'पप्पू'
भाई लोग कहते हैं ये नाम उस पर सूट करता है.
जावेद अख्तर ने जब गाना लिखा, 'पप्पू कान्ट डान्स साला' , उसका नाम उसके काफी पहले रखा गया था.
एक चर्चित राजनीतिक शख्सियत के लिए सोशल मीडिया पर 'पप्पू' उपनाम पॉपुलर होने से बहुत- बहुत पहले.
अस्सी के दशक में मां-बाप बच्चों के ऐसे ही नाम रख लेते थे.
घर के पुकारू नाम.
पप्पू, गुड्डा, मुन्ना, कालू, ...
मैंने तो एक बार पूछ भी लिया था.
'यार, आजकल पप्पू का मतलब तो निपट चू ि ् माना जाता है. तुझे बुरा नहीं लगता, तेरा नाम पप्पू है'.
वो हंसकर रह गया.
ऐसा नहीं है कि उसे सवाल समझ न आया हो.
ऐसे भी वो मेरे मुश्किल सवालों को दरकिनार ही कर देता है. कभी हंसकर. कभी बहाने बनाकर
लेकिन दिलचस्प ये है कि जैसे ही वो कोई बहाना बनाता है, झूठ झट से पकड़ में आ जाता है.
उसके बहानों के लिए मैंने कई बार उसकी कान खिंचाई भी की है. सरेआम
मसलन, समोसे के साथ मिलने वाली लाल मीठी चटनी को ब्रज क्षेत्र में सोंठ कहा जाता है.
मिर्च नहीं खाने वाले सोंठ खूब पसंद करते हैं.
एक बार हम दोस्त बैठे गप लगा रहे थे. पप्पू से समोसे लाने को कहा गया. साथ में सोंठ भी लाने की हिदायत दी गई.
भाई लौटा तो सोंठ नहीं लाया.
सवाल हुआ तो बोला, 'सोंठ खत्म हो गई थी'.
पप्पू इतने पर रुकता तो फिर वो पप्पू ही क्या?
उसने आगे कहा.
'दुकानदार बोला, सोंठ नहीं है बक्खर ले जा. अब मैं बक्खर क्या लाता'.
अगर आप नहीं जानते तो बताना जरुरी है, बक्खर चीनी की उस चाशनी को कहा जाता है जिसमें जलेबी और इमरती को डुबोकर मीठा बनाया जाता है.
पप्पू का जवाब सुनते ही कुछ साथी हंसे. कुछ मुस्कुराए पर अपना पारा चढ़ गया.
लेकिन, पप्पू ज़िद्दी इतना कि बात मुंह से निकल गई तो फिर पीछे हटने को तैयार नहीं.
भाई लोग ये किस्से भी सुनाते हैं कि वो अपने पैसे कितने एहतियात से रखता है.
साथ में सफ़र करना हो और टिकट लाने की जिम्मेदारी पप्पू के नाम हो तो यकीन मानिए आते ही सबसे उनके हिस्से की रकम वसूल लेगा.
ऐसा अपना अनुभव नहीं. बाकी साथियों का कहना है.
दोस्त ऐसे ही और भी किस्से सुनाते हैं.
और पप्पू के 'पप्पू' होने पर खूब चुटकी लेते हैं. उसे कंजूस बताने वालों की भी कमी नहीं.
अपनी राय भी ऐसी ही बातों पर बनती बिगड़ती थी.
लेकिन पप्पू ने अभी एक झटके में आंख खोल दी. बता दिया कि कही, सुनी बात को लेकर किसी की ब्रांडिंग करना ठीक नहीं.
कई बार तो आंखों देखी बातें भी सच की पूरी तस्वीर पेश नहीं करतीं.
पप्पू जहां काम करता है, वो एक ट्रस्ट है. गायों की सेवा भी करता है.
गोवंश यानी गाय, बछड़े, बछिया या फिर सांड़ों के मरने पर उनको समाधि देता है.
बीते दिनों पप्पू को भी इस काम में लगाया गया. सुपरविजन करने के लिए. जरुरत पड़े तो बाकी कर्मचारियों की मदद के लिए.
पूरी प्रक्रिया में मदद करने वालों को मेहनताना भी मिलता है.
200 रुपये.
दस मौके मिले महीने में तो दो हज़ार रुपये.
पप्पू की अब तक जो तस्वीर गढ़ी गई थी, उसके मुताबिक ये रकम कम नहीं है.
पप्पू को जब पहली बार इस काम पर भेजा गया तो लौटकर आने पर उसे 200 रुपयों की पेशकश हुई.
पप्पू ने इनकार कर दिया.
सवाल हुआ 'क्यों नहीं लोगे?'.
पप्पू ने कहा, 'गाय मां है, मां की सेवा के पैसे नहीं लूंगा'.
सवाल पूछने वाले ने कहा, 'बड़े अधिकारी बुलाकर कहेंगे तो?'
पप्पू ने कहा, 'कह दूंगा, चारा मंगाकर गायों को खिला दो साहब'.
'और ये भी समझ लो साहब, पैसे नहीं लूंगा तो ये मत समझना कि काम नहीं करूंगा'.
'महीने में रोज़ जाना होगा तो जाऊंगा'.
गायों को लेकर देश में बड़ी बहस छिड़ी है.
पप्पू कभी ऐसी बहस में नहीं पड़ता. कम से कम मैंने नहीं देखा.
उसके देखे सुने अंदाज से जो तस्वीर बनी थी, उसके मुताबिक भी अपनी सोच होती कि पप्पू पैसे छोड़ नहीं सकता.
लेकिन, वाह भई पप्पू . मौके पर चौका जमा दिया.
सामने नहीं किया. लेकिन अब लिख के सरेआम पूरी दुनिया के सामने कहता हूं 'सलाम पप्पू' .
इसलिए नहीं कि उसने कमाई के एक जरिए को किनारे किया.
बल्कि इसलिए कि सिर वही है जो सही चौखट पर झुके. हर कदम को चूमने वाला 'चापलूस' सबको पसंद भले ही आ सकता हो लेकिन क्या वो मां का मोल लगाने से बच पाएगा.
गाय को वोट के बाज़ार में उतारने वालों से पूछ के देखिए.
Salaam Pappu tere jajbe ke liye.
जवाब देंहटाएंExtraordinary expressions of an ordinary name this shows your talent of mammograms immortal God blesu
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