सोमवार, 11 अप्रैल 2016

मां ने कहा था....

'आग से मत खेलना' 



हे मां!

खुशी के वक्त आप जिसे चाहे याद करें.

दुख, दर्द, तकलीफ, मुश्किल, परेशानी और बुरे वक्त में तो मां ही याद आती है.

क्यूं ?

दिमाग और दिल भरोसे की उस मजबूत बुनियाद पर यकीन करते हैं, जिसे उन्होंने बचपन से परखा होता है.

भूख लगे तो मां खाना खिलाती है.

चोट लगे तो मां जख्म सहलाती है. आंसूं पोछती है. आंचल की छांव में छुपाकर सारा दर्द छीन लेती है.

मुश्किल वक्त हो तो उम्मीद भरी बातों से हौसले के टिमटिमाते चिराग को सूरज की तरह रौशन कर देती है और चुनौतियों का अंधेरा खुद ही दूर हो जाता है.

फेल होने पर ताना नहीं देती.

कहती है, 'चल फिर ट्राई कर, तू तो टॉप करेगा'. 


देवी मंदिरों में जाने वाले भक्त भी 'मां' पर इसी भरोसे की वजह से कतार लगाते हैं.

फिर क्या वजह है कि मां के आंगन में, उसकी आंख के सामने ही उसके सौ से ज्यादा बच्चे भस्म हो गए.

साढे तीन सौ से ज्यादा झुलस गए.

वो मां के आंगन में खुशी खोजने आए थे. उनके हिस्से मातम को लिख गया.

प्रधानमंत्री और मुख्यमत्री की विजिट के बीच सक्रिय हुए प्रशासन ने जांच का आदेश दे दिया है.

लेकिन, जांच इस एंगल से नहीं होगी, इसका यकीन है.

किसी का 'ताव' भी नहीं कि ऐसे सवालों का जवाब दे सके


ग़म में पूरा देश शरीक है.

जिनके पास संवेदनाएं हैं, उन्हें हर तरह का हादसा हिला देता है.

चोट भले ही दूसरे को लगे. खून भले ही किसी और का बहे. आंखें उनकी नम हो जाती हैं.

मैं बहुत से ऐसे लोगों को जानता हूं जो बेवजह अस्पतालों का रुख नहीं करते

वो खुद का दर्द तो बर्दाश्त कर जाते हैं लेकिन दूसरों को कराहते देख नहीं पाते.

हालांकि, जब मानवता पुकारती है तो ऐसे लोग कलेजा पत्थर करके मदद के लिए सबसे आगे दिखते हैं.

केरल में भी ऐसे लोग जरुर आगे आए होंगे.    


हादसों में 'बर्न केस' सबसे ज्यादा तकलीफदेह होते हैं.

चोट का दर्द सह लिया जाता है. लेकिन जलन असहनीय होती है.

बारुद से घायल होने वालों को हफ्तों और महीनों तक चैन नहीं मिलता.

सरकारों ने मुआवजों का एलान कर दिया है. मुख्यमंत्री ने कहा, 'मरने वालों को दस लाख'. प्रधानमंत्री ने कहा, 'दो लाख'.

मुआवजे का मरहम तकलीफ कम कर पाएगा, कहना मुश्किल है.

मुश्किल तो वो सवाल भी है, जो शुरु में पूछा था.

कोल्लम के मंदिर में बैठी जो 'मां' सौ साल से अपने बच्चों की मन्नत पूरी कर रही थी.

वो इस हादसे को क्यों नहीं रोक पाई?

देवी ने कोई चमत्कार क्यों नहीं किया?

सौ बार जब ये सवाल सुने तो मां की सुनाई दो कहावतें याद आ गईं

'आग और पानी खेलने की चीज नहीं'

हर मां अपने बच्चों को बार-बार ये याद दिलाती है. हिदायत देती है. कभी मनुहार करती है, कभी डांटकर बताती है.

शायद वो ऐसे ही डर की तरफ इशारा करती है.

और फिर यहां तो आतिशबाजी, पटाखों और बारूद का पूरा ढेर था.

देखने वालों और सुनने वालों ने बताया है कि धमाके की गूंज एक किलोमीटर दूर तक सुनाई दी


दूसरी कहावत है, 'जानकर जड़ करें और देव को दोष दें'.

यानी आप गलतियां खुद करें और दोष देवताओं पर लगा दें.

कहने का मतलब ये कतई नहीं कि पीड़ितों ने गलती की. लेकिन कोल्लम में गलतियां हुईं. एक नहीं कई.

आस्था के ऐसे मेलों में जहां हज़ारों हज़ार लोग जुटते हैं आग का खेल कितना घातक हो सकता है, इस बात का अंदाजा नहीं लगाने वाले क्या देवी मां के आंगन में खड़े होने के हकदार हैं?

गौर कीजिएगा. अगर कहीं दीपक जलता हो और बच्चा उसके पास जाए तो मां दौड़कर उसे खींच लाती है

दीपक को ऐसी जगह रख देती है जहां तक बच्चे की पहुंच न हो.

मां ने इशारा यहां भी दिया होगा लेकिन अंधी होड़ में देखने समझने की जहमत किसने उठाई

प्रशासन कहता है, 'हमने अनुमति नहीं दी'.

ठीक है अनुमति नहीं दी होगी लेकिन जहां आतिशबाजी का ऐसा बड़ा तमाशा हुआ हो, हज़ारों की भीड़ जुट रही हो तो क्या सिर्फ एक एप्लीकेशन लौटाने भर से प्रशासन का काम पूरा होता है


अपना इरादा शासन, प्रशासन, सरकार और आयोजकों को कोसने का नहीं.

हम तो उस 'बरहामन' को कोस रहे हैं जिसने वर्ष प्रतिपदा के दिन ग़ालिब की ग़ज़ल सुनाते हुए कहा था, 'ये साल अच्छा है'.

कोल्लम की तकलीफ में हम सब शामिल हैं

लेकिन क्या हम इस हादसे से सबक लेंगे?  

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