रविवार, 11 अक्तूबर 2015

जेपी के गांव में

प्रभात का इंतज़ार 


दिन ढल गया था. अंधेरा इतना हो चुका था कि ब्रजेश को मोटर साइकिल की हेडलाइट जलानी पड़ी. 

वापसी की मेनरोड पकड़ने के लिए उसने मोटर साइकिल टीलानुमा सड़क पर चढ़ाई.  

रफ्तार ठीक थी तो हेडलाइट की रोशनी इस कदर बढ़ गई थी कि सड़क के अंधेरे को खदेड़े जा रही थी.  

हमें पता नहीं था कि ये रोशनी किसी को असहज भी कर सकती है. दोनों भाई जिंदगी में पहली बार इस इलाके में थे. 

इस सड़क पर एक बार चलके आए थे. अब लौट रहे थे. 

बाइक मेनरोड पर पहुंची और सड़क किनारे कतार से बैठी महिलाएं अचकचा के उठ गईं. मोटरसाइकिल की रोशनी ने उन्हें परेशान कर दिया. और हमें कुछ हद तक हैरान और शर्मिंदा. 

ब्रजेश ने मोटर साइकिल की रफ्तार और तेज़ कर दी.  मोटरसाइकिल की हेडलाइट से जो गुनाह हो गया था, उसकी तरफ पीठ कर लेना ही अच्छा था.  


बिना मौके और जरुरत के हम दोनों भाई सिताब दियारा आए थे. लोकनायक को प्रणाम करने. उस मिट्टी को देखने जिसने जोरावर जेपी को गढ़ा था. 

वो जेपी जिन्होंने 'दुर्गा अवतारी' बताई गई प्रधानमंत्री का सिंहासन जनता के लिए खाली करा लिया था. 

उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर बसे सत्ताइस टोले वाले जेपी के गांव से लौटते वक्त बेबस महिलाओं की टोली ने जेपी की विरासत के वारिसों के दावों की पोल खोल दी. 

दो साल पहले जब हम वहां गए थे, तब यूपी और बिहार दोनों जगह सरकारें उन्हीं पार्टियों की थी, जिनके मुखिया खुद को जेपी का अनुयायी और उनकी विरासत का वाहक बताते हैं. 

विरासत को लेकर लड़ाई भी होती है. कुछ दूरी के फासले पर जेपी के दो स्मारक बना दिए गए हैं. एक यूपी में है. दूसरा बिहार में. 

लोगों ने बताया,  ''चुनाव के दिनों में अगर जेपी की जयंती हो या फिर पुण्यतिथी, वहां नेताओं का मेला लग जाता है. स्मारक बनाने वालों और मेले लगाने वालों को चिंता वोटों की होती है. जेपी के मूल्यों की नहीं.'' 

होती तो स्मारक बनाने के पहले वो जेपी के गांव की महिलाओं के लिए शौचालय बनवाते. 


पता नहीं, स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत होने के बाद वहां की स्थिति में कितना बदलाव आया है. 

ये पोस्ट जेपी को स्वच्छ भारत अभियान के पोस्टर लाने की वकालत नहीं. 

सत्तर पार की उमर में जब जेपी लोकतंत्र बचाने की लडाई के अगुवा बने तब भी उन्होंने पोस्टर पर आने या सिंहासन पाने के लिए संघर्ष नहीं किया. 

जेपी का घर अब उनका स्मारक है. वहां काम करने वाले विनोद जी ने बड़ी मायूसी से कहा था, "जेपी का मिशन अधूरा रह गया. न भेदभाव मिटा. न छूआछूत". 

धर्म को लेकर जेपी की जो परिभाषा थी पता नहीं उसकी जानकारी उनके कितने चेलों को है. 

जेपी स्मारक की दीवारों पर लिखा है, 'परोपकार सबसे अच्छा धर्म है'. 


जयप्रकाश नारायण सिर्फ ऐसा कहते भर नहीं थे. उनके हिस्से गांव की इक्यावन बीघा जमीन आई थी. इसमें से 22 बीघा उन्होंने भूदान आंदोलन में दान कर दी थी. 

आजादी की लड़ाई में जयप्रकाश नारायण नाम के सैनानी का क्या योगदान था, यहां दोहराने की जरुरत नहीं. संपूर्ण क्रांति के वक्त तो निरंकुश सत्तातंत्र में सिहरन भरने वाली आवाज ही जेपी की थी. 

विजय दशमी को जन्मे जेपी ताउम्र लड़े और हर जंग जीते. जिंदगी और रिश्तों को दांव पर लगाकार भी. 


उन्होंने कितनी कुर्बानियां दीं. जेपी की पत्नी प्रभावती देवी भी हर बलिदान की सहभागी थीं. सबसे बड़ा त्याग था बेऔलाद रहने का फैसला. 

जेपी के घर में उनका पलंग है. उनकी जैकेट है. उनकी तस्वीरें हैं. उनकी शेविंग किट है. मां-बाप की तस्वीरें हैं. संग्रहालय है. लाइब्रेरी है. जहां जितनी किताबें हैं, उसके एक फीसदी भी पढ़ने वाले नहीं हैं. मंदिर है और एक गांव है. 

और गांव के लिए जेपी का संदेश है 

'रात चाहे कितनी ही अंधेरी हो,प्रभात तो फूटकर ही रहता है'. 

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