शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

आपने हंसाया और

हम वोट दे आए... 


इरादा अपनी पीठ ठोकने का नहीं है. 

कतई नहीं. 

ऐसी उम्मीद भी नहीं कि कोई मुझे राजनीति का पंडित, विश्लेषक या फिर जनता की 'नब्ज' का पारखी माने. 

फिर नतीजों को लेकर मैंने कोई गारंटीशुदा बात भी नहीं की थी. 

पहले जो कहा था, आज भी बस वही दोहराऊंगा. 

मैंने कहा था कि बिहारी 'बुड़बक' नहीं है. 

http://raishumari.blogspot.in/2015/10/blog-post.html

और, बिहार विधानसभा के चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले होंगे. 

और जीतेगा वही जो सबसे ज्यादा 'एंटरटेन' करेगा 

http://raishumari.blogspot.in/2015/04/blog-post_16.html

मांझी एंटरटेनर थे लेकिन नई पार्टी को कामयाबी दिलाने के दबाव ने उनके मसखरेपन को गुम कर दिया. 

नरेंद्र मोदी ने कोशिश की लेकिन लोकसभा जैसा माहौल नहीं जमा पाए. 

वो ज्यादातर वक्त एंग्री सुपरमैन के रोल में रहे. चीखते, चिल्लाले, कोसते या शिकायत करते दिखे. 

लंदन में मोदी का जो अंदाज दिखा, उसकी झलक भर बिहार में दिखा दी होती तो वोटर इस कदर नहीं रूठते. 

बीजेपी के बाकी नेता शायद 'हंसने-हंसाने' में यकीन ही नहीं करते. 

खास किस्म के अनुशासन ने शायद उनका 'सेंस ऑफ ह्यूमर' विकसित ही नहीं होने दिया. 

या फिर वो शायद ये मानते हों कि हंसे तो 'राष्ट्रवादी' बुरा न मान जाएं. उन्हें 'नॉन सीरियस' न समझा जाए.

एंटरटेनमेंट में बाजी मारी लालू प्रसाद यादव ने. 

अमित शाह लिफ्ट में फंसे तो उनके पेट का नाप लेने लगे. 

प्रधानमंत्री के समर्थक रैलियों में जिस तरह उन्हें चीयर करते हैं, उसकी बार-बार नकल की. 

मोदी ने बिहार के लिए स्पेशल पैकेज का ऐलान किया तो उसकी मिमिक्री करने लगे. 

और तो और, एक रैली में मंच पर पंखा गिर गया तो भी हंसने-हंसाने से नहीं चूके.

मुश्किल सवालों का जवाब भी हंसते-हंसते दिया. 

मुलायम सिंह यादव महागठबंधन से अलग हुए. 

पूछा गया कि समधी छोड़ गए तो लालू ने कहा, 'मेरे दो साले भी मुझे छोड़ चुके हैं'

जवाब सुनते ही ठहाके गूंज पड़े  

लंबे वक्त के बाद चुनावी मौसम में लालू हंसे भी खूब- हंसाया भी खूब. 

लालू के आसपास कोई आ ही नहीं पाया. तो वोटरों ने हंसते-हंसते उन्हें सबसे ज्यादा सीटें थमा दीं. 

हर वक्त सीरियस रहने वाले नीतीश कुमार भी वोटरों को एंटरटेन करने में पीछे नहीं रहे. 

क्या आपको याद है, पहले कभी नीतीश ने पेरोड़ी की थी, वो भी थ्री ईडियट स्टाइल?

और, जो लोग इन नतीजों को यादव, कुर्मी, ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत यानी जातिगत वोटिंग के खांचे में देख रहे हैं, उनसे विनम्रता के साथ मैं कहना चाहता हूं कि सर जी आपसे मैं इत्तेफाक नहीं रखता. 

जातिगत समीकरण देखकर टिकट सिर्फ महागठबंधन ने नहीं दी थी. 

भारतीय जनता पार्टी के आधुनिक 'चाणक्य' अमित शाह ने भी दी थी. 

जाति का यही फॉर्मूला लोकसभा चुनाव में भी आजमाया गया था. तब भी वोटरों ने जाति और जुमलों से अलग अपनी पसंद की लाइन ली थी. 

अब भी यही किया है. वो आगे भी यही करेंगे. 

बिहार के वोटर खुशनुमा माहौल पसंद करते हैं. चीखते- चिल्लाते, रोते- धोते, शिकायत करते नेता उन्हें रास नहीं आते. 

अगली बार बिहार के समर में उतरें तो याद रखिएगा, वोटरों को एंटरटेन करेंगे तो जीत गारंटी के साथ मिलेगी. 

जाति के गणित पे बिहार के चुनाव में जुआ खेलना चाहेंगे तो वोटर धम्म से जमीन पर पटक देंगे. 

'पक्के' वोट बैंक के बाद भी लालू जी ने दस साल पटक ही खाई थी. 

और, जिस 'जाति' को चुनाव में उन्होंने दरकिनार किया, उससे उनके जुड़ाव के कुछ अनसुनी कहानियां स्टोर में हैं. आप कहेंगे तो किसी दिन वो भी बयान कर दी जाएंगी. 

सोमवार, 2 नवंबर 2015

वीरु बोले तो...

एक बदकिस्मत 'सुल्तान'

उन दिनों क्रिकेट किसी फितूर की तरह सिर पर सवार रहता था. 

सचिन बैटिंग कर रहे हों तो फिर कोई भी काम इतना जरूरी नहीं लगता था जिसे उनकी पारी खत्म होने तक टाला न जा सके. 

जुलाई- अगस्त 2001 की उस सीरीज़ में सचिन तेंदुलकर नहीं खेल रहे थे. 

क्रिकेट देखने की सबसे बड़ी वजह ही मौजूद न हो तो मैच छोड़ा भी जा सकता था. 

तो मैने स्कूटर उठाया और फतेहपुर सीकरी जाने वाली सडक पकड़ ली. 

आना-जाना मिलाकर कोई डेढ सौ किलोमीटर का सफर था. मुझे उम्मीद थी कि छह घंटे में लौट आऊंगा और मैच अगर 50 ओवर तक चला तो आखिरी ओवरों का खेल देखने को भी मिल जाएगा. 

हुआ भी यही. न्यूज़ीलैंड के खिलाफ उस मैच को भारत ने छियालीसवें ओवर में ही जीत लिया और मैंने द्रविड़ को विनिंग शॉट लगाते देखा. मिडऑफ बाउंड्री को पार करती गेंद चार रन के लिए निकल गई. 

लेकिन इस जीत से ज्यादा चर्चा उस बात की थी जिसे मैंने मिस कर दिया. 

हर कोई सचिन तेंदुलकर के 'क्लोन' की बात कर रहा था. 

ये क्लोन थे वीरेंद्र सहवाग. ये सहवाग का पहला मैच नहीं था. वो 1999  में टीम में आए थे और इस मैच के पहले 14 मैच खेल चुके थे. एक हाफ सेंचुरी भी जमा चुके थे  मिडिल ऑर्डर में बल्लेबाजी करते हुए. लेकिन, उन पर किसी का ध्यान गया हो, ये आज मैं दावे से नहीं कह सकता. 

लेकिन, सिर्फ सात घंटे में वो क्रिकेट की दुनिया की सबसे बड़ी 'सनसनी' बन चुके थे. 

उस दौर में सचिन तेंदुलकर का क्या रुतबा था, इसे आज चाहकर भी बयान नहीं किया जा सकता. 

बस ये समझिए कि सचिन हिंदुस्तान की धड़कन थे. 

आज की तरह उन दिनों क्रिकेट सिर्फ एक खेल भर नहीं था. 

वो वक्‍त वनडे के सबसे सुनहरे दौर में से एक था. 

और सचिन वनडे के सबसे बड़े खिलाड़ी थे. सिर्फ रिकॉर्ड के दम पर नहीं. बल्लेबाजी की उस रौबीली शैली की वजह से जो तब के जानकारों के मुताबिक उनके पहले सिर्फ विवियन रिचर्ड्स के पास थी. 

