शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

उनकी समझ पे हंसिए और समझिए ...

रेस में क्यों हार रही है कांग्रेस?





 यकीन कीजिए, आनंद शर्मा को देखकर पहले कभी हंसी तो क्या मुस्कराहट तक नहीं आई थी. 

भले ही उन्हें राजनीति में ज्यादा गंभीरता से न लिया जाता हो लेकिन वो 'दिग्गी राजा' की तरह दुनिया को हंसाने का हुनर भी नहीं जानते. 

लेकिन, कल मुस्कराहट भी आई और हंसी भी. वजह बना आनंद शर्मा का एक बयान. 

वो कह रहे थे, 'मैं कहूंगा एक दुख की भी बात है. परिहास भी है. एक क्रूर मज़ाक कि जो जवाहर लाल नेहरू के आलोचक और विरोधी हों उनको जवाहर लाल नेहरू के नाम से जुड़ी संस्थाओं में लगा दो. जो इंदिरा जी के आलोचक और विरोधी हों उनको इंदिरा से जुड़े संस्थानों में लगा दो'. 

आनंद शर्मा ने ये बयान 'इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र' यानी 'इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर द आर्ट्स' में हुए बदलाव को लेकर दिया. 


केंद्र का अध्यक्ष वरिष्ठ और बेहद सम्मानित पत्रकार श्री रामबहादुर राय को बनाया गया है. 

पत्रकारिता में ओजस्वी करियर के पहले राय साहब जेपी आंदोलन के अगुवा नेताओं में थे. 

आनंद शर्मा इसी पृष्ठभूमि की ओर संकेत कर रहे थे. 

मुझे हंसी इसी वजह से आई. 

उम्मीद की जाती है कांग्रेस का नेता अपनी पार्टी का इतिहास जाने. 


 पार्टी का पूरा इतिहास न पता हो तो कम से कम 'गांधी परिवार' खासकर इंदिरा जी के बारे में जानकारी होने की तो उम्मीद की ही जाती है. 

सवाल ये है कि क्या आनंद शर्मा जानते हैं कि इंदिरा सरकार के खिलाफ 'संपूर्ण क्रांति' का नारा देने वाले लोकनायक जय प्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के बीच क्या रिश्ता था? 

आप निश्चित ही जानते होंगे. 

ये बेहद करीबी रिश्ता था. चाचा और भतीजी का रिश्ता. 

और ये उस दौर का रिश्ता था जब संबंध स्वार्थ की डोर से नहीं बंधे होते थे. उनमें अपनेपन की गर्माहट होती थी. 

लेकिन ये वो समाज है, जहां देशहित के सामने रिश्ते का मोह नहीं ठहरता. 

रामायण, महाभारत से लेकर जेपी तक की गाथा यही बताती है. 

देश और समाज के प्रति कर्तव्य के इसी बोध की वजह से भारतीय लोकतंत्र की जड़ें गहरी भी हैं और मजबूत भी. 

लोकतंत्र में विरोध व्यक्ति नहीं विचारों का होता है. 



 जेपी ने अपनी भतीजी के खिलाफ संघर्ष का बिगुल लोकतंत्र की इसी आदर्श आचार संहिता की वजह से बजाया.

इंदिरा कुर्सी से हटीं तो रिश्ते फिर बदले.

जेपी को भतीजी की चिंता भी हुई.

उन्होंने एक दिन इंदिरा जी से पूछा, 'अब तुम प्रधानमंत्री नहीं हो तो तुम्हारा खर्चा कैसे चलेगा?'

ये लोकनायक नहीं चिंतित चाचा का सवाल था.

इन्हीं जेपी ने राय साहब को अपने आंदोलन की अगुवा रही 11 लोगों की कमेटी में जगह दी थी. निश्चित ही उनके आदर्शवाद से प्रभावित होकर.

उस आंदोलन में नारे भर दोहराने वाले भारतीय राजनीति में कहां से कहां तक पहुंच गए बताने की जरुरत नहीं.

लेकिन, ये सवाल जरुर पूछा जाना चाहिए कि राय साहब ने क्या फायदा लिया? 

जवाब है कुछ नहीं. 

लोकतंत्र की मजबूती के लिए हुए 'संपूर्ण क्रांति' के यज्ञ से निकले 'सत्ता के अमृत कलश' को हाथ तक न लगाने वाले संभवत राय साहब इकलौते 'बैरागी' हैं. 

उनका अनुकरणीय पत्रकारिता करियर भी आदर्शवाद की मिसाल है. 

यही वजह है कि उनकी नियुक्ति की हर तरफ दिल खोलकर सराहना हुई. 

नरेंद्र मोदी सरकार के ये उन चंद फैसलों में हैं जिसे सरकार के वैचारिक विरोधियों ने भी सराहा. 

लोगों ने यहां तक कहा, 'कुर्सियां कुछ लोगों का मान बढ़ाती हैं और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे कुर्सियों का मान बढ़ता है. राय साहब के बैठने से कुर्सियां ही गौरवान्वित होती हैं.' 

आनंद शर्मा को ये भी समझना चाहिए कि राजनीति में विपक्ष का काम सिर्फ विरोध करना नहीं होता. 

विपक्ष में अच्छे और रचनात्मक फैसलों की सराहना करने की समझ भी होनी चाहिए.

इसी समझ की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी ने 1971 की जंग में इंदिरा जी की तारीफ की थी. और उसके काफी पहले नेहरु जी अटल जी की तारीफ करते थे. 

इंदिरा जी होतीं तो उन्हें ये गुर जरुर सिखातीं. 

इस समझ के अभाव में ही बटवृक्ष रही कांग्रेस  छुईमुई का पौधा होती जा रही है.

कांग्रेस को ये भी समझना चाहिए कि इंदिरा जी के नाम पर बनाए गए तमाम संस्थानों की कुर्सियां रेवड़ियों की तरह बांटने की वजह से ही  इन संस्थानों की चमक खोती चली गई. 

ऐसे संस्थान इंदिरा जी के ख्यातिनाम का पूरक बने इसके लिए इन संस्थानों की कमान वास्तविकता में कर्तव्य की मर्यादा से बंधे लोगों के हाथ होनी चाहिए. 

आनंद शर्मा समझें ना समझें, हम आप जानते हैं कि हमारे समाज में मर्यादा की स्थापना ही 'राम' नाम के महापुरुषों ने की है. 

आपको रामनवमी की शुभकामनाएं. 


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