुआत उस वक्त की जबकि ब्रायन लारा ने इंटरनेशनल क्रिकेट में एंट्री नहीं ली थी. वीरेंद्र सहवाग की उम्र 11 साल थी और वो बल्ला पकड़ना सीख रहे थे. विराट कोहली सिर्फ एक बरस के थे और घुटनों पर चल रहे थे.
सचिन ने हिंदुस्तान के लिए कितने मैच जीते, मैं इसकी गिनती भी बता सकता हूं, लेकिन वो आंकड़े सचिन के उस सम्मोहन की कहानी बयान नहीं कर सकते, जिसने हिंदुस्तान और पूरी दुनिया को चौबीस साल तक जकड़े रखा. इनमें से करीब डेढ़ दशक ऐसा था, जबकि सचिन की क्रीज पर मौजूदगी ही भारतीय टीम की जीत की गारंटी थी. सचिन खेलते तो स्टेडियम फुल हो जाते. सड़कें सूनी हो जातीं. वो शतक के करीब होते तो ट्रेन तक रुक जातीं. उनके आउट होते ही स्टेडियम खाली हो जाते. टीवी सेट बंद हो जाते. क्रिकेटर सचिन, हिंदुस्तानियों के लिए ऐसी उम्मीद थे, जो उन्हें जीतने का हौसला देती.

क्या आप 24 फरवरी 2010 का वो मैच भूल सकते हैं, जब ग्वालियर में सचिन वनडे क्रिकेट में दो सौ रन बनाने वाले पहले बल्लेबाज बने. उस दिन ममता बनर्जी ने रेल बजट पेश किया था. हर दिन ट्रेन में सफ़र करने वाले करोड़ों लोगों से जुड़ी ख़बर सचिन के दोहरे शतक के जश्न में ऐसे छुप गई, जैसे सूरज निकलने के बाद चांद छुप जाता है.
 हिंदुस्तान में सचिन नाम के जलवे का क्या असर है, सिर्फ महसूस किया जा सकता है. बयान नहीं. 40 साल की उम्र में भारत रत्न होना, इसी जलवे की निशानी है. सचिन आज बयालीस साल के हो गए हैं, लेकिन, ये सिर्फ वो उम्र है जो उनके जन्म से जोड़ी जाती है. उनका जलवा तो सदियों के पार निकल चुका है. कौन जाने इस दुनिया के भी पार...कृष्ण के गोलोक धाम तक.. या फिर विष्णु के क्षीर सागर तक... सुनते हैं, मोदी जी ने कैलाश का नया रास्ता खुलवा दिया है, वहां जाके तो परख हो ही सकती है. क्या पता महादेव के सिंहासन के नीचे कोई शोेएब अख्तर पर अपरकट जड़कर छक्का मारते सचिन का पोस्टर लगा आया हो. चलिए, देख के आएं?



गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

एक मौत, सौ तमाशे!

दिल्ली तेरी बेदिली पर नेता हंसें हम रोए...


