गुरुवार, 10 सितंबर 2015

... वरना इस बार भी चमत्कार होता

केशव जरुर बुलाते 

श्रीकृष्ण जन्मस्थान, मथुरा स्थित भगवान श्रीकेशवदेव का दिव्य विग्रह


मैं तो न दिन देखता हूं न रात. 

न सुबह. न शाम. न घर, न बाहर. 

जब जरुरत होती है, उन्हें याद करता हूं. 

और यकीन मानिए, ये बात मैं 'अंधविश्वास' फैलाने के लिए नहीं कर रहा. वो सुनते हैं. 

वो कैसे करते हैं पता नहीं. लेकिन वो कुछ ऐसा कर देते हैं कि जो कुछ मैं चाह रहा होता हूं, वो हो जाता है. 

अब आप सोचेंगे कि मैं ऐसा क्या चाहता हूं? 

तो मैं ये भी बता देता हूं. 

मान लीजिए मुझे अपने किसी जरूरी काम से किसी खास शख्स को फोन करना हो. मैने कई बार नंबर मिलाया. कभी फोन नहीं मिला. कभी फोन मिला तो घंटी बजती रही. फोन उठा ही नहीं. 

मेरी बेचैनी जब तक नहीं बढ़ती, मुझे उनकी याद नहीं आती. 

और जब बेचैनी बढ़ती है. वो याद आ जाते हैं. 

मैं कहता हूं, 'हे केशव फोन मिलवा दीजिए'. 

अगले ही पल चमत्कार हो जाता है. 

फोन मिलता है. बात होती है. बात बन जाती है. 

मुझे ट्रेन पकड़नी है. मैं आखिरी लम्हे में निकला हूं. रास्ते में जबरदस्त ट्रैफिक है. लगता है कि ट्रेन छूट ही जाएगी. 

मैं उन्हें फिर याद करता हूं. फिर चमत्कार होता है. हर सिग्नल पर मुझे ग्रीन लाइट मिलती है. 

स्टेशन के बाहर मुझे तैयार कुली मिल जाता है. ट्रेन के खिसकने के पहले मैं अपनी बर्थ तक पहुंच जाता हूं. 

मेरी ख्वाहिशें ऐसी ही रही हैं और अब तक मेरी कोई 'विश' उन्होंने ठुकराई नहीं है. 

ये बात अलग है कि मैंने कभी करोड़पति बनने की तमन्ना नहीं की और उन्होंने मेरे लिए ऐसा कोई चमत्कार भी नहीं किया. 

चमत्कार वो तभी करते हैं जबकि मैं जान झोंकने को तैयार रहता हूं. 

बात इस पार या उस पार की होती है. 

जन्माष्टमी पर जगमगाता श्रीकृष्ण जन्मस्थान 
खुद को द्वापर के महापुरुषों से जोड़ना ठीक तो नहीं लेकिन उनके बारे में जो कहानियां सुनी हैं, ऐसे लम्हों में वो याद हो आती हैं. 

भला उन्होंने अर्जुन से क्यों कहा, 'मैं हथियार नहीं उठाऊंगा'. 

वो हथियार उठाते तो क्या महाभारत का महायुद्ध अट्ठारह दिन चलता? कोई अर्जुन को याद करता? 

हर पल उन्होंने अर्जुन की मदद की. लेकिन तभी जब वो परिश्रम और शौर्य दिखाने को तैयार हुआ. 

अपनी मुंहबोली बहन कृष्णा की मदद को भी वो तभी आए, जब वो समझ गई कि उसके बाहुबलि पांच पति और महावीर भीष्म उसे बचाने में नाकाम हैं. हर आस टूटी तो उसने केशव को याद किया. 

वो केशव का वस्त्रावतार था. कृष्ण सिर्फ कृष्णा को दिखे. उनके चमत्कार से दुशासन थका तो हारे हुए वीरों का शौर्य जाग गया. प्रतिशोध का संकल्प लेने की होड़ लग गई. 

कृष्ण भक्तों के संकल्प का मान रखते हैं. हमेशा. शर्त इतनी है कि वो संकल्प उन्हें ध्यान में रखकर लिए जाएं. 

जिसे भी जब भी बाहुबल का अभिमान हो जाता है, कृष्ण पीछे हट जाते हैं. 

मानो कह रहे हों, 'जाओ भैया कर लो'. 

और जब कन्हैया न हों तो भैया पर क्या होगा? अपनी लाठी पर क्या गोवर्धन टिकेगा? 

कई बार अपनी धुली भी है. वो बीच रस्ते छोड़कर भी गए हैं. 

मैं जब मथुरा में था. हर दिन उनसे मिलने जाता था. वक्त भी लगभग एक सा होता था. दोपहर बारह बजने के एक दो मिनट पहले. 

कुछ आदत सी बन गई थी. उनके दर्शन ठीक बारह बजे बंद होते थे. 

मेरे घर से मंदिर तक पहुंचने में बारह मिनट ही लगते थे. तेज़ रफ्तार से चलते हुए पहुंचने पर. 

मैं शायद ही कभी पौने बारह बजे के पहले निकलता था. 

तैयार होते- होते इतना वक्त हो ही जाता था. हर दिन दर्शन के बाद सोचता था कि कल से थोड़ा पहले निकलूंगा लेकिन ऐसा होता नहीं था. 

यकीन करना शायद मुश्किल हो सकता है, लेकिन, कई बार लगा कि वो भी मेरा इंतज़ार करते हैं. 

कुछ एक बार मैं बारह बजकर एक मिनट पर पहुंचा. घड़ी की सूईंयों के मुताबिक चलने वाले पुजारी उन दिनों जाने क्यों घड़ी देखना भूल जाते. 

मुझे दर्शन मिल जाते. 

इस बार जन्माष्टमी पर मैंने उन्हें टीवी पर देखा. दूर से. 

तमन्ना थी कि वहीं पास से उन्हें देखूं लेकिन शायद संकल्प में कोई खोट रह गया. 

हां, मैंने जानझोंक कर नहीं कहा, 'मुझे बुला लो केशव'. वरना इस बार भी चमत्कार होता. 

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