भारत ने श्रीकांत जैसे विस्फोटक ओपनर का खेल देखा था लेकिन श्रीकांत की अपनी सीमाएं थीं. 

और सचिन, उन्हें तो उस दौर में किसी सीमा में बांधना ही मुमकिन नहीं था. 

वो गेंदबाजों को पीटते भर नहीं थे, उनके धुर्रे बिखेर देते थे. अकरम से लेकर मेक्ग्रा और वार्न से लेकर मुरलीधरन तक सचिन के आगे सहमे और सिमटे दिखते थे. 

मैंने पहले सुना फिर रिपीट टेलीकास्ट में देखा. कोलंबो में न्यूज़ीलैंड के खिलाफ उस मैच में सहवाग सचिन तेंदुलकर की कार्बन कॉपी थे. 

वही विस्फोटक अंदाज. वैसा ही बैकफुट पंच, वही फ्लिक, उसी अंदाज में कट. 

सचिन के सम्मोहन में जकड़े कमेंटेटर उनकी 'कॉपी' पर भी कुर्बान थे. 

उन दिनों समाचार चैनलों की क्रांति शुरु ही हुई थी. 

मैच का टेलीकास्ट करने वाले चैनल का प्रसारण थमा और न्यूज़ चैनलों ने सहवाग की पारी घुमा-घुमाकर दिखानी शुरु कर दी. 

उनकी सचिन से इतनी तुलना हुई कि इस मैच के बाद सहवाग को नया नाम मिल गया 'नजफगढ़ का तेंदुलकर'. 

उन दिनों सहवाग जिस बेबाकी से खेलते थे, बोलने में भी उतने ही बेबाक थे. 

किसी उत्साही रिपोर्टर ने पूछ लिया, 'आप में और सचिन में क्या अंतर है?'

सहवाग ने तपाक से कहा, 'बैंक बेलेंस का'. 

मुझे जवाब अच्छा नहीं लगा. ऐसा लगा कि एक ही शतक के बाद ये बंदा कैसे खुद को सचिन मान बैठा है? 

अब जाके पता चला कि सहवाग खुद भी ये जवाब देने के बाद सहज नहीं थे. उन्होंने इसके लिए सचिन से माफी भी मांगी थी. 

खैर, मेरे जैसे लोगों के दिल में भी सहवाग के जवाब को लेकर जो मलाल था, वो ज्यादा देर नहीं टिक सका. 

सहवाग की हर पारी उनकी फैन फॉलोइंग बढ़ाती गई. 

धीमे-धीमे वो सचिन की छाया से मुक्त होने लगे. बल्कि कुछ हद तक वो सचिन को छाया में लेने लगे. 

ये सुनने और पढ़ने में भले ही अटपटा लगे लेकिन मेरा मानना है कि सचिन पर कभी विरोधी गेंदबाजों ने इतना दबाव नहीं बनाया होगा जितना सहवाग ने बनाया. 

सचिन के इस क्लोन ने एक ही झटके में वनडे में ओपनिंग के उस रोल को हथिया लिया जो सचिन ने तमाम गुजारिश के बाद हासिल किया था. 

मुल्तान में द्रविड़ के पारी घोषित करने के बाद नाराजगी जाहिर करने के पहले सचिन ने खुद को ओपनिंग के रोल से हटाए जाने को लेकर भी शिकायत की थी. 

अगस्त 2001 की करिश्माई पारी के बाद सहवाग ओपनिंग स्लॉट में फिक्स हो गए. लेफ्ट राइट कॉम्बिनेशन कायम रखने के लिए सौरव गांगुली दूसरे ओपनर की पोजीशन थामे रहे और सचिन जब टीम में लौटे तो उन्हें कुछ मैचों में चौथे नंबर पर बैटिंग करनी पड़ी. 

और, सचिन को कहना पड़ा कि वो वनडे में ओपनिंग करना चाहते हैं. 

और, टीम मैनेजमेंट को कहना पड़ा कि वो ये बात टीम मीटिंग में भी कह सकते थे. 

ये तब तक अमूमन निर्विवाद रहे सचिन के साथ जुड़ा शायद पहला विवाद था. 

फिर वो बहस शुरू हुई जिसे हाल में कपिल देव ने भी दोबारा हवा दी है कि सचिन अपना 'नैचुरल गेम' नहीं खेलते. 

नैचुरल गेम यानी गेंदबाज पर सवार होने वाला खेल. हर गेंद को बाउंड्री के बाहर भेजने की जिद दिखाने वाला खेल. 

सचिन ने करियर के पहले दस साल में इसी अंदाज में बल्लेबाजी की थी. उस वक्त ऐसा लगता था कि सचिन ये बर्दाश्त नहीं कर पाते थे कि उनके साथी बल्लेबाज का स्ट्राइक रेट उनसे बेहतर हो. 

सहवाग ऐसे पहले बल्लेबाज थे जिन्हें चुनौती देने में सचिन को दिक्कत होने लगी. धीरे-धीरे सचिन का खेल बदलता गया. 

सचिन को लेकर दीवानगी सहवाग के आने के बाद भी कम नहीं हुई लेकिन बदलाव जरूर हुआ. 

पहले सचिन वो अकेले बल्लेबाज थे जिनके आउट होते ही टीम इंडिया की जीत की आस टूटने सी लगती थी. खासकर वनडे क्रिकेट में. विरोधी कप्तान अपनी टीम मीटिंग में सबसे ज्यादा वक्त सचिन को रोकने का प्लान तैयार करने पर लगाते थे लेकिन, सहवाग आए तो  वो भी विरोधी कप्तान का उतना ही वक्त लेने लगे. 

सहवाग के साथ खेलने का फायदा मेरे ख्याल से सबसे ज्यादा राहुल द्रविड़ को मिला. 

अगर सहवाग टेस्ट क्रिकेट में ओपनर न बने होते तो मुझे संदेह है कि द्रविड़ तीन नंबर के इतने महान बल्लेबाज होते. (मैं द्रविड़ भक्तों से माफी चाहता हूं)

टेस्ट क्रिकेट में सहवाग की कामयाबी ने द्रविड़ की कामयाबी का ग्राफ भी काफी ऊंचा कर दिया. 

मैं बरसों बरस सचिन के खेल के सम्मोहन में जकड़ा रहा हूं. अब भी दीवानगी का वो दौर मेरे साथ है लेकिन फिर भी मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि सचिन और द्रविड़ के उलट सहवाग कभी अपने नाम के बोझ तले दबते पिसते नहीं दिखे.

सहवाग अपने दौर के ऐसे अकेले सुपरस्टार थे जो अपनी शर्तों पर खेले. जिन्होंने हिंदुस्तान के गुरुर को सबसे ज्यादा सुकून दिया. जिन्होंने पाकिस्तान के गेंदबाजों की सबसे ज्यादा पिटाई की. 

लेकिन, मेरी नज़र में वो सबसे ज्यादा 'अनलकी' भी रहे. 

सहवाग ने संन्यास का एलान किया तो मुझे लगा कि 'सुल्तान' और 'नवाब' जैसे खिताबों से नवाजे गए इस महान बल्लेबाज की विदाई सचिन, कुंबले और सौरव की तरह शान से होनी चाहिए थी. 

बाद में सहवाग ने भी यही मलाल जाहिर किया. 

लेकिन, अफसोस सिर्फ विदाई का नहीं. 2006 में उन्हें जब पहली बार ड्रॉप किया गया तो उनकी सिर्फ एक सीरीज़ खराब थी. दक्षिण अफ्रीका में वो करीब 15 के औसत से ही रन बना सके थे. लेकिन, उस सीरीज में हर बड़ा सितारा फ्लॉप था. सहवाग ने एक सीरीज पहले ही वेस्ट इंडीज में 51 और उसके दो सीरीज पहले पाकिस्तान में करीब 74 के औसत से रन बनाए थे. 

