अविश्वसनीय लेकिन सच है!
बात हक की है. कम
से कम महिलाएं 'यहां' अपना हक़ लेना जानती हैं. इससे
बेशक दिल्ली की तस्वीर न बदलती हो. 16 दिसंबर 2012 को चेहरे पर लगा बदनुमा दाग न
धुलता हो, लेकिन, एक स्टीकर पर लिखे 'तीन शब्दों' को दिल्ली जितनी इज्ज़त देती है, उसको सलाम तो बनता है.
दिल्ली मेट्रो में सफ़र करते 11 साल से ज्यादा वक्त हो गया. शुरुआत में सफ़र का मक़सद उत्सुकता थी. उस वक्त मेट्रो का इतना विस्तार भी नहीं था. दिल्ली में लाइन का जाल बिछा तो मेट्रो जरुरत बन गई. 'पीक आवर' में भीड़ में पिस जाने की घबराहट और टनल में अचानक मेट्रो के रुक जाने पर होने वाली बेचैनी के वक्त जाने कितनी बार मेट्रो में सवार न होने की कसम ली है. फिर भी कोई कशिश तो मेट्रो में है, जो खींच लेती है. हर दिन एक्सरसाइज़ न कर पाने की खीज मेट्रो की अंतहीन सीढ़ियां चढ़ने में गुम हो जाती है. सड़क पर सिग्नल दर सिग्नल रेंगते हुए चलने और ऑटोवालों से किराए को लेकर होने वाली किचकिच से मेट्रो मज़े में बचा लती है. ईमेल चेक करते, व्हॉटसएप पर आए मैसेज पढ़ते बीस से पच्चीस मिनट का सफ़र कैसे कट जाता है, पता नहीं चलता.
अगर आप शुरुआती स्टेशन से मेट्रो में सवार नहीं होते तो सीट मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं होता. हर मुसाफिर ऐसे ही चमत्कार की आस लिए मेट्रो में दाखिल होता है. कनॉट प्लेस के स्टेशन (राजीव चौक) को छोड़ दें तो हर जगह सीट पाने को आपाधापी सी दिखती है. मेट्रो का दरवाजा खुलते ही प्लेटफॉर्म पर खड़े लोग ऐसे लपकते हैं, जैसे डर हो समुद्र मंथन से निकला अमृत पल भर की देर होने पर गुम हो जाएगा. अगर आप इत्मिनान के हामी हैं और 'सीट प्रेमी लपका ब्रिगेड' के एक्शन व्यवहार पर नज़र रखने का इरादा बनाकर मेट्रो में सवार होते हैं तो यकीन कीजिए आप हर दिन एक दिलचस्प कहानी लेकर उतरेंगे.
मैं आज मेट्रो में लगे जिस स्टिकर की बात कर रहा हूं, आपको भी उसकी ताक़त का अंदाजा होगा. हरे रंग के इस स्टिकर ने दिल्ली को बेहद सभ्य, समझदार और उदार बना दिया है. महिलाएं इत्तेफ़ाक रखें या नहीं, इस स्टिकर ने उनकी 'शक्ति' में इज़ाफ़ा कर दिया है. इरादा परखने का हो तो यकीनन आजमा के देखिए. अगर किसी कोच में वो दो सीट खाली हैं, जिन के ऊपर 'For Ladies Only' यानी सिर्फ़ महिलाओं के लिए लिखा हो, तो 100 में से 60 फ़ीसदी उम्मीद है कि वो तब तक खाली ही रहेंगी, जब तक कि कोई महिला ही उसे आकर धन्य न कर दे.
मैंने कल ही गौर किया. कॉलेज में पढ़ने वाले पांच लड़के आठ डिब्बे वाली मेट्रो के आखिरी कोच में सवार हुए. इत्तेफ़ाक से एक तरफ एक साथ पांच सीट खाली थीं, लेकिन उनके बीच एक अजीब होड़ शुरु हो गई. उनमें से कोई भी उन दो सीटों पर नहीं बैठना चाहता था, जिनके ऊपर महिलाओं के आरक्षित होने का स्टिकर लगा था. तीन 'अनारक्षित' सीटों पर बैठे लड़के कहते रहे, ' बैठ जाओ यार. कोई आए तो हट जाना ' लेकिन, बाकी बचे दो लड़कों को खड़ा रहना मंजूर था, महिलाओं के लिए आरक्षित पर बैठना नहीं. बाद में वो मेट्रो का नियम भंग करते हुुए फर्श पर बैठ गए, लेकिन, लेडीज़ सीट पर नहीं बैठे. ऐसा मैंने पहली बार नहीं देखा. महिला सीट पर बैठने की गुस्ताखी अपने से भी नहीं होती. अगर कोई पुरुष ऐसी सीट पर बैठ भी जाए तो महिला के आते ही ऐसे खड़ा हो जाता है, जैसे क्लास में प्रिंसिपल के आते ही सारे छात्र खड़े हो जाते हैं. अगर कोई न उठे तो शाम तक उनकी तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है. जैसे कि 2014 में इन दो महाशयों की हुई थी.
मेरे कहने का ये मक़सद कतई नहीं कि लेडीज सीट छोड़ने वाले सिर्फ डर की वजह से ऐसा करते हैं. ज्यादातर लोगों का फ़ैसला उनकी विनम्रता और अनुशासन से जुड़ा होता है. मैंने 'अनारक्षित' सीटों पर बैठे ऐसे लोगों को भी देखा है जो किसी महिला के आते ही अपनी जगह ऑफर कर देते हैं और खुद खड़े होकर सफ़र पूरा करते हैं. ये लोग भी उसी दिल्ली का हिस्सा हैं, जिसे मेट्रो का प्रबंधन करने वालों ने किसी वक्त महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रही माना था और एक कोच रिजर्व करने का फ़ैसला किया था. ये बात 2010 की है.
उसके बाद दिल्ली की तस्वीर बहुत बदली. दिसंबर 2012 के 'निर्भया कांड' के बाद कई सवाल उठे और उन्हें उठाने वाली सिर्फ़ महिलाएं नहीं थीं. उनके हक़ की आवाज पुरुष साथियों ने भी बुलंद की. लेकिन, हक़ (सीट) के लिए महिलाओं का जितना आग्रह मेट्रो में दिखता है, उतना कहीं और नहीं.