ख़त तो आपने पढ़ लिया होगा. सात लाइन के इस ख़त में जो बात रुला देती है, वो है, 'मेरे तीन बच्चे हैं.' ख़ेत में बेशुमार मेहनत के बाद उगी फ़सल बर्बाद हो गई थी. अब उसे अपनी 'नस्ल' की चिंता थी. बड़ी उम्मीद के साथ 'दिलवालों' की दिल्ली आया था. उपाय पूछ रहा था. उसे घर जाना था, किसी दिलासे के साथ, लेकिन, दिल्ली ने तब तक उस पर ध्यान नहीं दिया, जब तक कि वो लटक नहीं गया. 
गजेंद्र सिंह घर लौटा, लेकिन सांसें दिल्ली में छोड़कर. और, दिल्ली के 'रहनुमाओं' को देखिए, वो भाषण देने का मोह तक नहीं छोड़ पाए. किसानों के दर्द की बात करके नरेंद्र मोदी की सरकार को घेरने के लिए रैली बुलाने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को हमने आपने कई बार भावुक होते देखा है, लेकिन गजेंद्र के पेड़ पर झूल जाने के बाद भी ना उनकी आंखें नम हुईं और ना आवाज में दर्द में दिखा. रस्मी तौर पर दो मिनट का मौन रखने का चलन भी उन्हें याद नहीं आया. केजरीवाल साहब गजेंद्र की बेबसी भूलकर पुलिस को कोसने में जुट गए. 
उन्होंने कहा, 'ज्यादा ग्लानि इस बात की हो रही है कि हम लोगों की आंखों के सामने वो पेड़ पर चढ़े. हम बार-बार पुलिस से कहते रहे उसे बचा लीजिए. पुलिस हमारे कंट्रोल में नहीं है. किसी के सामने किसी की जान जा रही हो, वो ये कह के जान नहीं बचाएगा कि मैं उसके कंट्रोल में नहीं हूं.' अब समझिए केजरीवाल का शिकवा क्या है? क्या ऐसा नहीं लगता कि वो कहना चाह रहे हैं कि भाई, देखो अगर दिल्ली पुलिस हमारे अधीन होती तो क्या मजाल थी कि गजेंद्र पेड़ पर जान दे देता. अब कोई पूछे, केजरीवाल साहब, पूरी आम आदमी पार्टी बार-बार कहती है, आपकी अपील में बहुत दम है. आपने इस अपील को गजेंद्र को बचाने के लिए क्यों नहीं इस्तेमाल किया ? पुलिस निकम्मी ठहरी. आप ही कुछ कर लेते. 

किस्सा सिर्फ एक केजरीवाल का नहीं. उनकी पार्टी भर का नहीं. हमारे वोटों का हर सौदागर इस त्रासदी को सबक मानने के बजाए नौटंकी में जुटा दिखा. बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा ने केजरीवाल से गजेंद्र के पेड़ पर लटकने के बाद सत्तर मिनट चली रैली का हिसाब ऐसे मांगा, जैसे वो खुद को 'चक दे इंडिया' का शाहरुख समझ रहे हों और किसी हॉकी टीम से 70 मिनट के खेल का हिसाब मांग रहे हों. केजरीवाल ने दिल्ली पुलिस और बीजेपी को कोसा तो पात्रा और बीजेपी के बाकी नेताओं ने आम आदमी पार्टी की 'संवेदनहीनता' पर ऐसे सवाल उठाए मानो कोई पुराना हिसाब चुकाने आए हों. पात्रा साहब, दिल्ली तो आपकी भी है. देश और किसानों के भाग्य को संवारने की जिम्मेदारी पांच साल के लिए आपको मिली है. सरकार बनने के शुरुआती दिनों में जब कामकाज पर सवाल पूछे गए तो प्रधानमंत्री जी ने कहा कि उन्हेें सौ दिन का 'हनीमून पीरियड' भी नहीं मिला. अब तो सरकार बने 11 महीने हो गए! ये ठीक है आप 11 महीने में देश का भाग्य नहीं बदल सकते, लेकिन, ऐसे हादसे के वक्त इतना तो कह सकते हैं, हां, 'हम भी गुनहगार हैं. हम अपने गिरेबां में भी झांकेंगे' लेकिन, नहीं, आप भी उसी जमात का हिस्सा हैं, जो सिर्फ क्रेडिट लेना जानती है. आप भी मानते हैं कि गुनाह की जिम्मेदारी दूसरों के मत्थे होनी चाहिए.
 
आप के इस प्रहसन का ही नतीजा है कि मेहनतकश और बुलंद हौसले वाले किसानों की हिम्मत जवाब देने लगी है. आंकड़े बताते हैं कि हर घंटे दो किसान जान दे रहे हैं, लेकिन, कौन पूछता है?. गजेंद्र ने भी दिल्ली के बजाए दौसा में जान दी होती तो उसे भी कौन पूछता ? गजेंद्र के बलिदान पर शुरु हुई राजनीति अभी थमती नहीं दिखती. तमाशा जारी रहेगा. मुझे उसमें दिलचस्पी नहीं. मेरा सवाल तो दिलवालों के शहर से है, दिल्ली, तुम तो ऐसी नहीं थी. तुम्हारी पहचान तो तुम्हारे दिलदार होने से है. कुछ तो ऐसा करो कि गजेंद्र को जिन तीन बच्चों की चिंता थी, उनकी किस्मत संवर जाए. 

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

मैं नहीं आंसू बहायो...