ऐसे ही करियर के आखिर में जब उन्हें ड्रॉप किया गया तो उनकी सिर्फ एक सीरीज के पहले दो मैच खराब थे. पिछली ही सीरीज में उन्होंने एक शतक बनाया था. 

वनडे टीम से ड्रॉप होने के सिर्फ 11 मैच पहले उन्होंने 219 रन की रिकॉर्डतोड़ पारी खेली थी. आखिरी के 11 मैचों में भी उन्होंने एक हाफ सेंचुरी बनाई थी और तीस से ज्यादा के चार स्कोर बनाए थे. 

सहवाग के संन्यास के बाद मैं इतना जरुर कहना चाहूंगा कि सचिन और सहवाग में बैंक बैलेंस के अलावा भी एक फर्क था. वो ये कि सचिन नाम का जो सम्मोहन बीसीसीआई को नतमस्तक रखता था, वो सहवाग की तकदीर में नहीं था. नहीं तो 'क्लोन' को भी ओरिजनल सचिन की तरह ही लाल गलीचे बिछाकर विदा किया जाता. 

हां, बीसीसीआई से इतनी गुजारिश जरुर है कि दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आखिरी दो टेस्ट मैच की टीम अभी चुनी नहीं गई है. 

दिल्ली के मैच में वीरू को बुला लो. मैच खिला दो. उनका और फैन्स दोनों का दिल रह जाएगा. अब तो वो फॉर्म में भी हैं.  

रविवार, 18 अक्तूबर 2015

यार हमारी बात सुनो, ऐसा एक इंसान चुनो

जिसने पाप ना किया हो...


बचपन में पढ़ा था. थोड़ा बहुत याद भी है. 

आपने भी पढ़ा होगा. इको सिस्टम में फूड चेन. 

चूहा पेड़ पौधों को खाता है फिर सांप का भोजन बन जाता है. सांप को नेवला खा लेता है. नेवले का शिकार शेर करता है और शेर चील की भूख मिटाता है. 

दुनिया ऐसे ही चलती है. 

इस दुनिया में टिकता वही है, जो खुद को हालात के माकूल सबसे बेहतर तरीके से ढाल लेता है. 

डार्विन साहब ने इसे 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' कहा. 

हालांकि, अपनी याददाश्त पर कितना भी ज़ोर डालूं ये याद नहीं पड़ता कि कभी ऐसा कुछ पढ़ाया गया हो कि फूड चेन में एक प्रजाति अपनी ही प्रजाति को मार डाल रही हो. 

वो भी दूसरी प्रजाति को बचाने के लिए. 

अब फूड चेन नए सिरे से तैयार की जा रही है. दुनिया के पुराने सिद्धांत बदले जा रहे हैं. 

अब गाय की जान इंसान की जान से ज्यादा कीमती है. 

गाय के कत्ल के शक में इंसान दूसरे इंसान को मार रहे हैं. 

ये नई किस्म की कड़ी है. 

कोई इंसान अगर भूख (आप स्वाद भी पढ़ सकते हैं) मिटाने के लिए गाय का गोश्त खाने का ख्याल लाता है तो उसे अपने पड़ोसी से सावधान रहना चाहिए. 

क्या पता उसे अपनी नस्ल से ज्यादा फिक्र गायों की हो. 

गायों के लिए मेरा आदर कम नहीं. बचपन से गायों की पूजा ही सिखाई गई है. 

हो सकता है कि गाय को कसाई घर जाते देखकर मेरे खून में भी उबाल आ जाए. 

लेकिन, इतना नहीं कि मैं जज बनूं. खुद सजा मुकर्रर करूं और फिर जल्लाद बन जाऊं. और खुद ही सज़ा भी दे डालूं. कभी नहीं. 

इंसान और जानवरों के बीच का फर्क यही है. ताकत होने पर भी जो धर्म की राह पर टिका रहता है, वही इंसान है. 

गायों को बचाने के तरीके और भी हैं. 

फिर सवाल एक और है. वही, जो कभी राजेश खन्ना ने किया था. 

'यार हमारी बात सुनो, ऐसा एक इंसान चुनो , जिसने पाप ना किया हो, जो पापी ना हो'. 

मैं शाकाहारी हूं तो क्या हुआ. चमड़े की बेल्ट लगाता हूं. चमड़े का जूता पहनता हूं. पॉकेट में चमड़े का पर्स रखता हूं. और ये चमड़ा कहां से आता है? 

अगर मैं धर्म के मुताबिक चलने वाला दंडाधिकारी बनना चाहूं तो मुझे सबसे पहले खुद को सज़ा देनी चाहिए. 

मैं चमड़े की जो चीजें इस्तेमाल करता हूं वो मुझे पता नहीं किस जानवर का चमड़ा है, लेकिन, क्या मैं दावे से कह सकता हूं कि ये 'इस' जानवर का चमड़ा नहीं? 

सवाल आस्था का है. तो क्या इंसानों में हमारी कोई आस्था नहीं?

है और रहेगी. 

दूसरे क्या करते हैं, मुझे इस सवाल से फर्क नहीं पड़ता. 

मेरे धर्म को भी नहीं पड़ता. 

हम सनातन हैं. अगर हमने दुनिया को राह दिखाई है तो फिर दूसरों की राह पर क्यों चलें?

हमें तो अपने रास्ते को ऐसे दिखाना चाहिए कि बाकी सभी हर रास्ते को छोड़कर कहें हां, हम भी इस रास्ते पर आना चाहते हैं. 

सनातन संस्कृति के आराध्य और मेरे ईश्वर श्रीकृष्ण ने इसी विश्वास के साथ कहा था, 

'सर्व धर्म परित्याज मामेकम शरणम ब्रज. अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्मामि मा शुच'

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

किसके अच्छे दिन

किसके बुरे दिन 


ये दिव्य ज्ञान है. 

केजरीवाल जी ने सुबह सवेरे ही ट्विटर पर इसकी घोषणा कर दी. 

साफ शब्दों में. शुद्ध हिंदी में. 

'मेरी जानकारी के मुताबिक मोदी जी बिहार चुनाव बुरी तरह से हार रहे हैं'. 

केजरी बोल (ट्वीट) जब सामने आए, उस वक्त तक बिहार की 243 सीटों में से सिर्फ 49 पर मतदान हुआ था. 

दूसरे चरण की 32 सीटों पर मतदान शुरु ही हुआ था. 

अरविंद केजरीवाल की सूचना का स्त्रोत क्या है, उन्होंने खुलासा नहीं किया. 

इसकी जरूरत भी नहीं. 

2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने भी नतीजों को लेकर इसी तरह की भविष्यवाणियां की थीं. 

मोदी के अनुमान सटीक निकले. अब कसौटी पर केजरीवाल का दावा है. 

एक चमत्कारिक दावा लालू जी ने भी किया. 




मोतीहारी के पास लखौरा में लालू की एक रैली थी. 

गरमी का मौसम उतार पर है. फिर भी लालू जी बड़े नेता हैं तो आयोजक चाहते थे कि उनके माथे पर पसीने की एक बूंद भी न आए. 

गरमी से बचाने के लिए मंच पर पंखा लगाया गया था. 

बीच रैली में मंच पर पंखा गिरा और लालू जी मातारानी पर बलिहारी हो गए. 

बोले,  'मां दुर्गा ने बचाया है'. 

गले में पड़ा लॉकेट भी दिखाया. मां की तस्वीर वाला. 

मां की बात हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर ने भी की. वो गौमाता की भक्ति दिखा रहे थे. 

लेकिन, भक्ति का अंतर देखिए. खट्टर की बातें सांप्रदायिकता के पाले में खिंच गई. 


लालू जी पहले भी भक्ति भाव दिखा चुके हैं. 

मांस खाने से तौबा की तो इसे शिवजी से सपने में मिला आदेश बताया था. 

गाय के मुद्दे पर घेरने की कोशिश लालू को भी हुई थी. मोदी ने तो पानी पी-पीकर खबर ली थी. 

फिर अचानक जाने क्या हुआ, मोदी राष्ट्रपति के दिखाए रास्ते पर चले गए. मुद्दा बदल लिया. लेकिन खट्टर फिर वैताल को उसी डाल पर ले आए. 

