बुधवार, 23 मार्च 2016

कृष्ण खेलें होली

और तरसें हम गोरे-काले...

 चेहरे पर रंग चढ़ा हो फिर क्या पता, कौन गोरा है और कौन काला.

सबको समान बना देने वाला होली जैसा कोई उत्सव दुनिया के किसी हिस्से में होता हो तो बता दें.

और अगर आप ब्रज की गलियों में पहुंच जाएं तो बरसाना से लेकर नंदगांव और मथुरा- वृंदावन तक में गुलाल के गुबार के बीच लाठियां लेकर पुरुषों को दौड़ाती महिलाओं के दर्शन न हों, ये मुमकिन नहीं.

ये दृश्य अब से नहीं पांच हज़ार साल पहले से दिखते हैं. महिला अधिकारों और नारी स्वतंत्रता को लेकर शुरू हुई बहसों से हज़ारों साल पहले से.

यही कृष्ण का दर्शन है और यही उनकी कृपा.

अन्याय और असमानता का रोना रोने से समानता आ सकती है या नहीं, ये बहस का मुद्दा है.
कृष्ण कभी ऐसी बहस में नहीं पड़े.

उन्होंने उत्सवीय परंपराओं को ऐसे मोड़ दे दिए कि हंसते- खेलते, आनंद मनाते ऊंच-नींच के भेद मिटते चले गए.

कृष्ण की पिचकारी से प्रेम रंग निकला. राधा भींगी और नाराज़ होकर कान्हा की तरफ लाठी लेकर दौड़ीं. ये लाठी अधिकार की थी. 

इसने ब्रज की महिलाओं के हाथ को इतना शक्ति संपन्न बना दिया जिसका बल पांच सहस्त्राब्दियों के बाद भी कम नहीं हुआ है. 

फागुन के महीने में लाठियों की ये बारिश देखने देश दुनिया से अनगिनत लोग ब्रज की गलियों में जुटते हैं. वो कृष्ण युग की परंपराओं से क्या सीखते हैं पता नहीं लेकिन वो उतने पल के लिए कृष्ण या राधा बन जाते हैं जितनी देर ब्रज की धूल में मिला रंग-गुलाल उनके चेहरे पर चिपका रहता है. 

कृष्ण का महारास हो या फिर होली का उल्लास. हर तरफ कृष्ण थे क्योंकि वहां मौजूद हर कोई कृष्ण हो गया. 
लेकिन कृष्ण बने रहना आसान नहीं. कृष्ण होकर आप शिकायत नहीं कर सकते. आनंद, उल्लास और प्रेम में रो तो सकते हैं लेकिन अवसाद के सागर में डूबे नहीं रह सकते. 
जिन्हें झीकते रहने की आदत है, वो क्षणिक आनंद के बाद अपने गोरे- काले चेहरे लिए कृष्ण लोक से बाहर आ जाते हैं. 

और जो कृष्ण बने रहते हैं, उनके लिए हर दिन होली का उत्सव है और हर तरफ आनंद है. जहां कृष्ण है वहां उमंग, उल्लास और उत्साह के रंगों की बरसात के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता. 

यकीन न हो तो इस होली कृष्ण होकर देखिए. 

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