'रिपोर्टर सब बैर पड़े हैं बरबस कहानी बनायो' 


नहीं दोस्तो, मैं महाकवि सूरदास होने की कोशिश में नहीं . हो भी नहीं सकता . नाता अपना भी ब्रज से है. कृष्ण भक्ति भी हमें जोड़ती है, लेकिन, बाबा सूरदास की दिव्य दृष्टि कहां मिल सकती है ? होती तो भी गिरिराज सिंह के आंसू नहीं दिखते. दृष्टि अगर दिव्य हो तो कृष्ण के सिवा कुछ दिखता कहां है? 

कृष्णकाल में कुछ समय के लिए दिव्य के आसपास वाली दृष्टि संजय को भी मिली थी. संजय, हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र के ड्राइवर थे. उस दौर में गाड़ियां नहीं रथ थे और उन्हें चलाने वाले सारथी कहलाते थे. धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे, लेकिन, वो महाभारत युद्ध लाइव देखना चाहते थे. उनके जैविक पिता महर्षि वेदव्यास को जब जानकारी हुई तो उन्होंने धृतराष्ट्र को दिव्य दृष्टि देने की पेशकश की. धृतराष्ट्र में अपनी आंखों से महाभारत देखने का साहस नहीं था. ऐसे में व्यास जी की कृपा संजय पर हुई, जिससे वो महाराज को महायुद्ध का आंखों देखा हाल सुना सकें. 

महाभारत की इस कथा से गिरिराज सिंह भी वाकिफ हैं. टीवी पर जब खबर चली कि गिरिराज सिंह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फटकार लगाई और वो फूट-फूटकर रो पड़े तो खबर का खंडन करने के लिए उन्हें सबसे पहले महाभारत के संजय ही याद आए. गिरिराज ने खबर ब्रेक करने वाले रिपोर्टर से पूछा, आप क्या महाभारत के संजय है ? जब प्रधानमंत्री से मेरी मुलाकात ही नहीं हुई तो प्यार और फटकार का सवाल ही कहां ?' 
हालांकि, मोदी सरकार के माननीय राज्यमंत्री इतना जरुर जानते हैं कि आज के दौर में संजय वाली नज़र कैमरे के पास है. तकनीक की प्रगति के दौर में कैमरे के जरिए किसी भी जगह की तस्वीरें दूसरी जगह सीधे देखी और दिखाई जा सकती हैं. मोबाइल जब से वीडियो रिकॉर्डिंग की क्षमता से लैस हुए हैं, तब से गली-गली संजय घूमने लगे हैं. ऐसे ही एक 'संजय' ने कैमरे की दिव्यदृष्टि के दम पर गिरिराज सिंह के लिए वो हालात बना दिए है कि कभी उन्हें खेद जताना पड़ रहा है, कभी कथित फटकार और आंसू बहाने का खंडन करना पड़ रहा है.
एक निजी महफिल में कैमरे ने अगर संजय की भूमिका ना अदा की होती तो गिरिराज सिंह आज भी उतने ही जोश में गरज रहे होते, जैसे कि वो बिहार के सीएम नीतीश कुमार को चुनौती देते वक्त करते हैं, लेकिन, कैमरे में कैद हुए एक छोटे से वीडियो ने उनकी सुर-ताल ही बदल दिए. इस वीडियो में गिरिराज कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बारे में अशोभनीय टिप्पणी करते दिखते हैं. विवादित वीडियो में मंत्रिपद की ठसक के साथ समर्थकों के बीच बैठे गिरिराज सिंह सवाल करते हैं, ' अगर राजीव गांधी कोई नाइजीरियन लेडी से ब्याह किए होते, गोरी चमड़ा ना होता तो क्या कांग्रेस पार्टी नेतृत्व स्वीकार करती?'

