सचिन बैटिंग कर रहे हों तो फिर कोई भी काम इतना जरूरी नहीं लगता था जिसे उनकी पारी खत्म होने तक टाला न जा सके.
जुलाई- अगस्त 2001 की उस सीरीज़ में सचिन तेंदुलकर नहीं खेल रहे थे.
क्रिकेट देखने की सबसे बड़ी वजह ही मौजूद न हो तो मैच छोड़ा भी जा सकता था.
तो मैने स्कूटर उठाया और फतेहपुर सीकरी जाने वाली सडक पकड़ ली.
आना-जाना मिलाकर कोई डेढ सौ किलोमीटर का सफर था. मुझे उम्मीद थी कि छह घंटे में लौट आऊंगा और मैच अगर 50 ओवर तक चला तो आखिरी ओवरों का खेल देखने को भी मिल जाएगा.
हुआ भी यही. न्यूज़ीलैंड के खिलाफ उस मैच को भारत ने छियालीसवें ओवर में ही जीत लिया और मैंने द्रविड़ को विनिंग शॉट लगाते देखा. मिडऑफ बाउंड्री को पार करती गेंद चार रन के लिए निकल गई.
लेकिन इस जीत से ज्यादा चर्चा उस बात की थी जिसे मैंने मिस कर दिया.
हर कोई सचिन तेंदुलकर के 'क्लोन' की बात कर रहा था.
ये क्लोन थे वीरेंद्र सहवाग. ये सहवाग का पहला मैच नहीं था. वो 1999 में टीम में आए थे और इस मैच के पहले 14 मैच खेल चुके थे. एक हाफ सेंचुरी भी जमा चुके थे मिडिल ऑर्डर में बल्लेबाजी करते हुए. लेकिन, उन पर किसी का ध्यान गया हो, ये आज मैं दावे से नहीं कह सकता.
लेकिन, सिर्फ सात घंटे में वो क्रिकेट की दुनिया की सबसे बड़ी 'सनसनी' बन चुके थे.
उस दौर में सचिन तेंदुलकर का क्या रुतबा था, इसे आज चाहकर भी बयान नहीं किया जा सकता.
बस ये समझिए कि सचिन हिंदुस्तान की धड़कन थे.
आज की तरह उन दिनों क्रिकेट सिर्फ एक खेल भर नहीं था.
वो वक्त वनडे के सबसे सुनहरे दौर में से एक था.
और सचिन वनडे के सबसे बड़े खिलाड़ी थे. सिर्फ रिकॉर्ड के दम पर नहीं. बल्लेबाजी की उस रौबीली शैली की वजह से जो तब के जानकारों के मुताबिक उनके पहले सिर्फ विवियन रिचर्ड्स के पास थी.
भारत ने श्रीकांत जैसे विस्फोटक ओपनर का खेल देखा था लेकिन श्रीकांत की अपनी सीमाएं थीं.
और सचिन, उन्हें तो उस दौर में किसी सीमा में बांधना ही मुमकिन नहीं था.
वो गेंदबाजों को पीटते भर नहीं थे, उनके धुर्रे बिखेर देते थे. अकरम से लेकर मेक्ग्रा और वार्न से लेकर मुरलीधरन तक सचिन के आगे सहमे और सिमटे दिखते थे.
मैंने पहले सुना फिर रिपीट टेलीकास्ट में देखा. कोलंबो में न्यूज़ीलैंड के खिलाफ उस मैच में सहवाग सचिन तेंदुलकर की कार्बन कॉपी थे.
वही विस्फोटक अंदाज. वैसा ही बैकफुट पंच, वही फ्लिक, उसी अंदाज में कट.
सचिन के सम्मोहन में जकड़े कमेंटेटर उनकी 'कॉपी' पर भी कुर्बान थे.
उन दिनों समाचार चैनलों की क्रांति शुरु ही हुई थी.
मैच का टेलीकास्ट करने वाले चैनल का प्रसारण थमा और न्यूज़ चैनलों ने सहवाग की पारी घुमा-घुमाकर दिखानी शुरु कर दी.
