रविवार, 18 अक्तूबर 2015

यार हमारी बात सुनो, ऐसा एक इंसान चुनो

जिसने पाप ना किया हो...


बचपन में पढ़ा था. थोड़ा बहुत याद भी है. 

आपने भी पढ़ा होगा. इको सिस्टम में फूड चेन. 

चूहा पेड़ पौधों को खाता है फिर सांप का भोजन बन जाता है. सांप को नेवला खा लेता है. नेवले का शिकार शेर करता है और शेर चील की भूख मिटाता है. 

दुनिया ऐसे ही चलती है. 

इस दुनिया में टिकता वही है, जो खुद को हालात के माकूल सबसे बेहतर तरीके से ढाल लेता है. 

डार्विन साहब ने इसे 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' कहा. 

हालांकि, अपनी याददाश्त पर कितना भी ज़ोर डालूं ये याद नहीं पड़ता कि कभी ऐसा कुछ पढ़ाया गया हो कि फूड चेन में एक प्रजाति अपनी ही प्रजाति को मार डाल रही हो. 

वो भी दूसरी प्रजाति को बचाने के लिए. 

अब फूड चेन नए सिरे से तैयार की जा रही है. दुनिया के पुराने सिद्धांत बदले जा रहे हैं. 

अब गाय की जान इंसान की जान से ज्यादा कीमती है. 

गाय के कत्ल के शक में इंसान दूसरे इंसान को मार रहे हैं. 

ये नई किस्म की कड़ी है. 

कोई इंसान अगर भूख (आप स्वाद भी पढ़ सकते हैं) मिटाने के लिए गाय का गोश्त खाने का ख्याल लाता है तो उसे अपने पड़ोसी से सावधान रहना चाहिए. 

क्या पता उसे अपनी नस्ल से ज्यादा फिक्र गायों की हो. 

गायों के लिए मेरा आदर कम नहीं. बचपन से गायों की पूजा ही सिखाई गई है. 

हो सकता है कि गाय को कसाई घर जाते देखकर मेरे खून में भी उबाल आ जाए. 

लेकिन, इतना नहीं कि मैं जज बनूं. खुद सजा मुकर्रर करूं और फिर जल्लाद बन जाऊं. और खुद ही सज़ा भी दे डालूं. कभी नहीं. 

इंसान और जानवरों के बीच का फर्क यही है. ताकत होने पर भी जो धर्म की राह पर टिका रहता है, वही इंसान है. 

गायों को बचाने के तरीके और भी हैं. 

फिर सवाल एक और है. वही, जो कभी राजेश खन्ना ने किया था. 

'यार हमारी बात सुनो, ऐसा एक इंसान चुनो , जिसने पाप ना किया हो, जो पापी ना हो'. 

मैं शाकाहारी हूं तो क्या हुआ. चमड़े की बेल्ट लगाता हूं. चमड़े का जूता पहनता हूं. पॉकेट में चमड़े का पर्स रखता हूं. और ये चमड़ा कहां से आता है? 

अगर मैं धर्म के मुताबिक चलने वाला दंडाधिकारी बनना चाहूं तो मुझे सबसे पहले खुद को सज़ा देनी चाहिए. 

मैं चमड़े की जो चीजें इस्तेमाल करता हूं वो मुझे पता नहीं किस जानवर का चमड़ा है, लेकिन, क्या मैं दावे से कह सकता हूं कि ये 'इस' जानवर का चमड़ा नहीं? 

सवाल आस्था का है. तो क्या इंसानों में हमारी कोई आस्था नहीं?

है और रहेगी. 

दूसरे क्या करते हैं, मुझे इस सवाल से फर्क नहीं पड़ता. 

मेरे धर्म को भी नहीं पड़ता. 

हम सनातन हैं. अगर हमने दुनिया को राह दिखाई है तो फिर दूसरों की राह पर क्यों चलें?