बात वापसी की हो रही तो जान लीजिए कि मुद्दा अब सिर्फ 'घर वापसी' तक नहीं सिमटा है. 

जुमले भी राह बदल रहे हैं.  

लौट लौट के आ रहे हैं. या लाए जा रहे हैं. वो आ रहे हैं तो मुंह चिढ़ा रहे हैं. 


भाई लोग हेमा जी की एक पुरानी तस्वीर निकाल लाए हैं. जसवंत सिंह के साथ खड़ी हैं हेमा जी. 

महंगाई बयान करने वाला पोस्टर गले में डाल रखा है. 

पोस्टर में एक किलो दाल की कीमत 55 रुपये बताई गई है. 

भाई लोग पूछ रहे हैं कि अब जब दाल 205 रुपये किलो बिक रही है, वो भी थोक में तो फिर हेमा जी कहां हैं? उनका पोस्टर कहां है?

भाई लोगों ने तस्वीर भी उस दिन तलाशी, जिस दिन हेमा जी बर्थडे मना रही थीं. 

सेलेब्रेशन का खुमार उतार दिया. 

लेकिन, ऐसे पोस्टरों का मज़ा देखिए. 

अपने पवार जी ने कह दिया, 'लोग कह रहे हैं हमारे बुरे दिन वापस कर दो'. 

'हमें अच्छे दिन नहीं चाहिए'. 

तो क्या केजरीवाल की सूचना का स्त्रोत पवार साहब हैं? 

उनके बयान के आधार पर ही वो पॉवर की इक्वेशन बता रहे हैं? 

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

जेपी के गांव में

प्रभात का इंतज़ार 


दिन ढल गया था. अंधेरा इतना हो चुका था कि ब्रजेश को मोटर साइकिल की हेडलाइट जलानी पड़ी. 

वापसी की मेनरोड पकड़ने के लिए उसने मोटर साइकिल टीलानुमा सड़क पर चढ़ाई.  

रफ्तार ठीक थी तो हेडलाइट की रोशनी इस कदर बढ़ गई थी कि सड़क के अंधेरे को खदेड़े जा रही थी.  

हमें पता नहीं था कि ये रोशनी किसी को असहज भी कर सकती है. दोनों भाई जिंदगी में पहली बार इस इलाके में थे. 

इस सड़क पर एक बार चलके आए थे. अब लौट रहे थे. 

बाइक मेनरोड पर पहुंची और सड़क किनारे कतार से बैठी महिलाएं अचकचा के उठ गईं. मोटरसाइकिल की रोशनी ने उन्हें परेशान कर दिया. और हमें कुछ हद तक हैरान और शर्मिंदा. 

ब्रजेश ने मोटर साइकिल की रफ्तार और तेज़ कर दी.  मोटरसाइकिल की हेडलाइट से जो गुनाह हो गया था, उसकी तरफ पीठ कर लेना ही अच्छा था.  


बिना मौके और जरुरत के हम दोनों भाई सिताब दियारा आए थे. लोकनायक को प्रणाम करने. उस मिट्टी को देखने जिसने जोरावर जेपी को गढ़ा था. 

वो जेपी जिन्होंने 'दुर्गा अवतारी' बताई गई प्रधानमंत्री का सिंहासन जनता के लिए खाली करा लिया था. 

उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर बसे सत्ताइस टोले वाले जेपी के गांव से लौटते वक्त बेबस महिलाओं की टोली ने जेपी की विरासत के वारिसों के दावों की पोल खोल दी. 

दो साल पहले जब हम वहां गए थे, तब यूपी और बिहार दोनों जगह सरकारें उन्हीं पार्टियों की थी, जिनके मुखिया खुद को जेपी का अनुयायी और उनकी विरासत का वाहक बताते हैं. 

विरासत को लेकर लड़ाई भी होती है. कुछ दूरी के फासले पर जेपी के दो स्मारक बना दिए गए हैं. एक यूपी में है. दूसरा बिहार में. 

लोगों ने बताया,  ''चुनाव के दिनों में अगर जेपी की जयंती हो या फिर पुण्यतिथी, वहां नेताओं का मेला लग जाता है. स्मारक बनाने वालों और मेले लगाने वालों को चिंता वोटों की होती है. जेपी के मूल्यों की नहीं.'' 

होती तो स्मारक बनाने के पहले वो जेपी के गांव की महिलाओं के लिए शौचालय बनवाते. 


पता नहीं, स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत होने के बाद वहां की स्थिति में कितना बदलाव आया है. 

ये पोस्ट जेपी को स्वच्छ भारत अभियान के पोस्टर लाने की वकालत नहीं. 

सत्तर पार की उमर में जब जेपी लोकतंत्र बचाने की लडाई के अगुवा बने तब भी उन्होंने पोस्टर पर आने या सिंहासन पाने के लिए संघर्ष नहीं किया. 

जेपी का घर अब उनका स्मारक है. वहां काम करने वाले विनोद जी ने बड़ी मायूसी से कहा था, "जेपी का मिशन अधूरा रह गया. न भेदभाव मिटा. न छूआछूत". 

धर्म को लेकर जेपी की जो परिभाषा थी पता नहीं उसकी जानकारी उनके कितने चेलों को है. 

जेपी स्मारक की दीवारों पर लिखा है, 'परोपकार सबसे अच्छा धर्म है'. 


जयप्रकाश नारायण सिर्फ ऐसा कहते भर नहीं थे. उनके हिस्से गांव की इक्यावन बीघा जमीन आई थी. इसमें से 22 बीघा उन्होंने भूदान आंदोलन में दान कर दी थी. 

आजादी की लड़ाई में जयप्रकाश नारायण नाम के सैनानी का क्या योगदान था, यहां दोहराने की जरुरत नहीं. संपूर्ण क्रांति के वक्त तो निरंकुश सत्तातंत्र में सिहरन भरने वाली आवाज ही जेपी की थी. 

विजय दशमी को जन्मे जेपी ताउम्र लड़े और हर जंग जीते. जिंदगी और रिश्तों को दांव पर लगाकार भी. 


उन्होंने कितनी कुर्बानियां दीं. जेपी की पत्नी प्रभावती देवी भी हर बलिदान की सहभागी थीं. सबसे बड़ा त्याग था बेऔलाद रहने का फैसला. 

जेपी के घर में उनका पलंग है. उनकी जैकेट है. उनकी तस्वीरें हैं. उनकी शेविंग किट है. मां-बाप की तस्वीरें हैं. संग्रहालय है. लाइब्रेरी है. जहां जितनी किताबें हैं, उसके एक फीसदी भी पढ़ने वाले नहीं हैं. मंदिर है और एक गांव है. 

और गांव के लिए जेपी का संदेश है 

'रात चाहे कितनी ही अंधेरी हो,प्रभात तो फूटकर ही रहता है'. 

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

बिहार की प्रयोगशाला

राजनीति का शीर्षासन 


राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होते. 

बाइस हो सकते हैं. ज़ीरो हो सकते हैं. एक भी हो सकते हैं. 

जैसे अब बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद हो गए हैं. 

ये राजनीति का शीर्षासन है. इसे ऐसी परिक्रमा भी कह सकते हैं, जिसमें चलने वाला जहां से शुरु करता है, फिर वहीं पहुंच जाता है. संतुष्टि का भाव भी रहता है.  


पहले लालू- नीतीश भाई-भाई थे. जोड़ी सुपरहिट थी.  फिर राह अलग हो गई. जुदाई के बाद भी बिहार की राजनीति इन दोनों के इर्द-गिर्द ही सिमटी रही. 

नीतीश लालू को कोसते रहे और सत्ता सुख भोगते रहे. लालू ने भी नीतीश की ईंट से ईंट बजाने की कोशिश कम नहीं की. राबड़ी देवी जी तो गाली देने में हर हद पार कर गईं. 

उन दिनों नदी के दो पाट की तरह दिखने वाले लालू और नीतीश आगे जाकर मिल जाएंगे, किसने सोचा था?

