राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होते.
बाइस हो सकते हैं. ज़ीरो हो सकते हैं. एक भी हो सकते हैं.
जैसे अब बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद हो गए हैं.
ये राजनीति का शीर्षासन है. इसे ऐसी परिक्रमा भी कह सकते हैं, जिसमें चलने वाला जहां से शुरु करता है, फिर वहीं पहुंच जाता है. संतुष्टि का भाव भी रहता है.
पहले लालू- नीतीश भाई-भाई थे. जोड़ी सुपरहिट थी. फिर राह अलग हो गई. जुदाई के बाद भी बिहार की राजनीति इन दोनों के इर्द-गिर्द ही सिमटी रही.
नीतीश लालू को कोसते रहे और सत्ता सुख भोगते रहे. लालू ने भी नीतीश की ईंट से ईंट बजाने की कोशिश कम नहीं की. राबड़ी देवी जी तो गाली देने में हर हद पार कर गईं.
उन दिनों नदी के दो पाट की तरह दिखने वाले लालू और नीतीश आगे जाकर मिल जाएंगे, किसने सोचा था?
तभी तो मैंने कहा कि राजनीति में गणित के फॉर्मूले नहीं चलते.
कई बार पारखी भी चक्कर खा जाते हैं.
इसी साल दिल्ली में हुए चुनाव के नतीजे इसका सुबूत हैं. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार भी खुद को राजनीति का पंडित कहने वालों के मुंह पर तमाचा थी.
लेकिन, वो बिराहमन ही क्या, जो खुद को ज्ञाता न माने.
बिहार की राजनीति के बेहद रपटीले अखाड़े में पैर जमाने की कोशिश कर रहे पहलवानों को लेकर पंडित फिर भविष्यवाणी कर रहे हैं.
बिना ये परवाह किए कि राजनीति में कैलकुलेटर की बताई संख्या सटीक हो, ये जरुरी नहीं.
अगर फॉर्मूला चल जाए तो स्थिति साफ है. चुनाव के दौरान जातियों के पाले खींच लेने वाले बिहार में ये साफ है कि किस गठबंधन के साथ कौन सी जाति है.
लेकिन दिक्कत ये है कि बिहारियों की गिनती उन 'ज़िंदा कौमों' में होती है जो राजनीति के सारे समीकरणों को गड्ड-मड्ड कर देती है.
जब स्थिति इस कदर कन्फ्यूज करने वाली हो तो जीत के लिए जोखिम लेने पड़ते हैं. प्रयोग करने पड़ते हैं. तो एनडीए और महागठबंधन ने पूरे बिहार को प्रयोगशाला बना दिया है.
प्रयोगशाला अगर नामी हो तो हर वैज्ञानिक वहीं जाकर शोध करना पसंद करता है. ऐसे में ओवैसी भी आ गए हैं बिहार.
ओवैसी ने एक खास इलाके को चुना है. वो पिछड़ेपन को मुद्दा बना रहे हैं.
उद्धारक की छवि पेश करते हुए उस इलाके को चमन बनाने का सपना दिखा रहे हैं. लेकिन, कहने वाले ये बताने से नहीं चूक रहे कि वो अपनी ताकत विकास के दावे के बजाए अपनी जाति के वोटों को मान रहे हैं.
प्रयोग एनडीए भी भरपूर कर रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बात विकास से शुरु की.
फिर बिहार को लुभावना पैकेज दिया. बिहार के पिछड़ेपन की बात की और दावा किया कि उनकी सरकार बनी तो फिर... समझ लीजिए कि बिहार जाने क्या हो जाएगा.
बीजेपी की अगुवाई में एनडीए के प्रयोगों के बीच आरएसएस ने भी एक्सपेरिमेंट शुरु कर दिए. भागवत जी ने आरक्षण को लेकर एक बयान दे दिया.
प्रयोगों के इस दौर में हवा उम्मीद के मुताबिक नहीं बनी. मोदी ने पैकेज जिस अंदाज में दिया, उसे नीतीश- लालू की जोड़ी ने बिहार की बोली लगाना बता दिया.
भागवत के बयान को आरक्षण खत्म करने की साजिश कह दिया.
इस बीच कहानी में ट्विस्ट आया. दादरी हो गया. नोएडा और पटना की दूरी एक हज़ार किलोमीटर है लेकिन बीफ यानी गोमांस का मुद्दा पलक झपकते ही नोएडा से पटना पहुंच गया.
ये बात अलग है कि अब एक प्रयोगशाला ने साफ कर दिया है कि दादरी में मारे गए अखलाक अहमद के फ्रीज में रखा मांस बीफ नहीं बल्कि मटन था लेकिन बिहार की प्रयोगशाला में बीफ के सहारे कामयाबी की रेसेपी तैयार करने की कोशिश शुरु हो गई.