उनकी सचिन से इतनी तुलना हुई कि इस मैच के बाद सहवाग को नया नाम मिल गया 'नजफगढ़ का तेंदुलकर'.
उन दिनों सहवाग जिस बेबाकी से खेलते थे, बोलने में भी उतने ही बेबाक थे.
किसी उत्साही रिपोर्टर ने पूछ लिया, 'आप में और सचिन में क्या अंतर है?'
सहवाग ने तपाक से कहा, 'बैंक बेलेंस का'.
मुझे जवाब अच्छा नहीं लगा. ऐसा लगा कि एक ही शतक के बाद ये बंदा कैसे खुद को सचिन मान बैठा है?
अब जाके पता चला कि सहवाग खुद भी ये जवाब देने के बाद सहज नहीं थे. उन्होंने इसके लिए सचिन से माफी भी मांगी थी.
खैर, मेरे जैसे लोगों के दिल में भी सहवाग के जवाब को लेकर जो मलाल था, वो ज्यादा देर नहीं टिक सका.
सहवाग की हर पारी उनकी फैन फॉलोइंग बढ़ाती गई.
धीमे-धीमे वो सचिन की छाया से मुक्त होने लगे. बल्कि कुछ हद तक वो सचिन को छाया में लेने लगे.
ये सुनने और पढ़ने में भले ही अटपटा लगे लेकिन मेरा मानना है कि सचिन पर कभी विरोधी गेंदबाजों ने इतना दबाव नहीं बनाया होगा जितना सहवाग ने बनाया.
सचिन के इस क्लोन ने एक ही झटके में वनडे में ओपनिंग के उस रोल को हथिया लिया जो सचिन ने तमाम गुजारिश के बाद हासिल किया था.
मुल्तान में द्रविड़ के पारी घोषित करने के बाद नाराजगी जाहिर करने के पहले सचिन ने खुद को ओपनिंग के रोल से हटाए जाने को लेकर भी शिकायत की थी.
अगस्त 2001 की करिश्माई पारी के बाद सहवाग ओपनिंग स्लॉट में फिक्स हो गए. लेफ्ट राइट कॉम्बिनेशन कायम रखने के लिए सौरव गांगुली दूसरे ओपनर की पोजीशन थामे रहे और सचिन जब टीम में लौटे तो उन्हें कुछ मैचों में चौथे नंबर पर बैटिंग करनी पड़ी.
और, सचिन को कहना पड़ा कि वो वनडे में ओपनिंग करना चाहते हैं.
और, टीम मैनेजमेंट को कहना पड़ा कि वो ये बात टीम मीटिंग में भी कह सकते थे.
ये तब तक अमूमन निर्विवाद रहे सचिन के साथ जुड़ा शायद पहला विवाद था.
फिर वो बहस शुरू हुई जिसे हाल में कपिल देव ने भी दोबारा हवा दी है कि सचिन अपना 'नैचुरल गेम' नहीं खेलते.
नैचुरल गेम यानी गेंदबाज पर सवार होने वाला खेल. हर गेंद को बाउंड्री के बाहर भेजने की जिद दिखाने वाला खेल.
सचिन ने करियर के पहले दस साल में इसी अंदाज में बल्लेबाजी की थी. उस वक्त ऐसा लगता था कि सचिन ये बर्दाश्त नहीं कर पाते थे कि उनके साथी बल्लेबाज का स्ट्राइक रेट उनसे बेहतर हो.
सहवाग ऐसे पहले बल्लेबाज थे जिन्हें चुनौती देने में सचिन को दिक्कत होने लगी. धीरे-धीरे सचिन का खेल बदलता गया.
सचिन को लेकर दीवानगी सहवाग के आने के बाद भी कम नहीं हुई लेकिन बदलाव जरूर हुआ.