गिरिराज ऐसी बातें करने वाले अकेले मंत्री नहीं. निजी पलों या फिर चम्मच ब्रिगेड के बीच तमाम नेता मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार कर ही जाते हैं. लेकिन, कहते हैं जो बच गया वो सयाना और जो पकड़ा गया वो... गिरिराज. अगर ये टिप्पणी सोनिया गांधी को लेकर ना होती तो गिरिराज पकड़ में आकर भी ना कुसूर मानते ना खेद जताते. लोकसभा चुनाव के ठीक बाद घर में हुई चोरी और चोरों के सामने आने पर खुली कहानी को लेकर उनकी प्रतिक्रिया से सब वाकिफ हैं. गिरिराज ने मोदी विरोधियों को पाकिस्तान जाने की हिदायत देने वाले बयान पर भी कभी खेद जाहिर नहीं किया. दरअसल, उनकी राजनीति का ग्राफ ही ऐसी बयानों के इर्दगिर्द ऊपर गया है. विवादों के घेरे में होने के बाद भी गिरिराज को उनकी पार्टी ने कभी हंटर नहीं दिखाया. कभी हद में रहने को ऐसी सख्ती से नहीं कहा कि वो आग उगलने के पहले संभल जाएं. हर विवाद के बाद पार्टी ने उन्हें पुरस्कृत ही किया. सबका साथ-सबका विकास का नारा देने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें इनाम में मंत्रिपद भी दिया.

लेकिन, क्यों ? गिरिराज पर मोदी की मेहरबानी की दो वजहें हैं. पहली तो ये कि जिस वक्त नीतीश कुमार ने एनडीए में रहते हुए मोदी का विरोध शुरु किया, उस वक्त गिरिराज ही बिहार बीजेपी के ऐसे नेता थे, जो मोदी के समर्थन में नीतीश को आड़े हाथों लेने में जुटे थे. दूसरी वजह है, बिहार के राजनीतिक समीकरण. इस साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. ये चुनाव मोदी और बीजेपी के लिए अग्निपरीक्षा की तरह हैं. बिहार की एक दबंग जाति का प्रतिनिधित्व करने और विरोधी को उसी की भाषा में जवाब देने की खूबी की वजह से गिरिराज को भाव देना बीजेपी और मोदी के लिए जरुरी भी है और उनकी मजबूरी भी. गिरिराज खुद भी संकेत देते हैं कि बिहार चुनाव तक उनका मंत्रिपद सुरक्षित है. 

स्थिति कुछ ऐसी है कि गिरिराज के बयानों की वजह से पार्टी की किरकिरी कितनी भी हो, उन्हें दंड देना तो दूर किनारे भी नहीं किया जा सकता . 56 इंच के सीने वाले प्रधानमंत्री उन्हें सार्वजनकि तौर पर फटकार भी नहीं सकते. ऐसे में सूत्रों के हवाले से ऐसी खबर का आना कि प्रधानमंत्री ने गिरिराज को फटकारा और वो फूट-फूटकर रोए, सिर्फ ऐसा भरम  बनाता है, जिसका मामूली फायदा प्रधानमंत्री को मिल सकता है. लेकिन, ये बात भरम से आगे बढ़े ऐसा बीजेपी और प्रधानमंत्री भी नहीं चाहते होंगे. गिरिराज की यूएसपी उनकी बेबाक बयानी ही है. बिहार चुनाव में बीजेपी को इसकी बहुत जरुरत पड़ने वाली है. अगर चुनाव के पहले उन पर सेंसर लगाया गया तो फायदा विरोधियों को ही होगा. यही वजह है कि फटकार की खबर आते ही गिरिराज को अपना पक्ष रखने की छूट दे दी गई और वो कहने लगे, 'मैं नहीं आंसू बहायो' ताकि पार्टी की शर्म बची रहे और गिरिराज के निरापद होने का भरम...

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

सरोकार पर भारी 'सरकार' का सूट

भारतीय राजनीति का फ़ैशन फंडा 


बराक ओबामा मुस्कुराए. अगले पल उन्होंने जो कहा, उसने अचानक ही, भारतीय राजनीति की दलदली जमीन पर कमल की तरह खिले नरेंद्र मोदी को सजी संवरी फ़ैशन की दुनिया में पहुंचा दिया. ओबामा ने कहा, ' हमारे घरेलू अखबार लिखते हैं, मिशेल ओबामा परे हट जाइये. दुनिया को नया फ़ैशन आइकन मिल गया है.' मिशेल, अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी हैं और उनके फ़ैशन की समझ की दुनिया कायल है. ओबामा भारतीय ज़मीन पर ख़ड़े होकर बड़े इत्मिनान से बता रहे थे कि उनकी पत्नी का फ़ैशन सेंस अब फीका पड़ने लगा है. मोदी उनसे कही आगे निकल गए हैं.