हमें तो अपने रास्ते को ऐसे दिखाना चाहिए कि बाकी सभी हर रास्ते को छोड़कर कहें हां, हम भी इस रास्ते पर आना चाहते हैं. 

सनातन संस्कृति के आराध्य और मेरे ईश्वर श्रीकृष्ण ने इसी विश्वास के साथ कहा था, 

'सर्व धर्म परित्याज मामेकम शरणम ब्रज. अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्मामि मा शुच'

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

किसके अच्छे दिन

किसके बुरे दिन 


ये दिव्य ज्ञान है. 

केजरीवाल जी ने सुबह सवेरे ही ट्विटर पर इसकी घोषणा कर दी. 

साफ शब्दों में. शुद्ध हिंदी में. 

'मेरी जानकारी के मुताबिक मोदी जी बिहार चुनाव बुरी तरह से हार रहे हैं'. 

केजरी बोल (ट्वीट) जब सामने आए, उस वक्त तक बिहार की 243 सीटों में से सिर्फ 49 पर मतदान हुआ था. 

दूसरे चरण की 32 सीटों पर मतदान शुरु ही हुआ था. 

अरविंद केजरीवाल की सूचना का स्त्रोत क्या है, उन्होंने खुलासा नहीं किया. 

इसकी जरूरत भी नहीं. 

2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने भी नतीजों को लेकर इसी तरह की भविष्यवाणियां की थीं. 

मोदी के अनुमान सटीक निकले. अब कसौटी पर केजरीवाल का दावा है. 

एक चमत्कारिक दावा लालू जी ने भी किया. 




मोतीहारी के पास लखौरा में लालू की एक रैली थी. 

गरमी का मौसम उतार पर है. फिर भी लालू जी बड़े नेता हैं तो आयोजक चाहते थे कि उनके माथे पर पसीने की एक बूंद भी न आए. 

गरमी से बचाने के लिए मंच पर पंखा लगाया गया था. 

बीच रैली में मंच पर पंखा गिरा और लालू जी मातारानी पर बलिहारी हो गए. 

बोले,  'मां दुर्गा ने बचाया है'. 

गले में पड़ा लॉकेट भी दिखाया. मां की तस्वीर वाला. 

मां की बात हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर ने भी की. वो गौमाता की भक्ति दिखा रहे थे. 

लेकिन, भक्ति का अंतर देखिए. खट्टर की बातें सांप्रदायिकता के पाले में खिंच गई. 


लालू जी पहले भी भक्ति भाव दिखा चुके हैं. 

मांस खाने से तौबा की तो इसे शिवजी से सपने में मिला आदेश बताया था. 

गाय के मुद्दे पर घेरने की कोशिश लालू को भी हुई थी. मोदी ने तो पानी पी-पीकर खबर ली थी. 

फिर अचानक जाने क्या हुआ, मोदी राष्ट्रपति के दिखाए रास्ते पर चले गए. मुद्दा बदल लिया. लेकिन खट्टर फिर वैताल को उसी डाल पर ले आए. 

बात वापसी की हो रही तो जान लीजिए कि मुद्दा अब सिर्फ 'घर वापसी' तक नहीं सिमटा है. 

जुमले भी राह बदल रहे हैं.  

लौट लौट के आ रहे हैं. या लाए जा रहे हैं. वो आ रहे हैं तो मुंह चिढ़ा रहे हैं. 


भाई लोग हेमा जी की एक पुरानी तस्वीर निकाल लाए हैं. जसवंत सिंह के साथ खड़ी हैं हेमा जी. 

महंगाई बयान करने वाला पोस्टर गले में डाल रखा है. 

पोस्टर में एक किलो दाल की कीमत 55 रुपये बताई गई है. 

भाई लोग पूछ रहे हैं कि अब जब दाल 205 रुपये किलो बिक रही है, वो भी थोक में तो फिर हेमा जी कहां हैं? उनका पोस्टर कहां है?