पहले सचिन वो अकेले बल्लेबाज थे जिनके आउट होते ही टीम इंडिया की जीत की आस टूटने सी लगती थी. खासकर वनडे क्रिकेट में. विरोधी कप्तान अपनी टीम मीटिंग में सबसे ज्यादा वक्त सचिन को रोकने का प्लान तैयार करने पर लगाते थे लेकिन, सहवाग आए तो वो भी विरोधी कप्तान का उतना ही वक्त लेने लगे.
सहवाग के साथ खेलने का फायदा मेरे ख्याल से सबसे ज्यादा राहुल द्रविड़ को मिला.
अगर सहवाग टेस्ट क्रिकेट में ओपनर न बने होते तो मुझे संदेह है कि द्रविड़ तीन नंबर के इतने महान बल्लेबाज होते. (मैं द्रविड़ भक्तों से माफी चाहता हूं)
टेस्ट क्रिकेट में सहवाग की कामयाबी ने द्रविड़ की कामयाबी का ग्राफ भी काफी ऊंचा कर दिया.
मैं बरसों बरस सचिन के खेल के सम्मोहन में जकड़ा रहा हूं. अब भी दीवानगी का वो दौर मेरे साथ है लेकिन फिर भी मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि सचिन और द्रविड़ के उलट सहवाग कभी अपने नाम के बोझ तले दबते पिसते नहीं दिखे.
सहवाग अपने दौर के ऐसे अकेले सुपरस्टार थे जो अपनी शर्तों पर खेले. जिन्होंने हिंदुस्तान के गुरुर को सबसे ज्यादा सुकून दिया. जिन्होंने पाकिस्तान के गेंदबाजों की सबसे ज्यादा पिटाई की.
लेकिन, मेरी नज़र में वो सबसे ज्यादा 'अनलकी' भी रहे.
सहवाग ने संन्यास का एलान किया तो मुझे लगा कि 'सुल्तान' और 'नवाब' जैसे खिताबों से नवाजे गए इस महान बल्लेबाज की विदाई सचिन, कुंबले और सौरव की तरह शान से होनी चाहिए थी.
बाद में सहवाग ने भी यही मलाल जाहिर किया.
लेकिन, अफसोस सिर्फ विदाई का नहीं. 2006 में उन्हें जब पहली बार ड्रॉप किया गया तो उनकी सिर्फ एक सीरीज़ खराब थी. दक्षिण अफ्रीका में वो करीब 15 के औसत से ही रन बना सके थे. लेकिन, उस सीरीज में हर बड़ा सितारा फ्लॉप था. सहवाग ने एक सीरीज पहले ही वेस्ट इंडीज में 51 और उसके दो सीरीज पहले पाकिस्तान में करीब 74 के औसत से रन बनाए थे.
ऐसे ही करियर के आखिर में जब उन्हें ड्रॉप किया गया तो उनकी सिर्फ एक सीरीज के पहले दो मैच खराब थे. पिछली ही सीरीज में उन्होंने एक शतक बनाया था.
वनडे टीम से ड्रॉप होने के सिर्फ 11 मैच पहले उन्होंने 219 रन की रिकॉर्डतोड़ पारी खेली थी. आखिरी के 11 मैचों में भी उन्होंने एक हाफ सेंचुरी बनाई थी और तीस से ज्यादा के चार स्कोर बनाए थे.
सहवाग के संन्यास के बाद मैं इतना जरुर कहना चाहूंगा कि सचिन और सहवाग में बैंक बैलेंस के अलावा भी एक फर्क था. वो ये कि सचिन नाम का जो सम्मोहन बीसीसीआई को नतमस्तक रखता था, वो सहवाग की तकदीर में नहीं था. नहीं तो 'क्लोन' को भी ओरिजनल सचिन की तरह ही लाल गलीचे बिछाकर विदा किया जाता.
हां, बीसीसीआई से इतनी गुजारिश जरुर है कि दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आखिरी दो टेस्ट मैच की टीम अभी चुनी नहीं गई है.
दिल्ली के मैच में वीरू को बुला लो. मैच खिला दो. उनका और फैन्स दोनों का दिल रह जाएगा. अब तो वो फॉर्म में भी हैं.