बराक ओबामा ने जो कहा, उसकी सचाई परखने के लिए अमेरिकी अखबारों को पलटने की जरुरत नहीं. बस, ओबामा के जनवरी के भारत दौरे को याद कर लीजिए. ओबामा, नरेंद्र मोदी के बुलावे पर गणतंत्र दिवस समारोह में चीफ गेस्ट के तौर पर आए थे. दौरा एतिहासिक था. पहली बार अमेरिका का कोई राष्ट्रपति भारत के गणतंत्र दिवस कार्यक्रम में शरीक हुआ. लेकिन, महज़ तीन महीने बाद उस दौरे की जो इकलौती बात लोगों के जेहन में ताज़ा है, वो है, मोदी का बार-बार ड्रेस बदलना. मोदी ने ओबामा का एयरपोर्ट पर स्वागत किया तो वो जैकेट के ऊपर शॉल डाले थे. उस रात डिनर के वक्त बैगी सूट पहने थे और गणतंत्र दिवस समारोह में बंद गले के सूट के ऊपर पगड़ी बांधे थे.



लेकिन, मोदी के जिस सूट ने दिल्ली के चांदनी चौक से लेकर न्यूयॉर्क के फिफ्थ एवेन्यू तक का ध्यान खींचा वो कुछ 'खास' था. नीले रंग के बंद गले के सूट पे बारीक धारियां थीं. गौर से देखने पर जाहिर हुआ कि इस पर भारतीय प्रधानमंत्री का पूरा नाम कढ़ा था, नरेंद्र दामोदर दास मोदी.

मोदी के इस सूट ने अचानक राजनीति की सूरत बदल दी. ओबामा उनके फ़ैशन सेंस के कायल हो गए. मान लिया कि भारतीय प्रधानमंत्री उनकी पत्नी से आगे निकल गए हैं. लेकिन, फ़ैशन वर्ल्ड में मोदी की बढ़त भारतीय राजनीति में उनके लगातार बढ़ते ग्राफ को आगे ले जाने में कामयाब नहीं हुई. प्रतीकों की राजनीति में मोदी से पिछड़ते विपक्षी दलों को 10 लाख का बताया गया ये 'सूट' भा गया. मौका दिल्ली चुनाव का था. मफ़लर लपेटकर बेचारगी जाहिर करने वाले अरविंद केजरीवाल ने दस महीने से उफ़ान पर दिखती मोदी को लहर को थामा तो अमेरिकी अखबारों तक ने इसे 'दस लाख के सूट पर मफ़लरमैन' की जीत बताया.


दिल्ली चुनाव का नतीजा आने के दस दिन के अंदर ही मोदी ने इस चर्चित सूट को गंगा के नाम कर दिया. एक नीलामी में ये सूट करीब 4 करोड़ रुपये में बिका. सूट गया, लेकिन, उसकी यादें बाकी हैं. दो महीने के ब्रेक के बाद सक्रिय राजनीति में लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सोमवार को एक बार फ़िर मोदी के सूट की याद ताज़ा करा दी. लोकसभा में किसानों का दर्द बयान करते राहुल ने मोदी सरकार को 'सूट-बूट सरकार' बताया. अब तक राहुल लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त और अपनी छुट्टी को लेकर लगातार बीजेपी के निशाने पर थे, लेकिन, सिर्फ एक सूट के जिक्र के जरिए उन्होेंने बीजेपी को डिफेंसिव होने के लिए मजबूर कर दिया.



सूट की सियासत के बीच मोदी का पिछड़ना हैरान करने वाला है. मोदी अपने आक्रामक तेवरों के लिए मशहूर हैं. वो विपक्ष के हमलों को अपने हक़ में भुनाने का हुनर जानते हैं. इस अंदाज ने ही उन्हें ताज दिलाया है. फिर जाने क्यों, एक सूट ने उन्हें सन्नाटे में ला दिया है. मोदी अपने अंदाज में सवाल कर सकते हैं, 'सूट पहनना कोई गुनाह है क्या?' भारत का ऐसा कौन सा प्रधानमंत्री हुआ है, जिसने सूट नहीं पहना ? जवाहर लाल नेहरू? राजीव गांधी? गांधीवादी मोरारजी देसाई? या फिर स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी ?