भाई लोगों ने तस्वीर भी उस दिन तलाशी, जिस दिन हेमा जी बर्थडे मना रही थीं. 

सेलेब्रेशन का खुमार उतार दिया. 

लेकिन, ऐसे पोस्टरों का मज़ा देखिए. 

अपने पवार जी ने कह दिया, 'लोग कह रहे हैं हमारे बुरे दिन वापस कर दो'. 

'हमें अच्छे दिन नहीं चाहिए'. 

तो क्या केजरीवाल की सूचना का स्त्रोत पवार साहब हैं? 

उनके बयान के आधार पर ही वो पॉवर की इक्वेशन बता रहे हैं? 

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

जेपी के गांव में

प्रभात का इंतज़ार 


दिन ढल गया था. अंधेरा इतना हो चुका था कि ब्रजेश को मोटर साइकिल की हेडलाइट जलानी पड़ी. 

वापसी की मेनरोड पकड़ने के लिए उसने मोटर साइकिल टीलानुमा सड़क पर चढ़ाई.  

रफ्तार ठीक थी तो हेडलाइट की रोशनी इस कदर बढ़ गई थी कि सड़क के अंधेरे को खदेड़े जा रही थी.  

हमें पता नहीं था कि ये रोशनी किसी को असहज भी कर सकती है. दोनों भाई जिंदगी में पहली बार इस इलाके में थे. 

इस सड़क पर एक बार चलके आए थे. अब लौट रहे थे. 

बाइक मेनरोड पर पहुंची और सड़क किनारे कतार से बैठी महिलाएं अचकचा के उठ गईं. मोटरसाइकिल की रोशनी ने उन्हें परेशान कर दिया. और हमें कुछ हद तक हैरान और शर्मिंदा. 

ब्रजेश ने मोटर साइकिल की रफ्तार और तेज़ कर दी.  मोटरसाइकिल की हेडलाइट से जो गुनाह हो गया था, उसकी तरफ पीठ कर लेना ही अच्छा था.  


बिना मौके और जरुरत के हम दोनों भाई सिताब दियारा आए थे. लोकनायक को प्रणाम करने. उस मिट्टी को देखने जिसने जोरावर जेपी को गढ़ा था. 

वो जेपी जिन्होंने 'दुर्गा अवतारी' बताई गई प्रधानमंत्री का सिंहासन जनता के लिए खाली करा लिया था. 

उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर बसे सत्ताइस टोले वाले जेपी के गांव से लौटते वक्त बेबस महिलाओं की टोली ने जेपी की विरासत के वारिसों के दावों की पोल खोल दी. 

दो साल पहले जब हम वहां गए थे, तब यूपी और बिहार दोनों जगह सरकारें उन्हीं पार्टियों की थी, जिनके मुखिया खुद को जेपी का अनुयायी और उनकी विरासत का वाहक बताते हैं. 

विरासत को लेकर लड़ाई भी होती है. कुछ दूरी के फासले पर जेपी के दो स्मारक बना दिए गए हैं. एक यूपी में है. दूसरा बिहार में. 

लोगों ने बताया,  ''चुनाव के दिनों में अगर जेपी की जयंती हो या फिर पुण्यतिथी, वहां नेताओं का मेला लग जाता है. स्मारक बनाने वालों और मेले लगाने वालों को चिंता वोटों की होती है. जेपी के मूल्यों की नहीं.'' 

होती तो स्मारक बनाने के पहले वो जेपी के गांव की महिलाओं के लिए शौचालय बनवाते. 


पता नहीं, स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत होने के बाद वहां की स्थिति में कितना बदलाव आया है. 

ये पोस्ट जेपी को स्वच्छ भारत अभियान के पोस्टर लाने की वकालत नहीं. 

सत्तर पार की उमर में जब जेपी लोकतंत्र बचाने की लडाई के अगुवा बने तब भी उन्होंने पोस्टर पर आने या सिंहासन पाने के लिए संघर्ष नहीं किया. 