इस बीच बड़बोले लालू गोमांस पर ऐसा कुछ बोल गए जो उनके ही खिलाफ जाने लगा. कम से कम भ्रम तो ऐसा ही बनाया गया. लालू कहते रहे कि मैंने ऐसा नहीं कहा. बीजेपी के नेताओं ने उनके खंडन पर ध्यान ही नहीं दिया और वो बताते गए कि देखो, देखो लालू क्या कह रहे हैं. छी. छी. छी.
लालू ने जो सफाई दी उसकी भी इस सफाई से धुलाई हुई कि उनकी सांसे उखड़ने लगीं. लालू पिछले दो चुनाव नीतीश कुमा्र से हारे जरुर हैं लेकिन वो ऐसे हांफे कभी नहीं थे. अपनी ही प्रयोगशाला में लालू पहली बार ऐसे 'लुल्ल' दिखे. हालांकि वो चतुर सुजान हैं. उन्हें इस स्थिति का अंदाजा रहा होगा. तभी उन्होंने जहर का घूंट पीते हुए नीतीश कुमार से हाथ मिलाया था.
नीतीश भी लपके हुए लालू की तरफ आए तो उसकी वजह यही थी कि दो दशक बाद बिहार की राजनीति सिर्फ लालू और नीतीश के चेहरों तक नहीं सिमटी रही. एक ऐसा तीसरा चेहरा आ गया जो बिहार की जमीन पर नहीं उगा लेकिन इसी जमीन पर लालू और नीतीश दोनों को पटक मार गया. लोकसभा चुनाव में.
बहरहाल, बिहार की प्रयोगशाला में हो रहे प्रयोगों को लेकर राजनीति के वैज्ञानिक चाहे जिस नतीजे की उम्मीद लगाएं, लेकिन असल निष्कर्ष क्या निकलेगा, इसे लेकर कोई दावे से कुछ कहने की स्थिति नहीं है.
मजा ये है कि खबरी लोग तब भी बिहार के मूड की भविष्यवाणी करने से नहीं चूक रहे हैं. नेता एक दूसरे की पोल खोल रहे हैं तो चैनल ओपिनयन पोल दिखा रहे हैं. ज्यादातर मोदी सेना को आगे बता रहे हैं. कुछ ने लालू-नीतीश की जोड़ी को भी आगे बताया है.
बिहार में चुनाव की तारीखें भी शोध के बाद तय की गईं लगती हैं. बिहारी भाई चुनाव के लिए पहला चरण 12 अक्टूबर यानी जेपी की जयंती के एक दिन बाद बढ़ाएंगे.
हमेशा की तरह इस बार भी लड़ाई जेपी के चेलों के बीच है. एक तरफ हैं लालू-नीतीश दूसरी तरफ हैं सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद.
चालीस साल पहले जेपी ने इन चेलों को जाति से ऊपर उठने के लिए जनेऊ तोड़ो का नारे सिखाया था. लेकिन चेले चालीस साल बाद भी जातियों के पाले में बैठे हुए हैं.
उन्हें जेपी का दूसरा नारा याद है. 'संपूर्ण क्रांति अब नारा है. भावी इतिहास हमारा है'. सवाल करने वाले ये भी पूछ सकते हैं कि भावी है तो इतिहास कैसे हो सकता है और इतिहास है तो भावी कैसे हो पाएगा.
खैर, मेरा सवाल उस प्रयोग के नतीजे के लेकर है, जो बिहार की राजनीतिक प्रयोगशाला में हो रहा है. नेता चाहे जो भी मानें मेरी सोच साफ है. बिहारी बुड़बक नहीं होते. दुनिया ने उनकी छवि चाहे जैसी भी बना दी हो, लेकिन राजनीति की समझ उनमें बहुत साफ है. और इस बार बिहार इसे पूरी साफगोई से बताने जा रहा है.
चलते-चलते बिहारी साथियों की ओर से मिला एक हंसगुल्ला
बिहार की दशा सुधारने के लिए एक मीटिंग बुलाई गई.
सवाल था क्या किया जाए.
एक चिरकुट ने कहा, चलो जी अमेरिका पर हमला बोल देते हैं.
बाकी बोले, ऊ से का होगा.
जवाब मिला. अमेरिका से जीतेंगे तो नहीं. अमेरिका जीत के अपना झंडा लगा देगा. फिर हम भी अमेरिका होंगे.
बिकास खुद्दे हो जाएगा.
किनारे बैठे चच्चा चुप थे.
सबने पूछा, ऐ चच्चा, चुप काहे हो.
चच्चा सिर खुजलाते हुए बोले.
साला सोच रहे हैं कि हम जीत गए तो अमेरिका का क्या होगा?