तभी तो मैंने कहा कि राजनीति में गणित के फॉर्मूले नहीं चलते. 

कई बार पारखी भी चक्कर खा जाते हैं. 

इसी साल दिल्ली में हुए चुनाव के नतीजे इसका सुबूत हैं. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार भी खुद को राजनीति का पंडित कहने वालों के मुंह पर तमाचा थी. 

लेकिन, वो बिराहमन ही क्या, जो खुद को ज्ञाता न माने. 


बिहार की राजनीति के बेहद रपटीले अखाड़े में पैर जमाने की कोशिश कर रहे पहलवानों को लेकर पंडित फिर भविष्यवाणी कर रहे हैं. 

बिना ये परवाह किए कि राजनीति में कैलकुलेटर की बताई संख्या सटीक हो, ये जरुरी नहीं. 

अगर फॉर्मूला चल जाए तो स्थिति साफ है. चुनाव के दौरान जातियों के पाले खींच लेने वाले बिहार में ये साफ है कि किस गठबंधन के साथ कौन सी जाति है. 

लेकिन दिक्कत ये है कि बिहारियों की गिनती उन 'ज़िंदा कौमों' में होती है जो राजनीति के सारे समीकरणों को गड्ड-मड्ड कर देती है. 

जब स्थिति इस कदर कन्फ्यूज करने वाली हो तो जीत के लिए जोखिम लेने पड़ते हैं. प्रयोग करने पड़ते हैं. तो एनडीए और महागठबंधन ने पूरे बिहार को प्रयोगशाला बना दिया है. 

प्रयोगशाला अगर नामी हो तो हर वैज्ञानिक वहीं जाकर शोध करना पसंद करता है. ऐसे में ओवैसी भी आ गए हैं बिहार. 

ओवैसी ने एक खास इलाके को चुना है. वो पिछड़ेपन को मुद्दा बना रहे हैं. 

उद्धारक की छवि पेश करते हुए उस इलाके को चमन बनाने का सपना दिखा रहे हैं. लेकिन, कहने वाले ये बताने से नहीं चूक रहे कि वो अपनी ताकत विकास के दावे के बजाए अपनी जाति के वोटों को मान रहे हैं. 


प्रयोग एनडीए भी भरपूर कर रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बात विकास से शुरु की. 

फिर बिहार को लुभावना पैकेज दिया. बिहार के पिछड़ेपन की बात की और दावा किया कि उनकी सरकार बनी तो फिर... समझ लीजिए कि बिहार जाने क्या हो जाएगा. 

बीजेपी की अगुवाई में एनडीए के प्रयोगों के बीच आरएसएस ने भी एक्सपेरिमेंट शुरु कर दिए. भागवत जी ने आरक्षण को लेकर एक बयान दे दिया. 

प्रयोगों के इस दौर में हवा उम्मीद के मुताबिक नहीं बनी. मोदी ने पैकेज जिस अंदाज में दिया, उसे नीतीश- लालू की जोड़ी ने बिहार की बोली लगाना बता दिया. 

भागवत के बयान को आरक्षण खत्म करने की साजिश कह दिया. 

इस बीच कहानी में ट्विस्ट आया. दादरी हो गया. नोएडा और पटना की दूरी एक हज़ार किलोमीटर है लेकिन बीफ यानी गोमांस का मुद्दा पलक झपकते ही नोएडा से पटना पहुंच गया. 

ये बात अलग है कि अब एक प्रयोगशाला ने साफ कर दिया है कि दादरी में मारे गए अखलाक अहमद के फ्रीज में रखा मांस बीफ नहीं बल्कि मटन था लेकिन बिहार की प्रयोगशाला में बीफ के सहारे कामयाबी की रेसेपी तैयार करने की कोशिश शुरु हो गई. 


इस बीच बड़बोले लालू गोमांस पर ऐसा कुछ बोल गए जो उनके ही खिलाफ जाने लगा. कम से कम भ्रम तो ऐसा ही बनाया गया. लालू कहते रहे कि मैंने ऐसा नहीं कहा. बीजेपी के नेताओं ने उनके खंडन पर ध्यान ही नहीं दिया और वो बताते गए कि देखो, देखो लालू क्या कह रहे हैं. छी. छी. छी. 

लालू ने जो सफाई दी उसकी भी इस सफाई से धुलाई हुई कि उनकी सांसे उखड़ने लगीं. लालू पिछले दो चुनाव नीतीश कुमा्र से हारे जरुर हैं लेकिन वो ऐसे हांफे कभी नहीं थे. अपनी ही प्रयोगशाला में लालू पहली बार ऐसे 'लुल्ल' दिखे. हालांकि वो चतुर सुजान हैं. उन्हें इस स्थिति का अंदाजा रहा होगा. तभी उन्होंने जहर का घूंट पीते हुए नीतीश कुमार से हाथ मिलाया था.

नीतीश भी लपके हुए लालू की तरफ आए तो उसकी वजह यही थी कि दो दशक बाद बिहार की राजनीति सिर्फ लालू और नीतीश के चेहरों तक नहीं सिमटी रही. एक ऐसा तीसरा चेहरा आ गया जो बिहार की जमीन पर नहीं उगा लेकिन इसी जमीन पर लालू और नीतीश दोनों को पटक मार गया. लोकसभा चुनाव में.  

बहरहाल, बिहार की प्रयोगशाला में हो रहे प्रयोगों को लेकर राजनीति के वैज्ञानिक चाहे जिस नतीजे की उम्मीद लगाएं, लेकिन असल निष्कर्ष क्या निकलेगा, इसे लेकर कोई दावे से कुछ कहने की स्थिति नहीं है. 

मजा ये है कि खबरी लोग तब भी बिहार के मूड की भविष्यवाणी करने से नहीं चूक रहे हैं. नेता एक दूसरे की पोल खोल रहे हैं तो चैनल ओपिनयन पोल दिखा रहे हैं. ज्यादातर मोदी सेना को आगे बता रहे हैं. कुछ ने लालू-नीतीश की जोड़ी को भी आगे बताया है. 


बिहार में चुनाव की तारीखें भी शोध के बाद तय की गईं लगती हैं. बिहारी भाई चुनाव के लिए पहला चरण 12 अक्टूबर यानी जेपी की जयंती के एक दिन बाद बढ़ाएंगे. 

हमेशा की तरह इस बार भी लड़ाई जेपी के चेलों के बीच है. एक तरफ हैं लालू-नीतीश दूसरी तरफ हैं सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद. 

चालीस साल पहले जेपी ने इन चेलों को जाति से ऊपर उठने के लिए जनेऊ तोड़ो का नारे सिखाया था. लेकिन चेले चालीस साल बाद भी जातियों के पाले में बैठे हुए हैं.  

उन्हें जेपी का दूसरा नारा याद है. 'संपूर्ण क्रांति अब नारा है. भावी इतिहास हमारा है'. सवाल करने वाले ये भी पूछ सकते हैं कि भावी है तो इतिहास कैसे हो सकता है और इतिहास है तो भावी कैसे हो पाएगा. 

खैर, मेरा सवाल उस प्रयोग के नतीजे के लेकर है, जो बिहार की राजनीतिक प्रयोगशाला में हो रहा है. नेता चाहे जो भी मानें मेरी सोच साफ है. बिहारी बुड़बक नहीं होते. दुनिया ने उनकी छवि चाहे जैसी भी बना दी हो, लेकिन राजनीति की समझ उनमें बहुत साफ है. और इस बार बिहार इसे पूरी साफगोई से बताने जा रहा है. 

चलते-चलते बिहारी साथियों की ओर से मिला एक हंसगुल्ला 

बिहार की दशा सुधारने के लिए एक मीटिंग बुलाई गई. 

सवाल था क्या किया जाए. 

एक चिरकुट ने कहा, चलो जी अमेरिका पर हमला बोल देते हैं. 

बाकी बोले, ऊ से का होगा. 