जेपी का घर अब उनका स्मारक है. वहां काम करने वाले विनोद जी ने बड़ी मायूसी से कहा था, "जेपी का मिशन अधूरा रह गया. न भेदभाव मिटा. न छूआछूत". 

धर्म को लेकर जेपी की जो परिभाषा थी पता नहीं उसकी जानकारी उनके कितने चेलों को है. 

जेपी स्मारक की दीवारों पर लिखा है, 'परोपकार सबसे अच्छा धर्म है'. 


जयप्रकाश नारायण सिर्फ ऐसा कहते भर नहीं थे. उनके हिस्से गांव की इक्यावन बीघा जमीन आई थी. इसमें से 22 बीघा उन्होंने भूदान आंदोलन में दान कर दी थी. 

आजादी की लड़ाई में जयप्रकाश नारायण नाम के सैनानी का क्या योगदान था, यहां दोहराने की जरुरत नहीं. संपूर्ण क्रांति के वक्त तो निरंकुश सत्तातंत्र में सिहरन भरने वाली आवाज ही जेपी की थी. 

विजय दशमी को जन्मे जेपी ताउम्र लड़े और हर जंग जीते. जिंदगी और रिश्तों को दांव पर लगाकार भी. 


उन्होंने कितनी कुर्बानियां दीं. जेपी की पत्नी प्रभावती देवी भी हर बलिदान की सहभागी थीं. सबसे बड़ा त्याग था बेऔलाद रहने का फैसला. 

जेपी के घर में उनका पलंग है. उनकी जैकेट है. उनकी तस्वीरें हैं. उनकी शेविंग किट है. मां-बाप की तस्वीरें हैं. संग्रहालय है. लाइब्रेरी है. जहां जितनी किताबें हैं, उसके एक फीसदी भी पढ़ने वाले नहीं हैं. मंदिर है और एक गांव है. 

और गांव के लिए जेपी का संदेश है 

'रात चाहे कितनी ही अंधेरी हो,प्रभात तो फूटकर ही रहता है'. 

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

बिहार की प्रयोगशाला

राजनीति का शीर्षासन 


राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होते. 

बाइस हो सकते हैं. ज़ीरो हो सकते हैं. एक भी हो सकते हैं. 

जैसे अब बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद हो गए हैं. 

ये राजनीति का शीर्षासन है. इसे ऐसी परिक्रमा भी कह सकते हैं, जिसमें चलने वाला जहां से शुरु करता है, फिर वहीं पहुंच जाता है. संतुष्टि का भाव भी रहता है.  


पहले लालू- नीतीश भाई-भाई थे. जोड़ी सुपरहिट थी.  फिर राह अलग हो गई. जुदाई के बाद भी बिहार की राजनीति इन दोनों के इर्द-गिर्द ही सिमटी रही. 

नीतीश लालू को कोसते रहे और सत्ता सुख भोगते रहे. लालू ने भी नीतीश की ईंट से ईंट बजाने की कोशिश कम नहीं की. राबड़ी देवी जी तो गाली देने में हर हद पार कर गईं. 

उन दिनों नदी के दो पाट की तरह दिखने वाले लालू और नीतीश आगे जाकर मिल जाएंगे, किसने सोचा था?

तभी तो मैंने कहा कि राजनीति में गणित के फॉर्मूले नहीं चलते. 

कई बार पारखी भी चक्कर खा जाते हैं. 

इसी साल दिल्ली में हुए चुनाव के नतीजे इसका सुबूत हैं. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार भी खुद को राजनीति का पंडित कहने वालों के मुंह पर तमाचा थी. 

लेकिन, वो बिराहमन ही क्या, जो खुद को ज्ञाता न माने. 


बिहार की राजनीति के बेहद रपटीले अखाड़े में पैर जमाने की कोशिश कर रहे पहलवानों को लेकर पंडित फिर भविष्यवाणी कर रहे हैं. 