साभार
राहुल गांधी भी सूट में दिखते रहे हैं. दूसरे कई नेता भी सूट पहनना पसंद करते हैं. लेकिन, प्रतीकों की राजनीति की वजह से ज्यादातर मौकों पर कुर्ते में ही नज़र आते हैं.



कपड़े पर नाम लिखा हो, ये भी कोई गुनाह तो नहीं. अरविंद केजरीवाल ने तो दूसरों तक को ऐसी टोपियां पहना दी हैं, जिन पर उनका नाम लिखा हो.



सूट की सियासत को लेकर मोदी की झिझक समझ के परे है. उन्हें तो साफ़ कहना चाहिए, सरकार की पहचान सूट से नहीं सरोकार से होती है. 'सरकार' कुर्ते में दिखें, मफलर बांध लें या सूट में नज़र आएं, जनता को फर्क नहीं पड़ता. उन्हें शिकायत तभी होती है, जबकि आपके मखमली कपड़े उसकी तार-तार होती तकदीर पर पैबंद नहीं लगा पाते. क्यों किसान भाईयो, सच है ना!

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

बाप तो बाप होता है!

... हैसियत नहीं उसके जज़्बात देखो


ये कहानी एक बच्ची सुनाती है. उम्र होगी कोई पांच- छह साल. अपने पिता की कहानी. कहानी में मां का कोई ज़िक्र नहीं. दो ही किरदार हैं. पापा और बेटी. लड़की की नज़र में दुनिया का कोई भी शख्स उसके पापा से बढ़कर नहीं. वो सबसे हैंडसम है. दमदार है. दिलदार है. बेटी की हर ख्वाहिश उनकी ज़िंदगी का मकसद है. 




वो सबसे सच्चे आदमी है. सबसे अच्छे इंसान है. लेकिन, बेटी को एक शिकायत है. पापा, उससे झूठ बोलते हैं. अपने काम के बारे में. बेटी के सामने वो खुद को एक अमीर आदमी के तौर पर पेश करते हैं, लेकिन, हक़ीकत में उनके पास करने को ऐसा कोई काम नहीं, जिस पर ज़माना फख्र कर सके. दरअसल, वो बेरोजगार हैं. लेकिन, बेटी से उन्हें इस कदर मुहब्बत है, जिसके आगे बेकारी बेमानी हो जाती है. बेटी छोटी है, लेकिन, उसके सपने बड़े हैं. उसे खिलौने चाहिए. सुंदर कपड़े चाहिए. अच्छा स्कूल चाहिए. पापा की ज़िद है, उसका हर अरमान पूरा हो. ज़िद है तो जतन भी हो ही जाता है. बेटी के लिए वो, जो काम मिले करने को तैयार रहते हैं. बोझ उठाते हैं. होटल में वेटर बन जाते हैं. कई बार तो वॉशरुम और टॉयलेट की सफ़ाई भी करते हैं. शाम को भरी जेब के साथ टिपटॉप बने बेटी के सामने पहुंचते हैं. 




कहानी में ट्विस्ट आता है. एक दिन बेटी को सच पता चलता है. मासूम बच्ची उसी एक पल में बड़ी हो जाती है. उसे दर्द भी है और शिकवा भी. पापा पर फ़ख्र भी है और उनकी बेबसी पर मायूसी भी. आंसू छलक जाते हैं. पहले बेटी के, फिर पापा के. ये कहानी एक छोटे से वीडियो के तौर पर दोस्तों ने व्हॉट्सएप पर शेयर की थी. यकीन मानिए, वक्त के ताप ने आंखों की नमी को भाप ना बनाया हो तो ये वीडियो देखते वक्त आंसू रोकना आसान नहीं होगा. और अगर छलके तो ये आंसू एक बाप के होंगे. 