जवाब मिला. अमेरिका से जीतेंगे तो नहीं. अमेरिका जीत के अपना झंडा लगा देगा. फिर हम भी अमेरिका होंगे. 

बिकास खुद्दे हो जाएगा. 

किनारे बैठे चच्चा चुप थे. 

सबने पूछा, ऐ चच्चा, चुप काहे हो. 

चच्चा सिर खुजलाते हुए बोले. 

साला सोच रहे हैं कि हम जीत गए तो अमेरिका का क्या होगा?

'जय बिहार'






सोमवार, 28 सितंबर 2015

सीना '56 इंच'

और आंखें समंदर 




सीन 1


भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ़ेसबुक के संस्थापक मार्क ज़ुकरबर्ग के साथ बैठे हैं.

चैट कर रहे हैं.

सवालों की बौछार के बीच एक सवाल माता-पिता के बारे में आता है.

जवाब में मोदी कहते हैं

'हमारे पिताजी तो रहे नहीं अब'

'माताजी है. 90 साल से ज्यादा उमर है. आज भी अपने सारे काम खुद करती हैं'.

तालियां बजती हैं.

मोदी आगे कहते हैं

'पढ़ी लिखी नहीं हैं'.

'जब हम छोटे थे तो हमारा गुजारा करने के लिए वे अड़ोस पड़ोस के घरों में...'

इतना बोलकर मोदी ठहरते हैं. अगला शब्द मुंह से निकलता है तो गला रुंध चुका होता है

'बर्तन साफ करना ...'

मोदी फिर रुकते हैं. दोबारा बोलते हैं तो आवाज पूरी तरह भर्रा चुकी होती है.

'पानी भरना...'

इतना कहने के बाद लगता है कि मोदी को आगे बोलने के लिए खुद से लड़ना पड़ रहा है.

वो आंखों से छलक पड़ने को बेताब आंसुओं से जंग लड़ रहे हैं.

लगता है कि आंखों के आंसू गले में उतर आए हैं और उनकी दमदार आवाज उसमें डूब सी रही है. आवाज किसी तरह हाथ पैर मारते हुए बाहर आने की कोशिश में है.

वो लगभग टूटती कांपती सी आवाज में बात पूरी करने की कोशिश करते हैं

'म..मजदूरी करना'

मोदी रुकते हैं. इस बार जंग जीतने के लिए. डूबती आवाज संभल जाती है. मोदी बात पूरी करते हैं.

'आप कल्पना कर सकते हैं कि एक मां ने अपने बच्चों को बड़ा करने में कितना कष्ट उठाया'.

मोदी के इतना बोलते ही मुझे यश चोपड़ा की फिल्म 'दीवार' का एक 'अमर' सीन याद आ गया. क्यों? पता नहीं.

सीन-2 


विजय का किरदार निभा रहे अमिताभ बच्चन स्मग्लर डाबर का किरदार निभा रहे इफ्तेखार के दफ्तर में खड़े हैं

और ऊंची इमारत की आदमकद खिड़की से झांककर फुटपाथ को देख रहे हैं.

इफ्तेखार पूछते हैं

'क्या देख रहे हो?'

अमिताभ जवाब देते हैं

'देख रहा हूं सामने फुटपाथ पर एक मजबूर औरत दो मासूम बच्चे.'

'भूख से निढाल. बेसहारा.'

अमिताभ घूमते हैं और कहते हैं

'मुझे आपका सौदा मंजूर है डाबर साहब'

दूसरा सीन 1975 का और पहला 2015 का.

सिनेमा का वो दौर बदल चुका है. हिंदुस्तान बदल चुका है. दुनिया बदल चुकी है. तकनीक और तरक्की ने दुनिया को पास लाकर भी रिश्तों को बहुत दूर कर दिया है

लेकिन फिर भी मां की ताकत आज भी उतनी ही है. मां की मजबूरी की याद आज भी आंखों में आंसू ला देती है.

सत्तर के दशक की फिल्मों में फुटपाथ पर मां की मजबूरी के साए में पलना हीरो की खूबी उभारने के लिए जरुरी माना जाता था.

फिल्मी लेखकों ने तब ये नहीं सोचा होगा कि 21 वीं सदी के दूसरे दशक में असल ज़िंदगी में कोई ऐसा हीरो आएगा.

मोदी दुनिया को बता चुके हैं कि उनका सीना 56 इंच का है. यानी वो ऐसे वैसे नहीं बल्कि 'बाहुबली' हीरो हैं. एकदम दबंग.

लेकिन, उन्होंने कभी ये नहीं बताया कि उनकी आंखें समंदर हैं.

और समंदर के आगे छप्पन इंच कहां गुम हो जाते हैं, कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता.

मोदी की ये गहराई उनकी मां की वजह से सामने आई.

ये सीन हिट तो हो ही चुका है. इसे अमर होने से भी कोई नहीं रोक सकता.

हो सकता है, अब से चालीस साल बाद भी आपको कोई ये कहता सुनाई दे,

'मेरे पास मां है'.



शनिवार, 12 सितंबर 2015

विराट की 'औकात', अमिताभ का दांत

एक मजाक और एक 'शाप'


बात, बात-बात में शुरु होती है और कहां तक पहुंच जाती है. 

आज दो लोगों के बीच का मजाक उनकी मिल्कियत भर नहीं रह गया. 

जी हां, अगर ये मजाक सोशल मीडिया पर शुरू हुआ हो तो दसेक लोग मजा लेंगे. सैंकड़ों पैर फंसाएंगे. हज़ारों अपनी राय रखेंगे. लाखों 'हा-हा.. ही ही' करेंगे. या फिर करोड़ों अपनी काबिलियत झाड़ेंगे, इसका फ़ैसला इस बात से होगा कि मज़ाक जिन दो पात्रों के बीच हो रहा है, उनकी हैसियत क्या है. 

बैंक बैलेंस के लिहाज से नहीं फॉलोअर और फ्रेंड्स के लिहाज से. 

मैं जिस मजाक की बात कर रहा हूं, वो महज दो लाइन का है. 


इनमें से एक लाइन क्रिकेट के सबसे बड़े बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर ने ट्विटर पर पोस्ट की. 

दूसरी लाइन मौजूदा टेस्ट टीम के कप्तान विराट कोहली ने सचिन की बात के जवाब में पोस्ट की. 

किस्सा दो लोगों के बीच का था, लेकिन इस कहानी में सैंकड़ों लोग धंस गए. 

दरअसल, सचिन और विराट के बीच दो लाइन का जो मजाक हुआ, वो बहुतों के लिए चुटकी लेने, अपनी 'भक्ति' जाहिर करने और 'भड़ास' निकालने का जरिया बन गया. 

बात सचिन तेंदुलकर ने शुरु की. 


खबर गरम है कि विराट कोहली आईपीटीएल (इंटरनेशनल प्रीमियर टेनिस लीग)की यूएई रॉयल्स टीम के कोओनर बन गए हैं. इस टीम के मालिकों में टेनिस के सुपरस्टार रोजर फेडरर शामिल हैं. 

तो इसी खबर के बहाने सचिन ने ट्विटर पर चुटकी ली. 

सीधा सपाट ट्वीट किया, जिसका हिंदी में मतलब है, 'विराट कोहली, मैं खेलना चाहता हूं' 

इसका मतलब ये निकाला जा रहा है कि सचिन, विराट से कह रहे हैं, 'मैं तुम्हारी टीम से खेलना चाहता हूं'. 

घंटे भर बाद विराट कोहली का भी जवाब आ गया. 

उन्होंने अंग्रेजी में जो लिखा उसका मतलब कुछ यूं है, 'मुझे यकीन नहीं कि इसके लिए जो चाहिए वो आपमें है सचिन पा जी'. 

मतलब कि मुझे लगता नहीं कि मेरी टीम से टेनिस खेल पाओ, आप में वो बात है. 

फिर क्या था, सचिन भक्त शुरु हो गए. 

सचिन ने विराट कोहली को कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन उनके चेले विराट को उनकी 'औकात' याद दिलाने लगे. 