बिना ये परवाह किए कि राजनीति में कैलकुलेटर की बताई संख्या सटीक हो, ये जरुरी नहीं. 

अगर फॉर्मूला चल जाए तो स्थिति साफ है. चुनाव के दौरान जातियों के पाले खींच लेने वाले बिहार में ये साफ है कि किस गठबंधन के साथ कौन सी जाति है. 

लेकिन दिक्कत ये है कि बिहारियों की गिनती उन 'ज़िंदा कौमों' में होती है जो राजनीति के सारे समीकरणों को गड्ड-मड्ड कर देती है. 

जब स्थिति इस कदर कन्फ्यूज करने वाली हो तो जीत के लिए जोखिम लेने पड़ते हैं. प्रयोग करने पड़ते हैं. तो एनडीए और महागठबंधन ने पूरे बिहार को प्रयोगशाला बना दिया है. 

प्रयोगशाला अगर नामी हो तो हर वैज्ञानिक वहीं जाकर शोध करना पसंद करता है. ऐसे में ओवैसी भी आ गए हैं बिहार. 

ओवैसी ने एक खास इलाके को चुना है. वो पिछड़ेपन को मुद्दा बना रहे हैं. 

उद्धारक की छवि पेश करते हुए उस इलाके को चमन बनाने का सपना दिखा रहे हैं. लेकिन, कहने वाले ये बताने से नहीं चूक रहे कि वो अपनी ताकत विकास के दावे के बजाए अपनी जाति के वोटों को मान रहे हैं. 


प्रयोग एनडीए भी भरपूर कर रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बात विकास से शुरु की. 

फिर बिहार को लुभावना पैकेज दिया. बिहार के पिछड़ेपन की बात की और दावा किया कि उनकी सरकार बनी तो फिर... समझ लीजिए कि बिहार जाने क्या हो जाएगा. 

बीजेपी की अगुवाई में एनडीए के प्रयोगों के बीच आरएसएस ने भी एक्सपेरिमेंट शुरु कर दिए. भागवत जी ने आरक्षण को लेकर एक बयान दे दिया. 

प्रयोगों के इस दौर में हवा उम्मीद के मुताबिक नहीं बनी. मोदी ने पैकेज जिस अंदाज में दिया, उसे नीतीश- लालू की जोड़ी ने बिहार की बोली लगाना बता दिया. 

भागवत के बयान को आरक्षण खत्म करने की साजिश कह दिया. 

इस बीच कहानी में ट्विस्ट आया. दादरी हो गया. नोएडा और पटना की दूरी एक हज़ार किलोमीटर है लेकिन बीफ यानी गोमांस का मुद्दा पलक झपकते ही नोएडा से पटना पहुंच गया. 

ये बात अलग है कि अब एक प्रयोगशाला ने साफ कर दिया है कि दादरी में मारे गए अखलाक अहमद के फ्रीज में रखा मांस बीफ नहीं बल्कि मटन था लेकिन बिहार की प्रयोगशाला में बीफ के सहारे कामयाबी की रेसेपी तैयार करने की कोशिश शुरु हो गई. 


इस बीच बड़बोले लालू गोमांस पर ऐसा कुछ बोल गए जो उनके ही खिलाफ जाने लगा. कम से कम भ्रम तो ऐसा ही बनाया गया. लालू कहते रहे कि मैंने ऐसा नहीं कहा. बीजेपी के नेताओं ने उनके खंडन पर ध्यान ही नहीं दिया और वो बताते गए कि देखो, देखो लालू क्या कह रहे हैं. छी. छी. छी. 

लालू ने जो सफाई दी उसकी भी इस सफाई से धुलाई हुई कि उनकी सांसे उखड़ने लगीं. लालू पिछले दो चुनाव नीतीश कुमा्र से हारे जरुर हैं लेकिन वो ऐसे हांफे कभी नहीं थे. अपनी ही प्रयोगशाला में लालू पहली बार ऐसे 'लुल्ल' दिखे. हालांकि वो चतुर सुजान हैं. उन्हें इस स्थिति का अंदाजा रहा होगा. तभी उन्होंने जहर का घूंट पीते हुए नीतीश कुमार से हाथ मिलाया था.