ये कहानी मैंने लिखकर दोहराई है तो सिर्फ इसलिए कि एक ख़बर हर किसी का ध्यान खींच रही है. बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के एक छोटे से कस्बे नरकटियागंज की एक होनहार लड़की भारत की अंडर-14 फुटबॉल टीम की कप्तान बन गई है. अब फ़ुटबॉल हिंदुस्तान में कितना लोकप्रिय है, सब जानते हैं. हमारे दोस्त गुंजन कुमार की तरह अगर हर जानकारी को दिमाग में फीड करने का सॉफ्टवेयर ना हो तो शायद आप भारत की फुटबॉल टीम के कप्तान का नाम भी ना बता सकें. फ़िर, सोनी नाम की इस लड़की के अंडर-14 टीम का कप्तान बनने की इतनी चर्चा क्यों है? वजह ये है कि सोनी के पिता नेपाल में तांगा चलाते हैं. सोनी गुदड़ी से निकली हुई 'लाली' है. उसकी कामयाबी बड़ी इसलिए है कि वो गरीब की गोद में पलने के बाद भी मुफलिसी को फुटबॉल की तरह ठोकर मारते हुए कप्तान बन गई है.  

ये अपने तरह की इकलौती ख़बर नहीं. साल- छह महीने में ऐसी ख़बरें निकल ही आती हैं. एक ख़बर मुंबई की काबिल लड़की की थी, जिसने सीए के एग्ज़ाम में टॉप किया था. उसके पिता अॉटोरिक्शा चलाते हैं. ऐसे ना जाने कितने पिता हैं, जो बच्चों को अपनी हैसियत से बड़े सपने देखने का हौसला देते हैं. लेकिन, जब वक्त नतीज़े का आता है, तो ज़िक्र बच्चे की कामयाबी और बाप की ग़रीबी का होता है. व्हॉट्सएप के वीडियो में कहानी सुनाने वाली बच्ची को शिकायत अपने पिता के झूठ से थी और मेरा एतराज बाप की 'गरीबी' के बाज़ार में खड़े होने को लेकर है. इस गरीब के हौसले को उस वक्त कोई सलाम नहीं करता, जबकि वो अपनी बेटी या बेटे के सपनों को पंख लगा रहा होता है. 


हमने और आपने गरीबी और कामयाबी के मेल की ऐसी कहानियों पर लोगों को भावुक और दीवाना होते देखा है. खासकर राजनीति में. गरीब और गरीबी को हथियार बनाकर कांग्रेस ने हिंदुस्तान पर करीब आधा सदी राज किया है. कांग्रेस को मात देने वाले नरेंद्र मोदी ने भी अपनी गरीबी की कहानी को जमकर भुनाया है. मोदी की जीत में उनके गरीब 'चायवाला' होने का असर कम नहीं रहा. लेकिन, मज़ा देखिए, ये 'गरीब चायवाला' जब प्रधानमंत्री बनके जन्मदिन पर बूढ़ी मां का आशीर्वाद लेने जाता है तो वो कुछ मांगती नहीं. हाथ में कुछ रुपये थमा देती है. मां-बाप के जज़्बात हैसियत से नहीं बदलते. आपने कहानियां ऐसी भी सुनी होंगी, जहां तरक्की के बाद बच्चे गरीब मां- बाप का परिचय देने से कतराते हैं. लेकिन, कोई मां या बाप ऐसा करता है, इसके किस्से शायद ही सामने आते हों. बात निकली है तो जमाने के चलन की भी पड़ताल हो जाए. अमीर के बच्चे कामयाबी हासिल करते हैं तो क्रेडिट 'बड़े बाप' को जाता है. गरीब के बच्चे कुछ करते हैं तो किस्सा बच्चे के करिश्मे का बनता है. राजनीति से प्रेरित बाज़ार ने ऐसा ही ढर्रा बना दिया है. एक तरफ़ बच्चे से नाइंसाफ़ी होती है तो दूसरी तरफ़ मां-बाप की कुर्बानी की अनदेखी होती है. ऐसी कहानियों का बाज़ार सिर्फ़ हैसियत देखता है जज़्बात नहीं. मैं गरीबी की दीवार पार कर कामयाबी की डगर पर बढ़े बच्चों की ख़बर के ख़िलाफ़ नहीं. इनसे तो तमाम लोगों को प्रेरणा मिलती है. गुजारिश तो सिर्फ़ इतनी है कि बाप को बाज़ार में खड़ा करके उसके जज़्बातों का मोल ना लगाओ. यकीनन, उसे ख़बर होने से ज्यादा खुशी बाप होने में मिलती है.