एक ने कहा, 'विराट कोहली हमारे भगवान से ऐसा कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई'. साथ में पिस्तौल का सिंबल भी लगा दिया. मतलब गुस्सा इतना है कि मिल जाओ तो सीधे 'ठांय'. 

एक भाई ने याद दिलाया, 'शाहिद अफरीदी ने वनडे में सैंतीस गेंद में सेंचुरी बनाई थी, तब वो जिस बल्ले से खेले उसे उन्होंने वकार यूनुस से उधार लिया था और वकार ने वो बल्ला सचिन से उधार लिया था'. 

मतलब ये समझाने की कोशिश की गई कि सचिन की बात छोड़ो, वो जिस बल्ले को छू भी देते हैं, वो वर्ल्ड रिकॉर्ड बना देता है. 

हालांकि कुछ एक विराट कोहली के समर्थन में भी आगे आए. उनमें से एक ने सचिन को धोनी के साथ खेलने की सलाह दी. 

महज दो लाइन से शुरु हुई इस कहानी को लेकर अब इतनी लाइनें लिखी जा चुकी हैं कि एक किताब छप सकती है. 

किसी का मजाक कईयों के लिए 'मसखरी' और कईयों के लिए 'दिल के दर्द' की वजह बन गया. जय हो सोशल मीडिया. 


बात दर्द की हो रही है तो बिग बी यानी अमिताभ बच्चन जी का हाल भी लेते चलें. 

सरकार ने हिंदी के उद्धार की फोटो पर नया फ्रेम लगाने की ठानी यानी बत्तीस साल बाद देश में 'विश्व हिंदी सम्मेलन' की मेजबानी का इरादा बनाया तो हिंदी सिनेमा के सबसे कामयाब, सबसे कमाऊ और सबसे लोकप्रिय कलाकार यानी अमिताभ बच्चन जी की याद आ गई. 

याद आ गई तो उन्हें बुला भी लिया. ग़लती ये हो गई कि ऐसे तमाम स्वनामधन्य महानुभावों को आयोजक भूल गए जो ज़िदगी भर अपने माथे पर हिंदी की बिंदी लगाए घूमते रहे हैं. 

उन्होंने हिंदी की आरती उतार कर इस भाषा का कितना भला किया है, या भाषा के विमर्श से खुद उनका भला हुआ है. या फिर साहित्य में योगदान की नज़र में वो 'बच्चन परिवार' से कितने आगे हैं, ये बहस का मुद्दा हो सकता है. 

लेकिन फिलहाल बड़े मुद्दे की बात ये है कि उनमें से बहुतों के पेट में दर्द हो गया. और ये दर्द इस कदर संक्रामक था कि मुंबई पहुंचते- पहुंचते ये अमिताभ बच्चन जी के दांत में उतर गया. 


मैंने एक फ्ल़ॉप फिल्म 'गंगा जमुना सरस्वती' में अमिताभ बच्चन को विलेन के दांत तोड़ते देखा है. वो भी गिन-गिनकर पूरे बत्तीस. 

बात अब समझ आई कि आप दूसरे के दांत भले ही तोड़ सकते हो लेकिन जब मामला अपने दांत का हो तो आप किनारे होकर चुपचाप बैठना ही पसंद करते हैं. 

तो अमिताभ के दांत का दर्द उन्हें हिंदी सम्मेलन में शिरकत नहीं करने देगा. चलिए, जिन भाईयों के पेट में दर्द हुआ था, वो शायद अब कुछ कम हो जाए. 

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

... वरना इस बार भी चमत्कार होता

केशव जरुर बुलाते 

श्रीकृष्ण जन्मस्थान, मथुरा स्थित भगवान श्रीकेशवदेव का दिव्य विग्रह


मैं तो न दिन देखता हूं न रात. 

न सुबह. न शाम. न घर, न बाहर. 

जब जरुरत होती है, उन्हें याद करता हूं. 

और यकीन मानिए, ये बात मैं 'अंधविश्वास' फैलाने के लिए नहीं कर रहा. वो सुनते हैं. 

वो कैसे करते हैं पता नहीं. लेकिन वो कुछ ऐसा कर देते हैं कि जो कुछ मैं चाह रहा होता हूं, वो हो जाता है. 

अब आप सोचेंगे कि मैं ऐसा क्या चाहता हूं? 

तो मैं ये भी बता देता हूं. 

मान लीजिए मुझे अपने किसी जरूरी काम से किसी खास शख्स को फोन करना हो. मैने कई बार नंबर मिलाया. कभी फोन नहीं मिला. कभी फोन मिला तो घंटी बजती रही. फोन उठा ही नहीं. 

मेरी बेचैनी जब तक नहीं बढ़ती, मुझे उनकी याद नहीं आती. 

और जब बेचैनी बढ़ती है. वो याद आ जाते हैं. 

मैं कहता हूं, 'हे केशव फोन मिलवा दीजिए'. 

अगले ही पल चमत्कार हो जाता है. 

फोन मिलता है. बात होती है. बात बन जाती है. 

मुझे ट्रेन पकड़नी है. मैं आखिरी लम्हे में निकला हूं. रास्ते में जबरदस्त ट्रैफिक है. लगता है कि ट्रेन छूट ही जाएगी. 

मैं उन्हें फिर याद करता हूं. फिर चमत्कार होता है. हर सिग्नल पर मुझे ग्रीन लाइट मिलती है. 

स्टेशन के बाहर मुझे तैयार कुली मिल जाता है. ट्रेन के खिसकने के पहले मैं अपनी बर्थ तक पहुंच जाता हूं. 

मेरी ख्वाहिशें ऐसी ही रही हैं और अब तक मेरी कोई 'विश' उन्होंने ठुकराई नहीं है. 

ये बात अलग है कि मैंने कभी करोड़पति बनने की तमन्ना नहीं की और उन्होंने मेरे लिए ऐसा कोई चमत्कार भी नहीं किया. 

चमत्कार वो तभी करते हैं जबकि मैं जान झोंकने को तैयार रहता हूं. 

बात इस पार या उस पार की होती है. 

जन्माष्टमी पर जगमगाता श्रीकृष्ण जन्मस्थान 
खुद को द्वापर के महापुरुषों से जोड़ना ठीक तो नहीं लेकिन उनके बारे में जो कहानियां सुनी हैं, ऐसे लम्हों में वो याद हो आती हैं. 

भला उन्होंने अर्जुन से क्यों कहा, 'मैं हथियार नहीं उठाऊंगा'. 

वो हथियार उठाते तो क्या महाभारत का महायुद्ध अट्ठारह दिन चलता? कोई अर्जुन को याद करता? 

हर पल उन्होंने अर्जुन की मदद की. लेकिन तभी जब वो परिश्रम और शौर्य दिखाने को तैयार हुआ. 

अपनी मुंहबोली बहन कृष्णा की मदद को भी वो तभी आए, जब वो समझ गई कि उसके बाहुबलि पांच पति और महावीर भीष्म उसे बचाने में नाकाम हैं. हर आस टूटी तो उसने केशव को याद किया. 

वो केशव का वस्त्रावतार था. कृष्ण सिर्फ कृष्णा को दिखे. उनके चमत्कार से दुशासन थका तो हारे हुए वीरों का शौर्य जाग गया. प्रतिशोध का संकल्प लेने की होड़ लग गई. 

कृष्ण भक्तों के संकल्प का मान रखते हैं. हमेशा. शर्त इतनी है कि वो संकल्प उन्हें ध्यान में रखकर लिए जाएं. 

जिसे भी जब भी बाहुबल का अभिमान हो जाता है, कृष्ण पीछे हट जाते हैं. 

मानो कह रहे हों, 'जाओ भैया कर लो'. 

और जब कन्हैया न हों तो भैया पर क्या होगा? अपनी लाठी पर क्या गोवर्धन टिकेगा? 

कई बार अपनी धुली भी है. वो बीच रस्ते छोड़कर भी गए हैं. 

मैं जब मथुरा में था. हर दिन उनसे मिलने जाता था. वक्त भी लगभग एक सा होता था. दोपहर बारह बजने के एक दो मिनट पहले. 