नीतीश भी लपके हुए लालू की तरफ आए तो उसकी वजह यही थी कि दो दशक बाद बिहार की राजनीति सिर्फ लालू और नीतीश के चेहरों तक नहीं सिमटी रही. एक ऐसा तीसरा चेहरा आ गया जो बिहार की जमीन पर नहीं उगा लेकिन इसी जमीन पर लालू और नीतीश दोनों को पटक मार गया. लोकसभा चुनाव में.  

बहरहाल, बिहार की प्रयोगशाला में हो रहे प्रयोगों को लेकर राजनीति के वैज्ञानिक चाहे जिस नतीजे की उम्मीद लगाएं, लेकिन असल निष्कर्ष क्या निकलेगा, इसे लेकर कोई दावे से कुछ कहने की स्थिति नहीं है. 

मजा ये है कि खबरी लोग तब भी बिहार के मूड की भविष्यवाणी करने से नहीं चूक रहे हैं. नेता एक दूसरे की पोल खोल रहे हैं तो चैनल ओपिनयन पोल दिखा रहे हैं. ज्यादातर मोदी सेना को आगे बता रहे हैं. कुछ ने लालू-नीतीश की जोड़ी को भी आगे बताया है. 


बिहार में चुनाव की तारीखें भी शोध के बाद तय की गईं लगती हैं. बिहारी भाई चुनाव के लिए पहला चरण 12 अक्टूबर यानी जेपी की जयंती के एक दिन बाद बढ़ाएंगे. 

हमेशा की तरह इस बार भी लड़ाई जेपी के चेलों के बीच है. एक तरफ हैं लालू-नीतीश दूसरी तरफ हैं सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद. 

चालीस साल पहले जेपी ने इन चेलों को जाति से ऊपर उठने के लिए जनेऊ तोड़ो का नारे सिखाया था. लेकिन चेले चालीस साल बाद भी जातियों के पाले में बैठे हुए हैं.  

उन्हें जेपी का दूसरा नारा याद है. 'संपूर्ण क्रांति अब नारा है. भावी इतिहास हमारा है'. सवाल करने वाले ये भी पूछ सकते हैं कि भावी है तो इतिहास कैसे हो सकता है और इतिहास है तो भावी कैसे हो पाएगा. 

खैर, मेरा सवाल उस प्रयोग के नतीजे के लेकर है, जो बिहार की राजनीतिक प्रयोगशाला में हो रहा है. नेता चाहे जो भी मानें मेरी सोच साफ है. बिहारी बुड़बक नहीं होते. दुनिया ने उनकी छवि चाहे जैसी भी बना दी हो, लेकिन राजनीति की समझ उनमें बहुत साफ है. और इस बार बिहार इसे पूरी साफगोई से बताने जा रहा है. 

चलते-चलते बिहारी साथियों की ओर से मिला एक हंसगुल्ला 

बिहार की दशा सुधारने के लिए एक मीटिंग बुलाई गई. 

सवाल था क्या किया जाए. 

एक चिरकुट ने कहा, चलो जी अमेरिका पर हमला बोल देते हैं. 

बाकी बोले, ऊ से का होगा. 

जवाब मिला. अमेरिका से जीतेंगे तो नहीं. अमेरिका जीत के अपना झंडा लगा देगा. फिर हम भी अमेरिका होंगे. 

बिकास खुद्दे हो जाएगा. 

किनारे बैठे चच्चा चुप थे. 

सबने पूछा, ऐ चच्चा, चुप काहे हो. 

चच्चा सिर खुजलाते हुए बोले. 

साला सोच रहे हैं कि हम जीत गए तो अमेरिका का क्या होगा?

'जय बिहार'