कुछ आदत सी बन गई थी. उनके दर्शन ठीक बारह बजे बंद होते थे. 

मेरे घर से मंदिर तक पहुंचने में बारह मिनट ही लगते थे. तेज़ रफ्तार से चलते हुए पहुंचने पर. 

मैं शायद ही कभी पौने बारह बजे के पहले निकलता था. 

तैयार होते- होते इतना वक्त हो ही जाता था. हर दिन दर्शन के बाद सोचता था कि कल से थोड़ा पहले निकलूंगा लेकिन ऐसा होता नहीं था. 

यकीन करना शायद मुश्किल हो सकता है, लेकिन, कई बार लगा कि वो भी मेरा इंतज़ार करते हैं. 

कुछ एक बार मैं बारह बजकर एक मिनट पर पहुंचा. घड़ी की सूईंयों के मुताबिक चलने वाले पुजारी उन दिनों जाने क्यों घड़ी देखना भूल जाते. 

मुझे दर्शन मिल जाते. 

इस बार जन्माष्टमी पर मैंने उन्हें टीवी पर देखा. दूर से. 

तमन्ना थी कि वहीं पास से उन्हें देखूं लेकिन शायद संकल्प में कोई खोट रह गया. 

हां, मैंने जानझोंक कर नहीं कहा, 'मुझे बुला लो केशव'. वरना इस बार भी चमत्कार होता. 

सोमवार, 24 अगस्त 2015

हां सलमान

हिंदुस्तान है कुर्बान 


किसी रात ऐसा हो सकता है. वो उठें और एक के बाद एक ट्वीट करने लगें.

सुबह हो तो वो आधा हिंदुस्तान जिसे आप जानते हैं और थोड़ी बहुत बातचीत करते हैं, आपको बताने लगे कि उन्होंने कितने मिनट के बीच कितने ट्वीट किए.

उनकी तमाम गर्लफ्रेंड्स के नाम हर वो शख्स जानता है, जिसे आप जानते हैं. 

उनकी लवस्टोरी कब शुरु हुई. कब तक चली. फिर 'उसे' कौन ले उड़ा? ये किस्सा कोई भी बता सकता है. 

आपका प्लम्बर. दूध वाला. अखबार वाला. माली. जिम इंस्ट्रक्टर. आपका बॉस भी. 

उनके हर केस की जानकारी होने के लिए आपका वकील होना जरुरी नहीं. 

और, उनकी फिल्मों के बिजनेस की जानकारी के लिए न फिल्म पंडित होने की जरुरत है और न ही फिल्मों दिलचस्पी रखने की. 


फिल्म में कहानी क्या थी?  गाने कैसे थे लोकेशन कैसी थी? किसे याद रहता है.

थियेटर से बाहर निकलने वाले कभी ये बताने में दिलचस्पी नहीं लेते कि फिल्म कैसी थी?

वो तो बस यही कहते हैं, 'सलमान रॉक्स' 

'सलमान वाज़ सुपरब' 

'ही इज़ रीयल रॉक स्टार' 

अब आपको पता है कि उनके पिता हिंदुस्तानी सिनेमा के मशहूर स्क्रिप्ट राइटर थे तो ये आपकी ग़लती है. 

और आपने ये ग़लती सवाल की शक्ल में आगे बढ़ा दी तो जवाब मिलेगा 

'यार कहानी देखने कौन जाता है. हम तो सलमान को देखने जाते हैं'. 

जी हां, सलमान खान हिंदी सिनेमा के वो सितारे हैं, जिसका अपना आसमान है

और, मसाला फिल्मों में अपने सपनों की दुनिया खोजने वाला हिंदुस्तान अब इसी आसमान के नीचे बसेरा करता है. 


ऐसी फैन फॉलोइंग तो एक्टिंग के शहंशाह दिलीप कुमार को भी नसीब नहीं हुई. 

एक मैगज़ीन ने खुलासा किया है कि अमिताभ बच्चन कमाई के मामले में अब भी सलमान खान को टक्कर देते हैं. 

स्टारडम के लिहाज से हिंदुस्तान ने अमिताभ बड़ा सितारा नहीं देखा. (असहमत हों तो माफ कीजिएगा मैं अमित जी का फैन हूं)

उनकी एक्टिंग का भी हर कोई लोहा मानता है 

लेकिन, आपको ऐसी कितनी फिल्में याद है, जिसमें अमिताभ बच्चन हों और जिसकी स्टोरी या डॉयलॉग दमदार न हो, वो बॉक्स ऑफिस पर झंडे लहरा गई हो. 

आमिर खान तो बिना उम्दा पटकथा के काम करने को ही तैयार नहीं होते. 

और शाहरुख खान, उनका स्टारडम तो हमेशा से बड़े बैनर के भरोसे ही टिका है. 


इन सबके बीच सलमान खान कहां हैं? 

ईद पर 'बजरंगी भाईजान' आई तो भाई लोगों ने कहा, 'बहुत दिनों के बाद सलमान की कोई फिल्म आई है जिसमें कोई कहानी है'. 

मतलब? बहुत दिनों से सलमान जिन फिल्मों में काम कर रहे थे, उनमें कोई कहानी ही  नहीं होती थी? 

ऐसा आंकलन मेरा नहीं. 

मै सलमान का उस अंदाज में मुरीद भी नहीं. 

ये बात अलग है कि उन्होंने जिस 'सौ करोड़' के क्लब की नींव डाली है, उसमें चंदा मैंने भी दिया है. यानी उनकी लगभग हर फिल्म देखी है. 

सलमान ने मेहनत से बॉ़डी बनाई है. पचास की उम्र में भी वो चॉकलेटी हैं. एक्शन भी हिला देने वाला करते हैं. 

लेकिन, उनके पास न तो अमिताभ बच्चन जैसी जादुई आवाज है. न दिलीप कुमार और आमिर खान जैसी एक्टिंग की काबीलियत. वो गोविंदा और हृतिक की तरह नाच भी नहीं सकते. सनी देओल की तरह चीख नहीं सकते और शाहरुख की तरह रो नहीं पाते. 

लेकिन, एक स्टार के तौर पर सलमान इन सभी से मीलों आगे जा चुके हैं. 

स्टार वही है, जिसकी चमक में दुनिया को कुछ और दिखाई नहीं दे. बाकी सबकुछ धुंधला हो जाए. 

साल 1989 के दिसंबर महीने में 'मैनें प्यार किया रिलीज' होने के बाद सलमान पर न जाने कितने और कैसे कैसे आरोप लगे. 

कितनी बार उनकी एक्टिंग का पोस्टमार्टम हुआ 

कितनी बार उनकी निजी ज़िंदगी की चीर फाड़ की गई.

कितनी बार उनके करियर के खत्म होने का एलान किया गया. 

जाने कितनी बार 

लेकिन हर बार सलमान नाम के सितारे की चमक कुछ और बढ़ गई. 

सलमान के स्टारडम का असल मतलब तो मुझे तब समझ आया, जब 'दबंग' रिलीज हुई. 

मेरे चार बरस के भांजे ने मेरी जेब के मुताबिक मेरे बेशकीमती धूप के चश्मे को उठाया. अपनी कॉलर में टांगा और खालिस सलमान स्टाइल में 'दबंग... दबंग.. दबंग' करने लगा. 

वो रीयल सलमान को नहीं जानता. उनकी ढेर सारी लव स्टोरीज़ से भी अनजान है. उसे उन पर चलते मुकद्मों की भी जानकारी नहीं. वो सलमान के ट्वीट भी नहीं पढ़ता. 

लेकिन सलमान की हर फिल्म देखने ज़िद करता है. सलमान जैसी बॉडी बनना चाहता है और आगे कभी सलमान जैसा ही स्टार बनना चाहता है. 

बच्चे की बात छोड़ए. अपने मोदी जी से पूछ लीजिए. सलमान के स्टारडम को बयान करने वाली कहानियां तो उनके पास भी हैं.